श्रावण मास 'तो हर बरस आता है और श्रावण के त्यौहार भी ,जैसे -हरियाली तीज , श्रावण के सोमवार,पूरे माह व्रत और कुछ लोग कांवड़ भी लाते हैं फिर महाशिवरात्रि और रक्षाबंधन।बारिश की रिमझिम फुहार से सारी प्रकृति धुली हरी -भरी नज़र आती है। इस माह ,घर की बहु -बेटियों के त्यौहार भी होते हैं। इस माह बेटियों का इंतजार बढ़ जाता है कि भाई आएगा सिंधारा लाएगा। भाई राखी बंधवाने आएगा या फिर उसे अपने घर जाने की उमंग रहती है। साड़ी ,चुनरी ,मेहँदी, पायल की खनक रहती है। प्रकृति' धानी चुनर' ओढ़े रिमझिम फुहार में ,झूले पर झूलती सखियाँ गा उठती हैं -- झूला तो पड़ गया ,अमुआ की डार पे जी ,
ए जी कोई राधा जी,, को झूला झुलावै जी ,
इंद्रराजा झुकी आये ,बाग़ मैं जी।
झूला तो पड़ गया ,अम्मा मेरी बाग़ में जी।
अथवा
अबके बरस भेजो ,भइया को बाबुल सावन में लीजो बुलाये रे।
या फिर
रंग बिरंगी राखी लेके आयी बहना ,राखी बँधवाले मेरे वीर ,बँधवाले रे चंदा।
जैसे गानों से वातावरण मोहक और आत्मविभोर कर देने वाला हो जाता है ,
मेरी कहानी की नायिका दीप्ती भी ,जब मैके में थी तो सावन लगते ही ,मोटी रस्सी का झूला ,अपने घर की दुबारी [घर में प्रवेश करते ही जो कमरा आता है ,उसे ही दुबारी कहते हैं ]में लकड़ी के बेलन में डलवा लेती थी और अपनी सखियों संग ,सावन के गीतों पर झूला झूलती और नए -नए गीत सीखती। अबकि बार तो उसकी नई भाभी भी आयी हुई है ,उनसे सावन के नये -नये गीत सीखती है। ये उसकी अपने सासरे जाने की तैयारी चल रही है। ताकि वहां सबको अपने काम और गीतों द्वारा प्रभावित कर सके। माँ घर पर ही'' मनिहार'' को बिठा लेती है ,घर की सभी बहु -बेटियां ,अपनी -अपनी पसंद की रंग -बिरंगी चूड़ियाँ पहनती हैं। इसी तरह 'पों चीवाला 'भी आता और सभी अपने -अपने भाइयों के लिए ,नई -नई और रंग -बिरंगी पोंची खरीदतीं किन्तु दीप्ती की तो पसंद ही अलग थी ,वो अपने भाई के लिए ,सबसे बड़ी पोंची लेती। कारण पूछने पर कहती -मेरे भाई के हाथ में मेरी बड़ी सी पोंची दिखनी चाहिये। पड़ोस की ताईजी कहतीं -तू पगली है क्या ?तेरा भाई शहर में रहता है ,बड़ा हो गया है ,इतनी बड़ी पोंची बांधेगा तो उसके दोस्त भी उस पर हँसेंगे ,उसकी हंसी उड़ायेंगे -क्या गंवारों वाली पोंची है ?दीप्ती का मन नहीं मानता और कहती है -मैं कुछ नहीं जानती ,वो तो ये ही पहनेगा। मेरा भाई है ,जैसी मेरी इच्छा होगी ,वैसी ही लूँगी। भाई रक्षाबंधन पर घर आया ,दीप्ती ने भाई की आरती के लिए थाली सजाई -उसमें कुमकुम -चावल मिठाई के साथ अपनी बड़ी सी पोंची सजाई। भाई ये देखकर थोड़ा परेशान हुआ ,बोला -अब मैं क्या बच्चा हूँ ?इतनी बड़ी राखी। हाँ भाई ,तुम्हारे हाथ में मेरी पोंची ही दिखनी चाहिए। तभी उसे याद आया -क्या नाम बताया ,तुमने इसका ?भाई बोला -तभी तो कहता हूँ थोड़ा पढ़ भी लिया कर ,शहर में इसे सब राखी कहते हैं ,पोंची कोई नहीं बोलता। उसे तो न जाने कितनी अनमोल धरोहर हाथ लगी -सोच रही थी ,इन गँवार लड़कियों को बतलाऊँगी कि इसे राखी कहते हैं किन्तु पहले भाई को राखी तो बांध लूँ।
उसने भाई को राखी बाँधी ,भाई ने उसे सौ रूपये दिए ,उस समय जितने लड़कियों को मिलते थे सबसे ज्यादा मिले किन्तु दीप्ती फिर भी मुँह बनाकर बैठ गयी। बोली -मेरा भाई ,जो शहर में नौकरी करता है ,बस' सौ रूपये 'भाई बोला -अगली बार और ज्यादा दूंगा ,अभी नई नौकरी लगी है। माँ ने भी समझाया -अगली बार और ज्यादा पैसे देगा ,उसकी नाराज़गी अधिक देर तक न रह सकी , तभी दीप्ती की नज़र भाई के पीछे रखे बंडल पर गयी। दीप्ती ने झट से उस बंडल को उठा लिया और फुर्ती से खोल भी दिया उसमें दीप्ती के लिए सलवार -सूट थे जिन्हें देखकर वो झूम उठी और बोली -मुझे पता था ,मेरा भाई मेरे लिए जरूर कुछ लाएगा उन्हें लेकर अपनी सहेलियों को दिखाने घर से बाहर दौड़ गयी ।उसे इस तरह भागते हुए देखकर माँ बोली - इतनी बड़ी हो गयी है ,इसका बचपना अभी तक नहीं गया। सुरेश बोला -माँ ,मैंने कहा था ,कि इसे अभी आगे पढ़ाओ ,आपने इसकी पढ़ाई छुड़वाकर इसे घर में बिठा दिया। क्या करूँ ?बेटा ,गांव का आठवीं तक का विद्यालय है ,आठवीं तक जैसे -तैसे पढ़ी है। पढ़ाई में तो इसका मन ही नहीं है ,तेरे पिताजी से भी कहा तो कहने लगे -आगे पढ़कर भी क्या करना है ?रोटी ही बनानी हैं और ज्यादा पढ़ -लिख गयी तो लड़का ढूढ़ने में दिक्क़त आती है। तेरे पिताजी ने तो एक लड़का देखा भी है। बड़े अमीर और खानदानी लोग हैं ,इकलौता लड़का है , उनके तीन बेटियां थीं , तीनों का विवाह कर दिया। वे लोग भी शहरों में बड़े -बड़े कारोबारी हैं। हमारी दीप्ती भी उन्हें पसंद है ,पैसा तो उन पर ,बस यूँ समझो लक्ष्मी की कृपा है। सुरेश बोला -लड़का क्या करता है ?अभी तो वो बीस बरस का है ,हमारी दीप्ती अब अट्ठारह की हुयी है। अभी तो उसके बड़े -बूढ़े ही सब संभाल रहे हैं फिर भी उसे करने की जरूरत ही क्या पड़ी है ?ज़मीन -जायदाद ही इतनी है वो ही सम्भल जाये ,वो ही बहुत है। उनके ट्रैक्टर से खेती होती है ,सम्पूर्ण गांव में उनका ही घर ऐसा है ,जिनके ट्रैक्टर है। किसी से भी पूछ लो ,उनके घर का पता ,बस कहने भर की देर है -ट्रैक्टर वालों के यहाँ जाना है। वहीं छोड़कर आएगा ,माँ ने उन लोगों का ऐसा बखान किया। सुरेश बोला -जैसी तुम लोगों की इच्छा ,मुझे बता देना ,क्या करना है ?फिर उसकी भाभी तो यहाँ है ही। वो शहरों के तौर तरीक़े जानती है ,वो भी समझा देगी।
बरस के अंदर -अंदर दीप्ती का विवाह हो गया। उस पर तो अपनी ससुराल का ऐसा रंग चढ़ा ,एक से एक महंगी साड़ी , कीमती आभूषण ,वो तो किसी सेठानी से कम नहीं लगती थी। ब्याज़ पर पैसे चढ़ाने लगी ,हिसाब तो जैसे उसकी अंगुलियों पर रहता था ,उसके कहने भर की देर होती और वो वस्तु उसके सामने आ जाती। माँ और पिताजी तो प्रसन्न थे। माँ -बाप को और क्या चाहिए ?उनकी औलाद सुख से रहे। कहते हैं न ,- पैसा जब आता है तो बुराई भी लाता है, ससुराल का रंग तो उस पर चढ़ा किन्तु पैसे का अहंकार भी उसमें शामिल हो गया। अब तो तीज -त्यौहार पर लेना -देना भी वो पैसे के तराज़ू में तौलने लगी। हर बात पर कहती -अच्छे से अच्छा देना ,मेरी ससुराल में मेरी ''नाक मत कटवा देना ''.माता -पिता जब तक जिन्दा रहे उसकी हर इच्छा पूरी हो जाती। सुरेश की तो बंधा वेतन ,नौकरी की कमाई से इतने खर्चे कहाँ हो पाते हैं ? हर चीज़ मोल की, ऊपर से महंगाई ,अपने खर्चे ही पूरे नहीं पड़ते। श्रावण पर प्रेम रस में डूबी फुहारें ,रिमझिम बरसता पानी ,श्रावण के गीत आज भी मन को मोह लेते किन्तु उनमें वो हास् -परिहास ,मान -मनौवल नहीं रहा। उसकी जगह पैसे और अहम ने ले ली। दीप्ती की जबान में वो अपनापन ,प्यार न दीखता वरन शब्दों में व्यंग्य और उपहास नज़र आता। सुरेश यानि मेरे दादाजी तंगी से तंग आकर नौकरी छोड़कर व्यापार करने लगे। व्यापार में अपनी जमा -पूंजी सब लगा दी। व्यापार भी नहीं हो पाया वरन अपना मकान बेचकर किराये के घर में रहने की नौबत आ गयी।
इस बार सुरेश परेशान थे ,बहन का सिंधारा जाना है और राखी पर आएगी तो क्या देंगे ?किसी से उधार लेकर सिंधारे का इंतजाम किया। राखी पर भी घर में से एक -एक पैसा जोड़कर उसे दिए। किन्तु दीप्ती को इसमें अपनी बेइज्जती लगी ,बोली -इससे ज्यादा पैसे तो मेरे घर के नौकर ,अपनी बहनों को दे देते हैं। अपनी भाभी से बोली -सब नीचे से ऊपर को बढ़ते हैं किन्तु भाई तो ऊपर से नीचे को जा रहा है। दुनिया उन्नति कर - करके कहाँ से कहाँ पहुंच गयी ?और ये नीचे जा रहा है। भाभी ने महसूस किया कि इनका अहंकार इतना बढ़ गया कि अपने बड़े भाई के लिए कतई भी सम्मान नहीं रहा। अगले बरस राखी पर वो नहीं आयी किन्तु भाई का दिल नहीं माना ,सोचा -कम ही सही ,कम से कम मेरी बहन की थाली सूनी तो न रहेगी और भाई अपनी बहन से मिलने चल दिए ,रास्ते में एक दर्जन केले लिए और ख़ुशी -ख़ुशी अपनी बहन के घर पहुंच गए। भाई के आने पर दीप्ती को कोई प्रसन्नता नहीं हुई ,बोली -इनकी क्या आवश्यकता थी ?बच्चे तो केले नहीं खाते कहकर भाई के सामने ही वे केले अपनी नौकरानी को दे दिए। सुरेश उसके इस व्यवहार से आहत हो वापस आ गए। अब उन्हें लगने लगा रिश्ते निबाह नहीं पायेंगे ,हम अपनी परेशानियों से स्वयं ही जूझते रहेंगे। बहन ने भी कभी नहीं पूछा -भाई केेसा है ?कहाँ है ?
हर राखी में रेडियों पर गाना बजता ,सुरेश अपने दिनों को याद कर अपने आँसू छिपा जाते सोचते -क्या रिश्ते इतने कमजोर होते हैं जो पैसों के बोझ तले दबकर अपना दम तोड़ देते हैं ?क्या ऐसे ही रिश्ते हैं ?पैसों के बिना रिश्तों का भी कोई महत्व नहीं। उन्हें अपनी बहन के व्यवहार के कारण सभी रिश्ते खुदगर्ज़ ,मतलबी नज़र आने लगे। आज उनके पास दोमंजिला मकान है ,दो -दो गाड़ियां हैं किन्तु हर बरस बहन की यादें दुःख और परेशानियाँ दे जातीं। आज भी रेडियों पर गाना चल रहा है -
'' बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है ,प्यार के दो तार से संसार बांधा है। ''
राखी तो उनकी कलाई पर बंध जाती है किन्तु उस बड़ी सी राखी की जगह ,आज भी खाली है ,बाहर से सबको प्रसन्न नज़र आते हैं किन्तु दिल की किसी गहराई में कटु स्मृतियाँ ,दिल पर एक बोझ सा छोड़ जातीं। एक दिन दीपू बोला -दादी ,बुआ दादी कहाँ रहती हैं ?दादी बोली -अब क्या लाभ ?कहीं भी रहती हो। दीपू ने जिद की -आप बताइये तो सही। दादी से पूछकर ,वो बिन बताये ,बुआ दादी के गांव पहुँच गया। उसे कोई जानता भी नहीं था उसने भी ,वो गांव पहली बार देखा है। पता पूछते हुए ,दीपू उनके घर पहुंच गया। बुआ दादी तो अब बूढी हो चली थीं ,उनके तो पोते -पोती भी थे। बुआ दादी ने मुझे पहचानने का प्रयत्न किया किन्तु पहचानती कैसे ?इससे पहले कभी देखा ही नहीं किन्तु परिचय कराते ही मेरे सिर पर हाथ फेरा और घर की बातें पूछने लगीं। बुआ दादी को अपने किये व्यवहार पर पछतावा था। समय ,उम्र और रिश्तों ने उन्हें भी एहसास करा दिया था कि ये सब बाहरी दिखावा 'क्षणभंगुर ''है।'' पैसा और जवानी कब, कहाँ ,किसी की सुनते हैं ?और जब ये चले जाते हैं तब ज़िंदगी के अनुभव छोड़ जाते हैं और की गयी गलतियों का एहसास।'' अब तो अपनी कोठरी में पड़ी रहतीं। मुझसे मिलते ही अपने भाई की एक झलक देखने के लिए तड़प उठीं। ख़ुशी और दुःख दोनों ही साथ -साथ आँखों के द्वारा बह निकले ,बोलीं -क्या तुझे भाई ने भेजा है ?मैं जानती थी उसे मेरी चिंता अवश्य होगी। मैं उसके साथ कैसा भी व्यवहार कर लूँ ? किन्तु वो आज भी मुझे याद करता है।
दीपू उन्हें लेने नहीं गया था किन्तु उनकी बेचैनी देखकर बोला -बाबाजी ने आपको लेने के लिए भेजा है। कह रहे थे ''अबके बरस ''राखी तो उनकी बहन ही बांधेगी। सुनकर बुआ दादी 'भावविभोर 'हो उठीं बोलीं -पूरे पंद्रह बरस बाद उससे मिलूंगी ,मैं कैसे उसे अपना मुँह दिखाउंगी ?इतने बरसों से उसकी कोई खबर नहीं ली ,क्या वो अपनी छोटी बहन को क्षमा करेगा ?मैंने उसके नाम की हर बरस एक राखी ली है। मैंने सोचा था , मेरे गुस्से के कारण ही या मेरी कड़वी बातों से ही वो उन्नति कर ले किन्तु उसका मुझे दंड भी मिला उससे दूर हो गयी। प्रत्येक बरस की राखी उसे बांध दूंगी इतने बरसों का मलाल दूर कर लूँगी सोचकर वो दीपू के साथ चल दीं। आज राखी पर घर में' सलूने ' रखे गए। नमकीन -मीठे जवे बने हैं। मिठाई और राखी से थाली सजी है ,तभी दीपू की गाड़ी आकर घर के दरवाज़े पर रुकी। उसकी बहन दौड़ती हुयी आई बोली -भाई आप कहाँ चले गए थे ?मैं इतनी देरी से इंतजार कर थी। दीपू बोला -आज मैं बरसों का इंतजार समाप्त करने गया था ,कहते हुए उसने बुआ दादी को सहारा देकर गाड़ी से बाहर उतारा। दीप्ती के मन में अजीब सी घबराहट ,बेचैनी सी हो रही थी। उन्हें अपने व्यवहार पर पछतावा था। दादाजी आराम कुर्सी पर बैठकर बच्चों को देख रहे थे। बुआ दादी उनके पास जा खड़ी हुईं ,दादाजी ने एक नज़र उन्हें देखा ,जैसे उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो उन्होंने पुनः अपनी नज़रें उठाईं। दादी ने आव देखा न ताव और अपने भाई के गले लिपटकर रोने लगीं। बरसों का दबा ज्वालामुखी था जो अश्रु के रूप में लावा बन बह रहा था। थाली लाई गयी ,दादी ने अपनी बड़ी -बड़ी राखी निकालकर भाई की कलाई पर बांधनी आरम्भ की। वो राखी बांधती जा रही थीं और रोती भी जा रही थीं। दादाजी के चेहरे पर मुस्कान और मेरे तरफ कृतग्यता से देख रहे थे। ''अबके बरस ''दीपू ने दो भाई -बहनों को जो मिलवा दिया था।
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