रेवती आज पराग के लिए पराठे लाई, दोनों ने खुश होकर, एक साथ बैठकर खाए। जब से पराग ,इस दफ्तर में आया है, तब से रेवती से, उसकी कुछ ज्यादा ही दोस्ती हो गई है। रेवती भी, उसके आने से खुश है। दोनों ही समझदार हैं , एक दूसरे को समझने भी लगे हैं। पराग ने भी रेवती को अपने विषय में बता दिया था कि उसका विवाह हुआ था किंतु उसका तलाक हो गया है और रेवती ने भी उसे बता दिया था ,उसका भी विवाह हो चुका है। दोनों ने अपने-अपने विचार स्पष्ट कर दिए थे। अच्छी दोस्ती है दोनों में, किंतु लोगों को ऐसा नहीं लगता ,देखने पर लोगों को लगता है ,कि उनका दोस्ती से कुछ अधिक ही गहरा रिश्ता है। किंतु उन्हें दुनिया की परवाह ही नहीं है। अपनी तरफ से तो वह ठीक है न...... कोई कुछ भी कहता रहे।
कभी-कभी दोस्ती में रेवती रूठ जाती तो पराग उसे मनाता, पराग को कोई परेशानी होती, तो रेवती से बताता, कितनी अच्छी और घनिष्ठ दोस्ती है, दोनों में ! लगता है ,जैसे एक दूसरे के पूरक हैं। बिन कहे ही एक दूसरे की बात समझ जाते हैं। कितना लगाव हो गया है? ऐसा लगता है, जैसे इस दोस्ती के लिए ही हम जी रहे हैं। घर पर आकर रेवती अधिकतर पराग के विषय में,अपने पति से भी बताती रहती , वह कितना अच्छा है ,कितना अच्छा सोचता है ?उसका व्यवहार कितना अच्छा है ? किस तरह महिलाओं का सम्मान करता है। इससे रेवती के पति को जलन भी हुई किंतु रेवती का तो यही कथन था -हम दोनों दोस्त हैं !
आज रेवती उदास हो गई, आज उसके पति से कुछ कहा भी नहीं, उसके पति ने उसकी तरफ देखा और पूछा क्या हुआ? पता नहीं, पर मन कुछ उदास है ?
क्या बॉस ने कुछ कहा।
नहीं, बॉस ने तो कुछ नहीं कहा , पति को मस्ती सूझी , क्या आज पराग नहीं आया ?
आया था, शायद कुछ परेशान था।
तब तुम क्यों इतनी उदास हो ? होगी ,उसकी कोई अपनी परेशानी!
तुम भी कमाल करते हो, दोस्त ,दोस्त के साथ खड़ा नहीं होगा तो और कौन खड़ा होगा ?अच्छा नहीं लगता।
यदि वह तुम्हें दोस्त समझता, तो तुम्हें अपनी बात बता नहीं देता, उसके पति ने उसे समझाना चाहा।
रेवती समझ रही है कि उसका पति सही है, किंतु फिर भी उसे उसके दुख ,उसकी परेशानी से फर्क पड़ रहा है। जब वह मुझे अपना दोस्त समझता है ,तो उसे बताना चाहिए था। मुझे क्यों इतना फर्क पड़ रहा है ?
अगले दिन उसे पराग खुश दिखाई दिया, उसको देखते ही वह भी खिल गई और बोली- तुम मुझे अपना दोस्त नहीं समझते ,समझते होते तो अपनी परेशानी मुझे बताते।
पराग भी चतुर था उसने जवाब दिया -मैं अपनी इतनी अच्छी दोस्त को परेशान नहीं करना चाहता था , वैसे कोई विशेष बात नहीं थी ।
पराग को यदि कोई परेशानी होती, तो रेवती के चेहरे पर झलक आती किंतु यह बात ,वह स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि उसका रिश्ता कुछ दोस्ती से भी ज्यादा है।
एक दिन अचानक, पराग की एक दोस्त आ गई, उसे देखते ही, रेवती का चेहरा मुरझा गया ,वह समझ नहीं पाई कि उसकी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए ? आंखों ही आंखों में ,उसने पराग की तरफ इशारा किया -तुमने बताया नहीं, तुम्हारी कोई दोस्त भी है, उसने धीरे से पूछा।
हां, यह बहुत पहले मेरी दोस्त बनी थी, मुझसे शादी करना चाहती है किंतु अभी मैं यहां पर रहता हूं और यह दूसरे शहर में है।
क्या यह तुम्हें पसंद है ?
हां, अच्छी लड़की है।
यह सुनकर रेवती का चेहरा उतर गया। वह अपने को संभालने का प्रयास कर रही थी, उसे तो लग रहा था जैसे पराग उसी के लिए बना है ,उसी का दोस्त है या दोस्त !से भी कुछ अधिक ,वह समझ ही नहीं पाई उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है ?
रेवती के आँखों में पानी देख ,उसके साथ काम करनेवाली दोस्त ने पूछा -यह भी पराग की दोस्त है ,इस बात से तुम्हें क्यों दुख हो रहा है ?
भला, मुझे क्यों दुख होने लगा ? मैं ही ,इसकी अकेली दोस्त थोड़ी हूं ,इसके और भी दोस्त हो सकते हैं। रेवती के चेहरे पर, पराग को देखकर जो नूर आता था ,खुशी होती थी ,वह न जाने कहां चली गई ? दूसरों को दिखाना चाहती थी -कि मैं खुश हूं, सामान्य हूं किंतु उसका मन कहीं दूर भटक रहा था। अपने को संभालने का प्रयास कर रही थी। वह समझती थी, कि वह शादीशुदा है और पराग उसका दोस्त ही तो है किंतु न जाने ,इस लड़की के आने पर, मुझे क्यों दुख हो रहा है ? वह रो देना चाहती थी।उसे लग रहा था ,जैसे इस लड़की ने ,उसकी कोई चीज छीन ली हो। लोगों के सामने सामान्य बनने का प्रयास तो कर रही थी किंतु उसका दिल रो रहा था। यह उसे क्या हो रहा है ? वह खुद ही नहीं समझ पाई। अपने पति के सामने भी गंभीर रहती किंतु अकेले में जाकर रोने लगती। न जाने ,यह क्या रिश्ता था ?कभी -कभी ज़िंदगी में ऐसे व्यक्ति दस्तक़ दे जाते हैं ,जो चंद लम्हों में ही अपने हो जाते हैं ,न जाने कौन सा रिश्ता उनसे बन जाता है ?जिस रिश्ते को हम कोई नाम भी नहीं दे पाते किन्तु उस रिश्ते बग़ैर कुछ अधूरापन रह जाता है। रेवती का भी ये एक अपूर्ण किस्सा था , उसकी दोस्ती !या उसका प्रेम !...... जिस अधूरेपन को वह स्वयं ही नहीं समझ पा रही थी। न ही उस रिश्ते का कोई नाम था ,अधूरेपन के सिवा !