एक मेरे मित्र हैं जो मुझसे बहुत नाराज़ हैं
उनको पसंद आते ना मेरे मलमली अल्फ़ाज़ हैं
राष्ट्र की खातिर वो कहते हैं की मैं रचना लिखूं
एक भारत माँ के ही चरणों में नित नित झुकूं
ढूंढ़ता हूँ जब मगर मैं राष्ट्र जैसी चीज़ को
देखता हूँ वृक्ष बनता चहुँ और बस विष बीज को
वोट की खातिर जहाँ अपमान मेघा का हुआ
ना किसी नेता की वाणी ने मेरे मन को छुआ
भीड़ को ही साथ रखना बस जहाँ एक धर्म हो
शास्त्र सम्मत उच्च कोटि कैसे वहां फिर कर्म हो
कौवों की सभा में तुम्हीं कहो कोयल कहाँ से गाएगी
घृणा भरे समाज में क्या कभी राष्ट्र भक्ति आएगी।
शिशिर मधुकर