साँझा चूल्हा ''जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है। एक ऐसा परिवार ,एक ऐसी छत जिसके नीचे ,एक बड़ा परिवार रहता है ,जिसमें दादी -बाबा ,ताऊ -ताई ,चाचा -चाची ,उनके बच्चे। घर में खूब रौनक रहती है। सास- बहुएं ,रसोई संभाल रही हैं ,बच्चे खेल रहे हैं ,एक बहु घर की सफाई में व्यस्त है तो दूसरी ,सभी बच्चों को नहला रही है ,जो बड़े बच्चे हैं ,उन्हें भी समझा रही है। तब सब मिलकर खाना -खाते हैं। बड़ा परिवार है ,किन्तु सभी -मिलजुलकर ,अपने -अपने उत्तरदायित्व पूर्ण करते हैं। दादाजी के हाथों में ,इन रिश्तों की बागडोर है। उन्होंने सभी को जोड़कर रखा हुआ है ,ये भी कह सकते हैं -सभी'' कुलवंत सिंह जी ''का विरोध तो कर नहीं सकते ,जबरदस्ती रिश्तों में बंधे हुए हैं, किन्तु कुलवंत सिंह जी के लिए ,,ये सम्मान की बात थी ,कि उनका परिवार एकजुट रहकर कार्य कर रहा है।
किंतु जहां चार बर्तन होते हैं ,आवाज तो होती ही है , अब इतने लोगों के एक जैसे विचार तो हो ही नहीं सकते , इस कारण घर में थोड़ी बहुत ,हल्की फुल्की ,झड़प होना तो लाजमी है। तब भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं ,रिश्तो में बंधे हुए हैं। अपने भरे- पूरे परिवार को देखकर ,''कुलवंत सिंह जी'' हर्षित हो उठते थे। परिवार में किसी को कोई परेशानी हो, तो उसे सुलझाने का प्रयास करते थे। परेशानी भी हर किसी की अलग-अलग होती हैं , किसी की पैसों से परेशानी, किसी की विचारों की परेशानी , किसी के व्यापार की परेशानी, जितना भी हो सकता है ,हर संभव प्रयास करते, उनकी समस्याओं का निदान किया जा सके। कुलवंत सिंह जी अपना जीवन जी चुके और खुशी-खुशी , अपने प्यारे परिवार का सपना ,अपनी आंखों में बसाकर चल बसे। किंतु मरने से पहले उन्होंने ,अपने बड़े बेटे से, यह वायदा लिया कि यह घर टूटने ना पाए।
बड़े बेटे बलवंत ने भी भावुक होकर उस समय ,अपने पिता से वायदा किया-''जहां तक प्रयास होगा आप के पद चिन्हों पर चलने का प्रयास करूंगा।'' रस्म पगड़ी ''में भी ,बड़े बेटे ''बलवंत सिंह'' को यह सम्मान दिया गया। कुलवंत सिंह जी के न रहने पर ,सभी बच्चे अपनी मनमानी करने लगे। उन्हें तो ऐसे लग रहा था ,जैसे बंधनों के पिंजरे से छूट गए हैं। बलवंत को पैतृक संपत्ति के नाम पर जिम्मेदारियां तो बहुत मिलीं ,किंतु संपदा हाथ नहीं लगी। बलवंत सिंह से सोच रहे थे -पिताजी न जाने कैसे ,सभी जिम्मेदारियों को संभाल रहे थे ? भाइयों ने अपनी -अपनी आमदनी अपने तक सीमित कर ली थी। थोड़ी बहुत आमदनी खेती से हो जाती थी। किंतु उससे पहले, पैसा लगाना भी पड़ता था और जब पत्नी से पैसा मांगते तो पत्नी भी चार खर्चे बताती,और कहती -क्या तुम्हारी ही जिम्मेदारी बनती है , इस घर को संभालने की , क्या अन्य लोगों का उत्तरदायित्व नहीं बनता है ,कि इस घर को चलाने में तुम्हारा सहयोग करें।
बलवंत सिंह, के पास कोई जवाब नहीं होता , किंतु प्रयास यही रहता ,किसी को किसी से शिकायत ना रहे। अबकि बार तो बिजली का बिल भी बहुत बड़ा आया है , अन्य खर्चे भी बढ़ गए हैं। अब बलवंत सिंह जी ने सोचा - परिवार वालों को समझाकर ही चलना पड़ेगा वरना ऐसे कार्य नहीं चलेगा। यह बात उन्होंने अपने भाइयों से भी कही ,दिन में लाइटें जलती रहती हैं ,कमरे में कोई नहीं रहता ,''वातानुकूलित यंत्र ''चलते रहते हैं। पानी बहता रहता है , कपड़ों पर स्त्री करते ही हैं ,उसे चलता यूँ ही छोड़ देते हैं। जिन कपड़ों पर आवश्यक न हो ,उन पर स्त्री न करें। ये छोटी -छोटी चीजें हैं ,जिन्हें हम संभालकर ,उपयोग में ला सकते हैं। मेरे अपने भी उत्तरदायित्व हैं ,मैं अकेला ही कब तक इन्हें संभालूंगा ? थोड़ा -थोड़ा योगदान तुम्हें भी देना चाहिए।
यह बात सुनते ही, छोटी वाली के तो कान खड़े हो गए हो गए और बोली -जब सभी साझे हैं ,तो हम अलग-अलग पैसा क्यों दें ? पिताजी के रहने पर तो ऐसा कभी नहीं हुआ , उसका कथन था।
हां ,मैं जानता हूं किंतु उनकी पेंशन आती थी ,उसमें वह कुछ खर्चों को निबाह लेते थे ,किंतु मेरी जो भी आमदनी है वह तुम सभी के सामने है , मेरे बच्चे भी हैं , मुझे उनके उत्तरदायित्व भी पूर्ण करने हैं। उन्हें किस पर छोड़ सकता हूँ ? इसलिए सभी सहयोग करें।
इसी बात को लेकर, छोटी ने बखेड़ा कर दिया और बोली -जब सभी को अपना -अपना खर्चा करना है ,तो हम अपना चूल्हा ही ,अलग कर लेते हैं , इन्हें तो हमारा पेट ही बड़ा नजर आता है , ये लोग तो ,जैसे कुछ खाते ही नहीं ,ये लोग तो हवा पर जीते हैं , दूसरीवाली ,उसके कंधे पर बंदूक रखकर चला रही थी। परिवार में एक सदस्य ऐसा भी होता है ,जो कहता कुछ नहीं है ,किन्तु उसकी बंदूक दूसरे के कंधे पर रखी रहती है ,बंदूक चलाता भी है और सामने नहीं आता यानि अपना बचाव करके चलता है। बलवंत सिंह जी ने , पिता को दिए वादे को ,निभाने का पूरा प्रयास किया , किंतु कोई भी ,उस वादे को निभाने में उनकी सहायता नहीं कर रहा था सब अलग-अलग दिशा में भाग रहे थे , कब तक चारों दिशाओं में भागते ? आखिर एक दिन,घर की शांति के लिए , पिता के वायदे को तोड़ ही दिया ।
आज किसी कारण से ,छोटे के घर गए ,घर में अँधेरा हो रहा था ,सभी गर्मी में बैठे थे। एक ही छत के नीचे सभी बैठे थे , उनका बेटा जैसे ही कमरे में गया ,बल्ब जलाकर छोड़ आया। तभी उसकी माँ ने डांटा ,तुझसे कितनी बार कहा है ?दिन में लाइट मत जलाया कर ,जलाई भी तो ,साथ की साथ बंद भी कर दिया कर किन्तु सुनता ही नहीं है।
बलवंत सिंह ने अपने भाई से पूछा क्या तुमने ''वातानुकूलित यंत्र'' नहीं लगाया , गर्मी बहुत है ,बच्चे परेशान हो जाते होंगे।
बहुत बिल आ जाता है ,उसमें रहकर करना भी क्या है ? उसे लगाने से बीमारियां बढ़ रही हैं ,उसने सुझाव भी दे दिया।
तभी दूसरे का परिवार भी आ गया था ,बलवंत सिंह जी देख रहे थे ,अब सभी कैसे होशियार ,स्याने हो गए हैं ,यदि ये लोग ,ऐसे ही उस घर में रहते ,तो क्या वो घर टूटता ?जो बातें मैंने कहीं ,तब बुरी लगने लगीं ,और अब सीमित साधनों में भी, कैसे संभलकर चल रहे हैं ?उनका मन विषाद से भर उठा ,''सांझे चूल्हे ''आजकल इसीलिए नहीं रहे ,साझे में कोई अपना उत्तरदायित्व नहीं समझता ,और अलग -अलग हो जाते हैं ,तब कैसे बचत करके आगे बढ़ते हैं ?काश !यही सहयोग करके ये लोग ,उस समय चलते ,तो मेरे पिता का वो घर भी न टूटता।