घिरे हैं आज कांटों में और ना कहीं फूल खिलते हैं
समय तेरी महर के बिन कभी हमदम ना मिलते हैं
घाव कुछ इस कदर पाएं है हमने खास अपनों से
दर्द से बिलबिलाते होंठ हम अक्सर ही सिलते हैं
बड़ा रूखा सा मौसम है कहीं ना कोई हलचल है
घने पेड़ों की शाखों पे भी तो ये पत्ते ना हिलते हैं
राह जो सामने आई हम तो हरदम चले उस पर
कड़े पत्थर की चोटों से पैर तो फिर भी छिलते हैं
सफ़र जीवन का हरदम ही मधुर होता नहीं मधुकर
थपेड़े कितना भी चाहो मगर तन्हा ना झिलते हैं