पारुल पढ़ी -लिखी होने के बावजूद, संस्कारों ,परम्पराओं जैसे बंधनों में बंधी ,एक आस्तिक महिला थी। विवाह के बाद अब तो ससुराल ही उसका अपना घर था। उस आशियाने को उसने बड़े प्यार और जतन से सजाया। उसने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न किया कि वो सास -ससुर के साथ -साथ घर के अन्य सदस्यों का दिल भी जीत ले। कई बार काम करते -करते थक जाती। कई बार ,कोई काम यदि नहीं आता तो उसे सीखने का प्रयत्न करती। सिलाई -कढ़ाई ,बुनाई और पढ़ाई सभी में तो पारंगत थी। पाक कला में भी निपुण थी। ससुराल वालों को और क्या चाहिए ?बहु मेहनती है ,बाहर इधर -उधर नहीं घूमती ,काम में लगी रहती है तो फिर कहाँ कमी रह गयी ?वो समझ नहीं पा रही थी। पारुल जैसी बहु पाकर किसी भी सास को अपनी बहु पर नाज़ होना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नज़र नहीं आता। हमेशा सास के तेवर चढ़े रहते ,काम में कमी न निकाल पातीं तो मायके से आये सामान में या उनके व्यवहार को लेकर मीन -मेख निकालतीं। उसने हर सम्भव प्रयत्न किया कि वो खुश रहें।
एक दिन उसने हिम्मत करके पूछा भी कि- मैं ऐसा क्या करूँ ,कि आप प्रसन्न हों या फिर मेरी कमी बताइये ,आखिर आप चाहती क्या हैं ?सवाल के जबाब के इंतजार में देर तक खड़ी रही ,जबाब तो मिला नहीं, किन्तु यही बात गृह -क्लेश 'का कारण बन गयी ,कि अब ये हमसे सवाल -जबाब करेगी ,क्यों दें हम जबाब ?ये कोई हमारी बड़ी है ?सास को ख़ुश करने के फेर में वो स्वयं भी खुश न रह सकी।कभी सोचती -कि ससुराल वालों को क्या चाहिए ?पत्रिका अथवा समाचार पत्रों में ''वधू चाहिए ''कॉलम में लिखा होता है -सुंदर ,सुशील ,पढ़ी -लिखी ,गृह कार्य में दक्ष वधू चाहिए, फिर भी समझ नहीं आ रहा। वो अपने कॉलिज अपने साथी सदस्यों के समूह की नेता रही ,सब उसे पसंद करते थे लेकिन अपनी ही ससुराल में फेल हो गयी। उसका मनोबल धीरे -धीरे डगमगाने लगा लेकिन फिर भी उसने हिम्मत का साथ नहीं छोड़ा। कुछ वर्षों पश्चात उसके देवर का विवाह निश्चित हुआ। उसने हर कार्यक्रम में बढ़ -चढ़कर हिस्सा लिया लेकिन उसकी सास का व्यवहार उसकी सहेली नंदा से भी छुपा नहीं था। नंदा ने उसे समझाया कि अब जब छोटी वाली आयेगी और उसके साथ ऐसा व्यवहार होगा तब उन्हें तुम्हारी कीमत का पता चलेगा ,हर लड़की इतना नहीं झेल सकती जितना तूने झेला।
देवरानी भी परिवार में शामिल हो गयी ,अब उसका समय था कि वो अपनी सास का दिल जीत सके। उसने कभी भी सामने से काम नहीं किया, बस मेरे साथ काम में लग जाती। पूरी तरह से जिम्मेदारी नहीं ली ,एक दिन हमारी सासु माँ ने उसे कोई काम दिया ,उसने बड़ी ही चालाकी इंकार कर दिया। पारुल सोच रही थी कि ''आज तो ''गृह क्लेश ''निश्चित है लेकिन वे चुपचाप उठीं और काम कर दिया। यह देखकर वो हैरत में पड़ गयी और सोच रही थी उसकी जगह यदि स्वयं पारुल होती तो इंकार करने पर घर में क्लेश हो जाता ,उसकी तो आज तक हिम्मत ही नहीं हुई कि अपने बड़ों का कहा टाल सके ,कोई काम नहीं भी आता तो सीखने का प्रयास करती और इसको सास ने कुछ भी नहीं कहा। उसने सोचा अभी नई बात है ,देंखें ,कब तक शांत रहती हैं ? मैं भी तो कभी नई आई थी। एक दिन मेरे पास आकर बोलीं - रेनू ,अभी छोटी है और नई आयी है ,यदि वो कोई गलती करे तो तुम मुझे आकर बताना। मैं इतने दिनों से इस घर में थी और जब से छोटी आयी है ,तब से छोटी का व्यवहार ,उसके प्रति मम्मी जी का भी व्यवहार देख रही थी। मैं सोच रही थी कि इस बात में इनका क्या उद्देश्य हो सकता है ?काफ़ी सोचने के बाद मैंने मम्मीजी से कहा -आपके लिए दोनों बहुएँ बराबर हैं ,आप स्वयं ही गलतियाँ देखें ,मेरी चुग़ली की आदत नहीं ,ये काम मुझसे नहीं होगा।
मैं रोजाना की तरह अपने काम में लगी रहती मेरे साथ छोटी बच्ची भी थी ,उसके साथ समय कब बीत जाता ?पता ही नहीं चलता था। कुछ दिन ही बीते होंगे ,मैंने महसूस किया कि दोनों आपस में हंसती -बतियातीं ,मेरी बच्ची को पकड़ती भी नहीं ,न ही किसी काम में मदद करतीं। मेरी कोई बात छोटी को पता होती तो सास तक पहुंच जाती। मैं हैरान -परेशान कि ये हो क्या रहा है ?मैं डॉक्टर के लिए बताकर गयी थी
लेकिन मैंने छोटी से बताया कि मैं अपनी मम्मी से भी मिलकर आऊँगी वो बिमार थीं , आने में थोड़ी देर हो जाएगी ,बाक़ी का काम तुम संभाल लेना। उसने तब तो हाँ कह दिया फिर मेरे पीछे मम्मीजी को नमक -मिर्च लगाकर पता नहीं, क्या -क्या बोला -जब मैं घर आयी तो उन्होंने न जाने क्या -क्या सुनाया,? मैंने छोटी से पूछा- कि मैंने तो तुम्हें बताया था कि संभाल लेना ,तब क्या हुआ ?छोटी अपना पल्ला झाड़ते हुए बोली -पता नहीं दीदी ,आप तो मम्मीजी की आदत जानती ही हैं ,मुझे उसकी बात सही लगी। मैंने मम्मीजी से पूछा- कि आपको किसने बोला ?कि मैं घूमती फिर रही हूँ। तब उन्होंने उसी तीख़ी ज़बान में कहा -तू न बतायेगी, तो क्या हमें नहीं चलेगा ?वो ही तो मैं पूछना चाह रही हूँ कि किसने बताया ?''मैं घूमने गयी हूँ ,मैं तो अपनी मम्मी को देखने गयी थी। ठीक है ,तुझे इससे क्या ?वो उसे बचाते हुए बोलीं -काले चोर ने बताया, क्योंकि वो तो पहले ही उनसे वादा ले चुकी थी कि मम्मीजी मेरा नाम न आ जाये। मैं परेशान सारी बातें मेरे मन में घूम रहीं थीं ,वो क्यों ऐसे भड़कीं ,किसने क्या कहा ?तभी मेरे दिमाग में वो बात घूमी ,मम्मीजी ने मुझसे कहा था-' कि छोटी की बातें बताना और शायद छोटी से भी यही कहा हो और वो इन परिस्थितियों का लाभ उठा रही हो ,फिर भी मैंने एक बार बात कर लेना उचित समझा। मैं तुरंत उसके पास गयी और उससे सीधे बात की ,क्या मम्मीजी ने ऐसा कुछ कहा ?मैंने उसे चौंकते हुए देखा लेकिन वो बोली -नहीं ,ऐसा कुछ नहीं। मैंने उससे कहा -मेरे पास भी आईं थीं लेकिन मैं ऐसी बातों से दूर रहना ही पसंद करती हूँ ,आज जैसी स्थिति में' मैं 'हूँ ,मेरी जगह तुम भी हो सकतीं थीं ,लेकिन उसने मेरी बातों को नजरंदाज किया।
मैं पहले से ही सास के व्यवहार से परेशान थी लेकिन अब तो छोटी के आने पर राजनीति होने लगी। मैं सोचती थी कि सास ऐसी ही होतीं हैं पुरानी 'चलचित्रों 'में ऐसे दिखाते थे लेकिन राजनीति तो मुझसे पहले ही नहीं होती थी मेरा विषय भी समाजशास्र और अर्थशास्त्र थे। राजनीति शास्त्र तो पहले से ही पसंद नहीं था। सास की राजनीति थी , दो बहुओं के बीच फूट डालो और अपना वर्चस्व क़ायम रखो। किसी देश या राज्य पर नहीं ,उस घर में जिसे प्रेम , मान -सम्मान ,प्रतिष्ठा का घर ,भवन और भी न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। जहाँ नारी को पूजते हैं ,वो सोच रही थी ,-क्या वो इस घर की' गृहलक्ष्मी' है ,उसने व्यर्थ ही इतनी शिक्षा प्राप्त की ,उसे तो चापलूसी ,चुगली करना और थोड़ी सी राजनीति सीखनी चाहिए थी ,आज उसे ये सब आते तो आज वो यहाँ राज कर रही होती। वो तो शांत ,मधुर ,प्यार के साथ जीवन जीना पसंद करती थी लेकिन उसे तो उसकी मम्मी ने भी घरेलू राजनीति नहीं सिखाई। तब उसे बुआजी की याद आई ,उन्होंने कुछ आशंकाएँ जताई भी थीं तो उसने उस समय उन बातों पर ध्यान नहीं दिया था। तब मैंने बुआजी को ही निरुत्तर कर दिया था ,मैंने जबाब दिया था कि बुआजी !इन तुच्छ बातों से कुछ नहीं होता ,अच्छे रिश्तों की शुरुआत अच्छी सोच के साथ ही होनी चाहिए। आज बुआजी की वही बातें उसे रह -रहकर याद आ रहीं हैं। उसे अपनी शिक्षा पर शक़ होने लगा कि दो कम पढ़ी -लिखी महिलायें अपनी राजनीति के कारण आज उस पर हावी हो रही हैं ,उसे मूर्ख या पागल अथवा मानसिक रूप से कमज़ोर बना रहीं हैं। उसने तो प्यार से अपने लोगों के बीच जीवन व्यतीत करने की कल्पना की थी। राजनीति वो समझती थी लेकिन उसमें उसकी रूचि नहीं थी ,क्यों बेवज़ह दिलों में कड़वाहट भरना। किन्तु उस वातावरण में उसकी उन भावनाओं का कोई मूल्य नहीं था।
वो बहुत दिनों तक उन्हें समझाती रही ,कभी सफाई पेश करती ,उसे ज़िंदगी जैसे नर्क नज़र आ रही थी ,घर में आये दिन, कोई न कोई कांड हो ही जाता ,मानसिक रूप से वो अपने को टुटा महसूस करती। समझ रही थी कि किसी भी बात को ये लोग कैसे ''तोड़ -मरोड़कर ''कहाँ से कहाँ ले जाते हैं ?इन लोगों ने पढ़ाई तो की नहीं, लेकिन ''तिल का ताड़ ''कैसे बनाते हैं ?ये जरूर सीखा है ,दूसरे व्यक्ति को कैसे नीचा दिखाना है ,ये भी बाखूबी आता है। कैसे छोटी सी बात को लेकर 'गृह -क्लेश ''करवाना है ?स्वयं मस्त रहना है। वो अपने को पढ़ -लिखने के बाद भी' पप्पू 'महसूस कर रही थी। पारुल रोती ,उन घटनाओं का आंकलन करती कि गलती किससे और कहाँ हुई ?लेकिन कोई फायदा नहीं। उसे महसूस हुआ ,जैसे वो अपना अस्तित्व खोती जा रही है ,उसके सहन करने की शक्ति अब जबाब देने लगी थी। एक दिन रोते -रोते उसे किसी की बात याद आई कि'' अत्याचार करने वाले से सहन करने वाला भी उतना ही दोषी होता है ''अब उसे रोकर नहीं, हिम्मत से काम लेना होगा ,उनके साथ राजनीति तो नहीं खेलेगी लेक़िन उसका मुँह तोड़ जबाब तो दे ही सकती है , अब उनकी हरकतों का मुँह तोड़ जबाब देगी। उसे याद आया कि जब वो विद्यालय में पढ़ाती थी ,तब भी उसके साथ कुछ अध्यापिकाओं ने राजनीति का खेल खेला था ,तब भी तो उसने उनको ''करारा जबाब'' दिया था। इस परिवार के लिए ही तो उसने अपनी नौकरी छोड़ी थी। अपने ही परिवार के साथ क्या लड़ना लेकिन अब वो ही परिवार उसकी'' विरोधी पार्टी ''बना बैठा है।
बाहर समाज में जो परिवार दिखने में तो शांत और एकजुट , उसके अंदर कितनी अशांति और हलचल है। अब मैं और अत्याचार और धोखेबाज़ी बर्दाश्त नहीं करुँगी। इनकी चालाकियों का जबाब इन लोगों को उनकी ही जबान में मिलेगा। मन ही मन उसने उन लोगों के खिलाफ़ उनके विरोध के लिए बिगुल बजाया , उन्हें उन्हीं की भाषा में जबाब मिलने लगे तो वो तिलमिला गए। यहाँ कोई भी सही को सही ,गलत को गलत कहने के लिए तैयार नहीं था ,जिसका राज उसी की हां में हां। बहुयें तो वैसे ही बदनाम होती हैं कि सास पर अत्याचार करती हैं लेकिन समय अथवा परिस्थिति सबके साथ एक जैसी नहीं होती ,कहीं बहु हावी, तो कहीं सास।कहने को , छोटी भी बहु थी लेकिन वे दोनों अपने -अपने स्वार्थ से जुडी थीं या यूँ समझें अपने स्वार्थ के लिए उसे अपने पक्ष में रखा था। पारुल सोच रही थी -मैंने अपनी ज़िंदगी के कितने वर्ष इन्हें खुश करने की इच्छा में गवाँ दिए। पढ़ी -लिखी होने के बावज़ूद मैं घरेलू राजनीति में फँसकर रह गयी। मैं दूसरों को खुश करने के फेर में पड़ी रही न ही वो खुश हुए न ही' मैं 'खुश रह सकी ,कम से कम अपने को ही खुश कर लेती ,अपने अरमानों को ही उड़ान दे देती तो शायद मैं यहाँ ''नून तेल लकड़ी'' में न फंसकर देश की नहीं अपनी ही उन्नति कर पाती। जब व्यक्ति अपने में सक्षम होता है तो दूसरों के लिए भी सोचता है ,मैं तो अपनी ही मदद नहीं कर पायी ,दूसरों के बारे में सोचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अब थोड़ा वो सम्भलने लगी और उसने ये पारिवारिक राजनीति छोड़ ,अपनी उन्नति की सोची ,उसे लग रहा था कि देश में भी पारिवारिक झगड़े ही ,एक -दूसरे को नीचा दिखाना, अपना उल्लू सीधा करना ,चापलूसों से घिरे न रहकर ,अपनी सोच की उन्नति करें देश के पारस्परिक झगड़ों में न उलझकर ,देश की उन्नति के विषय में सोचें ज्यादा बेहतर हो ,वैसे वो सोच रही थी कि घर की राजनीति ने भी उसे बहुत कुछ सीखा दिया लेकिन इन सबके बावजूद भी देश ,परिवार चलते रहते हैं। कुछ असामाजिक तत्व होते हैं जो देश में ,ज़िंदगी में हलचल मचाते हैं ,ये तत्व न ही स्वयं चैन से रहते हैं ,न ही रहने देते हैं। मैंने ये जाना ये सब लड़ाई अपने अहम की है ,झूठ ,छल ,कपट ,बेईमानी की है जिसके कारण राजनीति जन्म लेती है। सब अपने -अपने 'अहम' को संतुष्ट करने में लगे रहते हैं। घर -परिवार हो या देश की उन्नति ,इस राजनीति के चक्कर में गयी चूल्हे में।