अधिक पाने की चाहत में यहाँ थोड़ा भी खोया है
वही काटा है इंसा नें जो निज हाथों से बोया है
स्वप्न जब टूटते हैं आँखों में आंसू नही दिखते
कोई तो झांक कर देखे ये मनवा कितना रोया है
बुझा चेहरा थकी आँखें बातें बोझिल सी करता है
गुमां होता है यूँ इंसान वो कब से ना सोया है
बड़ा मज़बूर है इंसा जुदा बाहर से दिखता है
ज़रा भीतर नज़र डालो इसने जख़्मों को ढोया है
तपती रेती कहो कैसे उसे भूले यहाँ मधुकर
जिसने बरसा के अपना जल उसके तन को भिगोया है