किसी
ने कहा है मनुष्य आदतों वाला प्राणी है । मनुष्य को बड़ी जल्दी कोई आदत लगती है और कोई
न कोई आदत लगती जरूर है ।
आजकल
मुझे एक नयी आदत लगी है ,टीवी पर राजनैतिक बहस देखना । बल्कि मैं समझता हूँ लत लग गयी है । आदत और लत में शायद फर्क
नहीं है लेकिन लत शब्द मुझे गहरी और मजबूर कर देने वाली आदत का बोध कराता है । खैर
इस पर भाषा विज्ञानी ध्यान देंगे ।
शुरू
शुरू में काफी मज़ा आया । अब इन बहसों से चट चुका हूँ फिर भी कुछ समझ नहीं आता तो टीवी
के किसी न्यूज़ चैनल पर बहस खोलकर बैठ जाता हूँ । चौबीस घंटों में हर समय किसी न किसी
चैनल पर कोई न कोई बहस जरूर चल रही होती है । यही लत है कि जो चीज परेशान करने लगे
फिर भी आप उसे न छोड़ पायें ।
इन बहसों
के बारे में मेरा अनुभव कुछ इस प्रकार है –
किसी
बहस से कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता ।
बहसें
सुनते सुनते आप अनुभव से समाचार सुनकर बहस के मुद्दे बता सकते जिनपर उस दिन बहस चलेगी।
आपको
पता होता है किस पार्टी का प्रवक्ता क्या बोलेगा।
उन्होने
अच्छे बुरे किसी भी बिन्दु पर कभी सहमत न होने की कसम खा रखी है ।
प्रश्न
कोई भी हो उत्तर में वो वही बोलेंगे जो वो बोलना चाहेंगे ।
बात हर
स्तर के लोग आसानी से समझें इसलिए बहस और भाषा के स्तर में काफी लचीलापन होता है ।
वह कितना भी ऊंचा और कितना भी नीचा जा सकता है ।
इन बहसों
में कुछ चीजें मुझे चमत्कृत भी करती हैं और इनसे कुछ सीख सकते है वो ये -बड़े से बड़े
आरोप का बेसिकन जवाब देना , पूरे आत्मविश्वास के साथ झूठ बोलना , और सारे प्रश्नों का जवाब देने को तैयार
रहना। कभी कभी ऐसे प्रश्नों का उत्तर भी इनके पास होता है जिन्हें हम लाजवाब समझते
हैं ।