चुनाव, मेनिफेस्टो और कुछ भी
भारत में चुनाव उत्सव, तमाशा, जंग, उद्योग सब कुछ है।
कभी ये समुद्र मंथन सा लगता है जिसके परिणाम
स्वरूप रत्न और विष दोनों निकलते हैं। इसमें कौन देवता हैं और कौन दानव ज्ञानी ही समझ
सकते हैं। हर एक पक्ष खुद को देवता और सामने वाले को दानव कहता है ।
इसमें मोहनी अवतार नहीं होता। पृथ्वी लोक की ही कुछ मोहनियाँ
यह कमी पूरी करती हैं ।
चुनाव होली, दिवाली, ईद, क्रीसमस आदि त्योहारों की शैलियों में सम्पन्न होते
है।
चुनाव की घोषणा होली का डांडा गाड़ने के दिन
जैसा समझ सकते हैं। असली होली डांडा गड़ने के लगभग बीस दिन बाद रंगों से खेली जाती है।
चुनावी होली चुनाव की घोषणा के साथ ही शुरू हो जाती है और ये परस्पर अधिक से अधिक कीचड़
उछाल कर खेली जाती है। चुनाव सम्पन्न हो जाने पर विजेता पार्टी सारे त्योहार एक साथ
मनाती है और कुछ हारे हुए लोग खून से होली खेलने पर भी आमादा हो जाते हैं।
पारंपरिक रूप से सब पार्टियां मेनिफेस्टो यानि
घोषणा पत्र निकालती हैं। नाम पत्र होता है किन्तु इंनका आकार पुस्तक जैसा होता है।
क्योंकि वायदों पर कोई प्रतिबंध नहीं होता अतः इनका आकार चुनाव दर चुनाव बड़ा होता जाता
है। इनकी कितनी प्रतियाँ छपती कहाँ बंटती हैं, कौन लोग पढ़ते हैं पता नहीं।
नेताओं के वक्तव्यों से ही कुछ एक विंदु मालूम हो जाते है।
ग्लोबलाइजेशन के चलते आजकल सारे देशों के हित
आपस में जुड़े होने से चुनाव सिर्फ एक देश का नहीं होता। भारत जैसे बड़े और उभरते हुए
शक्तिशाली राष्ट्र के साथ अनेक देशों के हित जुड़े हैं विशेष तौर पर एक दो पड़ोसी देशों
के लिए तो भारत का आम चुनाव उनके जीने मरने के प्रश्न की तरह होता है। अतः वे भी इन
चुनावों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। चुनाव
में देश के अंदर कैसी भी प्रतिद्वंदीता हो। विदेशी हाथ पर नज़र रखना बहुत जरूरी है।
ये पहचानना बेहद जरूरी है वे किस पक्ष में किस तरीके से इन चुनावों को प्रभावित करने
का प्रयत्न करते हैं। कौन लोग है जो उन्हें अपना हितैसी मानते हैं या वे
कीन्हे भारत में अपना हितैसी मानते हैं। ऐसी शक्तियों को पहचानना और उनसे देश की रक्षा
बहुत जरूरी है।
नेताओं को मनुवाद, फासीवाद, संप्रदायवाद, जैसे बड़े बड़े शब्दों से खेलने दें या जातिवाद
में उलझाने की कोशिश करने दें। उनके लिये सत्ता सर्वोपरि हो सकती है।
जनता के लिए तो देश प्रथम है।