धीरेंद्र और वीरेंद्र दो अच्छे मित्र थे। एक ही गांव में रहते थे। साथ-साथ पढ़ते और खेलते थे। उन दोनों में काफी गहरी दोस्ती थी। एक दूसरे पर जान छिड़कते थे ,दोनों ने विवाह भी लगभग एक साथ ही किया दोनों की पत्नियाँ बड़ी सुंदर और सुशील थीं।
धीरेंद्र नौकरी करना चाहता था किंतु वीरेंद्र ने उससे कहा- कि क्यों ना हम दोनों मिलकर एक व्यापार कर लेते हैं ,किसी की नौकरी करने के से अच्छा है, हम अपना कोई कार्य करते हैं यह बात धीरेंद्र को भी पसंद आई और दोनों ने व्यापार आरंभ कर दिया। दोनों मेहनत से कार्य करते थे ,उनके परिश्रम फल भी आया उनका व्यापार'' दिन दुगना, रात चौगुना'' बढ़ने लगा। प्रसन्नता की बात यह रही दोनों ही, अब तक एक-एक बच्चे के बाप भी बन चुके थे।
कितने वर्षों का साथ था ?एक -दूसरे पर विश्वास ,बहुत ही प्रगाढ़ था किंतु समाज में कुछ लोगों को, उनकी दोस्ती रास नहीं आ रही थी। कुछ लोग, उनकी दोस्ती से ईर्ष्या भी करते थे। किंतु इस बात से उन दोनों पर कोई फर्क नहीं पड़ता था, किंतु कहते हैं ,न-'' कि जब, बुरे दिन आते हैं , तो मति भ्रष्ट हो ही जाती है।'' कुछ लोग धीरेंद्र की अपेक्षा, वीरेंद्र के कार्य की अधिक प्रशंसा करते हालांकि धीरेंद्र पूरे तन -मन से, उस व्यापार में अपना समय और धन दोनों ही लगा रहा था , किंतु कुछ लोगों ने वीरेंद्र के मन में यह बात डाल दी कि यदि वह धीरेंद्र से व्यापार के लिए नहीं कहता, तो यह व्यापार धीरेंद्र नहीं कर पाता इसकी शुरुआत वीरेंद्र ने ही अच्छे से की है। इन बातों को सुनते-सुनते वीरेंद्र के मन में अहंकार आ गया।
उसे लगता कि उसने ही इस व्यापार को आगे बढ़ाया है, यदि वह अपनी योजना न बनाता तो शायद आज धीरेंद्र, किसी कंपनी में ,छोटी सी नौकरी कर रहा होता। धीरेंद्र को इन बातों से कुछ भी, लेना-देना नहीं था वह तो अपनी दोस्ती के नाम पर, सब कुछ करने को तैयार था।
एक दिन न जाने अचानक वीरेंद्र को क्या हुआ ?और वीरेंद्र ,धीरेन्द्र से बोला - अब हम अपना यह व्यापार अलग कर लेते हैं।
धीरेंद्र को आश्चर्य हुआ और बोला- इतनी परिश्रम से हमने यह व्यापार खड़ा किया है ,अब इसको बाँटकर हमें इसकी साख कमजोर नहीं करनी चाहिए, किंतु वीरेंद्र बोला -आगे हमारा परिवार है, हमारे बच्चे हैं ,वह भी इस व्यापार में सहयोग करेंगे इसीलिए आप हमें अपना-अपना व्यापार अलग-अलग कर लेना चाहिए धीरेंद्र की व्यापार को अलग करने की इच्छा तो नहीं थी किंतु जब वीरेंद्र नहीं माना तो धीरेंद्र ने भी हामी भर दी और बोला -तुम मेरा हिस्सा मुझे दे दो ! मैं अपने तरीके से यह कार्य करूंगा।
उसकी इस बात को सुनते ही, वीरेंद्र एकदम भड़क गया और बोला -तुम अपने को क्या समझते हो ? यह व्यापार मैंने खड़ा किया है , तुमने पैसा ही कितना लगाया है ? वह तो मेरी भलमनशाही मानो !कि मैं तुम्हें इस व्यापार में तुम्हारा सहयोग और दोस्ती के नाते, हिस्सा देता रहा।
वीरेंद्र के ऐसे शब्द सुनकर धीरेंद्र के ''पैरों के तले की जमीन खिसक गई।'' बोला -मित्र ! मुझे तुमसे इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।
मैं तुम्हारे संग कौन सा गलत व्यवहार कर रहा हूं ,जो सही है ,वही तो बतला रहा हूं।
मैंने इस व्यापार को खड़ा करने में, रात -दिन एक किया है और मैं इस तरह, इस व्यापार से अलग नहीं हो सकता। यदि अलग करना ही है, तो तुम्हें मेरा हिस्सा देना ही होगा। किंतु वीरेंद्र पर तो जैसे पैसों का घमंड सिर चढ़कर बोल रहा था। उसने धीरेंद्र की मेहनत को नकार दिया उसे उसका हिस्सा नहीं दिया क्योंकि वीरेंद्र के मन में, पहले से ही लालच आ गया था और उसने पहले ही सभी कागजों पर धीरेंद्र से हस्ताक्षर ले लिए थे।
धीरेंद्र ने कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया, कि वीरेंद्र उसके विरुद्ध कुछ योजना बना रहा है। किंतु जब सभी कागज वीरेंद्र ने धीरेंद्र को दिखाएं। वह बुरी तरह घबरा गया, सिर्फ इतना ही कह पाया - मित्र ! यह तुमने अच्छा नहीं किया , कहते हुए ,उसको मित्र के धोखे के कारण हृदयाघात हुआ और परलोक सिधार गया।
धीरेंद्र के मरने के पश्चात ,वीरेंद्र अब स्वतंत्र रूप से व्यापार कर रहा था किंतु कुछ लोगों के कहने पर, उसने धीरेंद्र के बेटे को अपनी कम्पनी में नौकरी दे दी। लोगों को दिखाने के लिए कि देखिए ,मित्र के न रहने पर उसके परिवार की किस तरह से देखभाल कर रहा है ? धीरेंद्र और वीरेंद्र की दोस्ती, अब खत्म हो चुकी थी। धीरेंद्र के बच्चे इतने तेज भी नहीं थे कि वह अपने पिता की मौत का बदला लेते और उनके पिता ने भी उन्हें यह बात नहीं बतलाई कि वीरेंद्र के मन में उसके प्रति कैसे भाव हैं ?बच्चों को भी यही मालूम था कि हमारे पिता की और वीरेंद्र अंकल की आपस में, घनिष्ठ मित्रता थी।
धीरेंद्र के परिवार पर एहसान भी हो गया और उसके लड़के को काम भी दे दिया। कुछ दिनों के पश्चात वीरेंद्र के लड़के की शादी हुई , विवाह में वीरेंद्र ने बहुत अधिक खर्च किया और एक सुंदर -सुशील बहू अपने बेटे के लिए लेकर आया। सभी प्रसन्न थे, व्यापार भी'' दिन दुगनी, रात चौगुनी'' उन्नति कर रहा था। वहीं दूसरी तरफ धीरेंद्र का परिवार एक मध्यमवर्गीय परिवार की तरह, अपना जीवन यापन कर रहा था। धीरेंद्र के बेटे की भी शादी हो चुकी थी। उसकी पत्नी सुंदर ,सुशील होने के साथ-साथ पढ़ी-लिखी भी थी अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली महिला थी। अपने पति के सहयोग के लिए , उसकी पत्नी ने भी नौकरी कर ली।
कुछ महीनों पश्चात वीरेंद्र के घर में एक पोते का आगमन हुआ, घर में खुशियां मनाई गईं। सारे गांव को न्योता दिया गया, मिठाइयां बांटी गईं। सब ने बच्चों को आशीर्वाद भी दिया ,जब बच्चा एक वर्ष का हुआ तो न जाने क्यों अचानक से बीमार पड़ गया ? कुछ समझ नहीं आ रहा था ,क्या बीमारी लगी है ? अनेक चिकित्सकों को वैद्यों -हक़ीम को, मुल्ला- मौलवियों को भी दिखाया गया। बच्चे के गले में, हाथ में ,अनेक ताबीज बंधे हुए थे। जहां भी ,जब भी कोई बताता ,बच्चे को लेकर वीरेंद्र और उसका परिवार वही पहुंच जाते। किंतु कोई नहीं समझ पा रहा था कि अचानक इस बच्चे को क्या हुआ है? और कोई भी दवाई से क्यों नहीं लग रही है ?बच्चों के इलाज में, वीरेंद्र का बहुत अधिक पैसा व्यय हो गया। कुछ दिनों तक ठीक होता और फिर से बीमार पड़ जाता, उसके घर की सभी जमा पूंजी भी इस बच्चे को जिंदा रखने की आस में समाप्त होती नजर आई। बच्चा लगभग बारह वर्ष का हो चुका था। व्यापार भी धीरे-धीरे धीमा हो गया क्योंकि सभी परिवार वालों का तो उस बच्चे पर ही ध्यान था। किसी का भी मन व्यापार में नहीं लग रहा था। एक बार तो ऐसे हालात हो गये कि उस कंपनी की भी, नीलामी की नौबत आ गयी।
बच्चे का तेहरवाँ जन्मदिन था, किसी के मन में भी कोई प्रसन्नता नहीं थी, घर की जमा -पूंजी भी समाप्त हो चुकी थी, व्यापार भी अब बंद होने की कगार पर था। वीरेंद्र हताश -निराश अपने आलीशान कमरे में बैठा हुआ था,तभी वह बच्चा , अचानक से जोर -जोर से हंसने लगा। वीरेंद्र का ध्यान उस बच्चे पर गया और बोला -संजू तुम इस तरह क्यों हंस रहे हो ?वीरेंद्र ने सोचा शायद यह बीमार रहता है ,इसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है ,उस समय घर पर भी कोई नहीं था।
तब वह बच्चा हंसते हुए बोला-मैं संजू नहीं, मैं तेरा दोस्त धीरेंद्र हूं , तूने तो मुझे भूला ही दिया, मैंने तुझ पर कितना विश्वास किया ? बिना पढ़े ही, सब कागजों पर साइन कर दिए, जी -जान से इस व्यापार को उठाने में मैं रात- दिन लगा रहा और उसके बदले तूने मुझे धोखा दिया, मेरा हिस्सा भी हड़प कर गया और अब मेरे ही परिवार को नौकरी पर रखकर तू उन पर एहसान दिखा रहा है जो आज इस कंपनी के मालिक होते। खैर! तेरी गलती नहीं, तेरा लालच इतना बढ़ गया था।अब तेरी संपूर्ण जमा-पूंजी तो समाप्त हो चुकी है, जो कि वह मेरा हिस्सा था। मैं चाहता तो तेरा यह व्यापार भी, बंद करवा सकता था किंतु मैं जानता हूं कि मेरे बच्चे आज इस कंपनी में कार्य करके अपना साधारण सा जीवन यापन कर रहे हैं। मेरे बच्चे मेरी ही तरह हैं ,मेहनती ! मुझे उन पर गर्व है , तेरे ही कारण अब मुझे अपने पोता, बेटे और बहू का चेहरा देखने को मिला।
आश्चर्यचकित हो वीरेंद्र ! उसे बच्चों की बातें, विस्फारित नेत्रों से सुन रहा था। उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि क्या कोई अपना हिस्सा लेने के लिए 'अगला जन्म' भी ले सकता है। इन बातों को तो कई वर्ष बीत चुके, क्या सच में ही यह धीरेंद्र का 'पुनर्जन्म' है ? यह अपने'' पिछले जन्म ''की सभी बातें कैसे जानता है ? क्या सच में यही धीरेंद्र है ? आश्चर्य से उसे देख रहा था।
तभी संजू बना धीरेंद्र बोला- तू क्या समझता है ? मैं बीमार हूं ,अब तक तो मैंने अपना हिस्सा ले लिया,या मेरी बीमारी में तूने बहा दिया। अब तेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। कम से कम तू इतना संतोष तो करता, क्योंकि मेरे पास तो कुछ वर्ष ही बचे थे। तुझ में इतना भी धैर्य नहीं रहा। आज मेरे वो तेरह वर्ष पूरे हो चुके हैं, जो तूने समय से पहले ही मुझसे छीन लिए थे। तुझे मेरे मरने पर दुख नहीं हुआ था। किंतु आज तुझे दुख भी होगा, जब तेरा पोता जाएगा, और तेरी संपत्ति भी समाप्त हो गई। जब मैं मरा था तो मेरे मन में, तेरे प्रति घृणा थी, बदले की भावना थी। अब मैंने अपना बदला ले लिया, अब तू भी मेरे परिवार जैसा ही हो गया। मेरा हिस्सा मैंने तुझसे ले लिया, कहकर उस बच्चे ने एक हिचकी ली और उसकी गर्दन पीछे को लुढ़क गयी ।
वीरेंद्र अचानक से चीखा- धीरेंद्र ! मुझे माफ कर दे !यार..... मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई, मैं लालच में आ गया था किंतु उस समय उसकी कोई सुनने वाला नहीं था। जब घरवाले बाहर से घर में आए तो देखा उस घर का चिराग बुझ चुका था। जिसे वीरेंद्र बार-बार धीरेंद्र कहकर क्षमा याचना कर रहा था। बेटे के पोते के अंतिम संस्कार के पश्चात वीरेंद्र ने को जैसे बुद्धि आ गई और उसने उस व्यापार में जो घाटे में चल रहा था धीरेंद्र के बेटे को भी, सहभागी बना दिया और दोनों से कहा -कभी भी लालच में मत आना, जिसका जो हिस्सा होता है ,वह चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में आकर ले ही जाता है इसीलिए ईमानदारी से कार्य करना, कहकर वह ज्ञान की तलाश में बाहर निकल गया। लोग यही समझते रहे ,कि पोते के ग़म में बूढ़े का दिमाग ख़राब हो गया है।