लो , बाबू सा ,चाय पी लो ,सुबोध का इस आवाज से ध्यान भंग हुआ ,उसने पलटकर देखा ,वही काली कजरारी आँखें , दमकता सुडौल बदन किन्तु वो आँखें...... ऐसा कैसे हो सकता है ?उसने आश्चर्य से मन ही मन कहा। नहीं ,ये वो नहीं हो सकती किन्तु मेरा मन तो मान ही नहीं रहा ,कह रहा है -ये वही आँखें हैं ,जिनकी तलाश में मैं ,बरसों से इस रेगिस्तान की रेत को निहारता रहता हूँ।मेरा मन आज भी ,उस रेगिस्तान में कहीं भटक रहा है ,जैसे उस रेत में कहीं खो गया है ?उस तूफान में ,खो ही तो गया था। पूरा चेहरा नहीं देख पाया ,क्योंकि उसने अपना चेहरा पल्लू से ढका हुआ था इसीलिए उसे ठीक से नहीं देख पाया। किन्तु आँखें तो वही हैं। वो मुझे ,अपनी ओर इस तरह देखते हुए ,वापस चली गयी।
मैं समझ नहीं पा रहा था ,कि क्या किया जाये ?एक दिल कह रहा था -ये वही है ,किन्तु तभी मेरे मस्तिष्क ने समझाया ,नहीं ,ये वो कैसे हो सकती है ?वो तो मर चुकी है ,अब इस दुनिया में नहीं रही। पांच वर्ष पहले जब आया था। तभी तो मुझे वो मिली थी ,इसी तरह चाय लेकर आई थी ,मैं राजस्थान की सैर के लिए आया था। उसकी वो कजरारी आँखें मुझे आज भी याद हैं ,उसकी चम्पई रंगत मेरे दिल में असर कर गयी थी ,उसकी पतली कमर ,सुडौल शरीर ,उस पर उसकी कजरारी आँखे ,अपनी ओर स्वतः ही खींच लेतीं ,मैं उसकी ओर खींचता चला गया। उसकी बिंदास हंसी ,उसकी बातें ,ऐसा लगता ,उसे सामने बैठाकर,उसे देखता रहूं और उसकी बातें सुनता रहूँ , उसकी आँखों में खो जाऊँ, किन्तु ऐसा नहीं हो सकता था ,मन की भावना मन में ही रही , नई जगह है ! पता नहीं, ये लोग कैसे हैं ?
एक दिन मैंने उससे कहा -मुझे वो इलाका अथवा यहाँ के गांव देखने हैं ,जहाँ रेत ही रेत होता है ,मैंने सुना है ,वहाँ रेत के टीले भी होते हैं।
रेत का क्या देखना ? वहाँ रेत और मौत के सिवा कुछ नहीं ,आप लोगों के लिए तो ये रोमांचक करने वाली जगह है किन्तु हम लोगों के लिए ,वहां मौत के सिवा कुछ नजर नहीं आता ,वो भ्र्म पैदा करता है ।
हम ये ज़िंदगी भी तो भ्रम में ही जीते हैं ,फिर भी जीते हैं ,मैंने उस पर किसी दार्शनिक की तरह जबाब मारा।जिंदगी में कुछ अलग न हो ,कुछ रोमांच न हो तो, जीने से क्या लाभ ?एक ज़िंदगी मिली है ,उसे भी ठीक से नहीं जिया तो क्या जिया ?
मैंने उस पर ,रौब मारने के लिए दो -चार भारी भरकम ,वाक्य सुना डाले, उसे समझ आये या नहीं किन्तु अपनी बात कहकर मैं अवश्य ही उसके सामने अपने को ज्ञानी समझ रहा था।
अगले दिन मेरी एक दोस्त आ भी गयी और हम जोधपुर से ,''ओसियां गांव ''के लिए निकल गए ,जब हम वहाँ पहुंचे ,तब उन लोगों ने हमे इंतजार करने के लिए कहा क्योंकि वहाँ तूफान आने का अंदेशा था , घोषणा हुई थी ,किन्तु मेरा मन नहीं माना ,मेरे उतावलेपन के कारण , हम लोग अकेले ही ,वहाँ से आगे निकल गए , मैंने सोचा था -ये तूफान क्या कर लेगा ? रेत ही तो है ,प्रत्यक्ष देखने में अलग ही मजा आएगा। रेत तो यूँ ही फिसलता है ,मेरा अलग ही सिद्धांत था ,चम्पा ,मैं और मेरी एक दोस्त ,जो चम्पा को उसके घरवालों से कहकर अपने साथ लाई थी। उसके घर से भी ,एक आदमी था ,इस तरह हम चार लोग आगे बढ़ गए। मैं देखना चाहता था ,कैसे रेत पर पैरों के निशान बनते चले जाते हैं ?कैसे रेत के टीले बनते हैं ? क्या हम फंस भी गए तो निकल भी सकते हैं या नहीं।
अभी शरुआत थी, मैंने अपनी दोस्त से कहा -इन्हीं पैरों के निशानों से ही ,वापस आ जायेंगे ,अक्सर फिल्मों में देखा है ,आज मैं प्रत्यक्ष ये सब देख रहा था ,मेरा मन पुलकित हो रहा था ,हम आगे -आगे बढ़ते जा रहे थे। मैंने पहले ही योजना बना ली थी ,यदि तूफान आया भी तो आपस में ,हाथ पकड़कर साथ रहेंगे और वापस लौट जायेंगे। मैं अपने को होशियार समझ रहा था किन्तु यहाँ के हालातों से कतई भी वाकिफ़ नहीं था। जब हालात बिगड़े ,कुछ समझ नहीं आया ,हम भागे ,तूफान तेज था ,धूल आँखों में भर रही थी ,कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था ,मैं अपनी दोस्त का हाथ पकड़कर, भागने का प्रयास कर रहा था। चम्पा भी ,अपने साथ आये ,आदमी के साथ थी ,कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था ,हमने अपने चश्में पहने हुए थे ,मुँह और कानों पर अपने साथ लाया कपड़ा लपेट लिया ,मैंने एक किताब में पढ़ा था ,इसीलिए सावधानी भी बरती थी ,हमारे पैरों के निशान भी मिट गए थे बस हम विपरीत दिशा में भाग रहे थे। हमें दूर से वो गांव के करीब होने का एहसास हो रहा था ,वो दोनों यानि चम्पा और उसके साथ आया आदमी नहीं दिख रहे थे। थोड़ी दूर में ही हम थकने लगे थे ,कोई दिवार दिख तो रही थी किन्तु वहाँ तक जाने का साहस था ,धीरे -धीरे हम अपने होश खोते चले गए। जब मेरी आँखें खुलीं ,हम उस गांव के लोगों के बीच थे ,मैंने होश में आते ही चम्पा अपनी दोस्त और उस आदमी के विषय में पूछा। वे दोनों तो ठीक थे ,किन्तु चम्पा नहीं मिली। इससे मैं बुरी तरह आहत हुआ ,मैं उसे खोजने जाना चाहता था किन्तु उन लोगों ने जाने नहीं दिया। मेरे मन में अपराधबोध की भावना घर कर गयी। अंदर ही अंदर मैं बहुत दुखी था ,इसमें मेरा भी दोष नहीं था ,ये कहकर उसके घरवालों ने मुझे माफ कर दिया। किन्तु चम्पा की हंसी ,उसकी बातें ,मुझे रह रहकर स्मरण होती रहीं। मुझे लगता ,मैंने एक हँसती -खेलती ज़िंदगी ,अपनी ज़िद की भेंट चढ़ा दी।
अपने घर जाकर भी मैं ,मन से यहीं रह गया ,हर वर्ष इधर आता ,उसके घरवालों को कुछ पैसे देकर अपने मन का बोझ उतारता। उस स्थान पर बैठकर ,मैं सोचता ,क्या ही चमत्कार हो ,वो उसी तरह ,हंसती -खिलखिलाती वापस आती दिखलाई दे। हर वर्ष उसका इंतजार करता और निराश हो ,वापस आ जाता किन्तु आज लगा जैसे मेरा स्वप्न पूर्ण हुआ ,किन्तु उसने घूंघट लिया हुआ था। मेरे मन में ,संघर्ष चल रहा था , क्या ये वही है ?ये मुझे चम्पा जैसी ही लग रही है ,किससे पूछा जाये ये कौन है ? मैं उसी स्थान पर गया ,जहाँ उस वर्ष टिका था और उनसे पूछा ,चम्पा कहाँ है ?
उन्होंने मुझे घूरा ,ये क्या कह रहे हो ?वो तो चार बरस पहले.....
अच्छा ,उस आदमी को बुलाइये !जो उस दिन हम लोगों के संग गया था ,तुम लोगों के साथ कौन गया था ?हमारे में से कोई नहीं था ,न ही हमने चम्पा के संग किसी को भेजा था ,चम्पा को भी हमने तुम्हारी वो दोस्त थी इसीलिए भेजा था। सुबोध सोचने लगा -किन्तु चम्पा तो उसे जानती थी ,हमने भी उस समय ,ये ध्यान ही नहीं दिया। ये क्या माजरा है ?यदि वो इंसान नजर आ जाये ,तब सब बात साफ हो जाये। चम्पा के न रहने पर ,मैं इतना दुखी था ,कुछ भी सोचने समझने की शक्ति नहीं रही। आख़िर ये माजरा क्या है ?अपनी दोस्त को फोन करके बताया ,वो भी मुझे ,मेरा वहम बता रही थी किन्तु मेरा मन नहीं मान रहा था ,वो चीख -चीखकर कह रहा था ,ये और कोई नहीं चम्पा ही है ,मैं उन आँखों को कभी भूल नहीं सकता। टहलते हुए ,मुझे शाम हो गयी ,मैं वापस उस कमरे में जाने के लिए ,जैसे ही घुसा ,चम्पा मेरा बिस्तर ठीक कर रही थी।
एकाएक मेरे मुँह से निकला ,कौन हो ?तुम !
मेरी आवाज सुनकर उसने झट से ,अपना चेहरा ढ़क लिया , अब छुपने से कोई लाभ नहीं ,मैं जान गया हूँ तुम चंपा ही हो ,कहकर मैं भावुक हो उठा और उसको पकड़ ,उसका घूंघट उठाया ,मैं सही था ,तुम चम्पा ही हो। तुम तो रेत के तूफान में फंस गयीं थीं फिर यहाँ कैसे ?मैं पांच बरसों से अपने को माफ नहीं कर पाया ,तुम तो जिन्दा हो, ये सब क्या नाटक है ?मैंने झुंझलाकर पूछा। और वो लड़का कौन था ?जो हमारे साथ था। वो चुप रही ,मुझे जबाब चाहिए ,बताती क्यों नहीं ?ये सब क्या नाटक है ?मैं हर साल तुम्हारी स्मृतियों को स्मरण कर दुखी होता हूँ ,तुम्हें मैं मन ही न चाहने लगा था किन्तु तुमने तो पता नहीं कौन सा नाटक रच डाला ? बोलो !बोलती क्यों नहीं ?
मेरे हाथों से अपना हाथ छुड़ाकर वो ,अलग खड़ी हो गयी ,और बोली -बाबू सा वो मेरा प्रेमी था ,जब तुमने हमें बतलाया था, कि घूमने जाना है ,तब हम दोनों ने ,योजना बनाई ,हम भी जानते थे ,तुफाँन आने वाला है ,उससे बचना कैसे है ?ये भी हमने सोच लिया था। मेरे बापू सा और भाई सा , उससे मेरा विवाह नहीं होने देते ,तब मैंने और उसने यही योजना बनाई ,हम वहीँ एक जगह पर जाकर ,पहले ही बच गए थे। तूफान में ,आप लोग फंसे थे ,हम जानते थे ,कि कोशिश करेंगे ,आप लोगों को बचा लेंगे ,जब तूफान थमा ,हमने दोनों को ढूंढा और उन लोगों के हवाले कर दिया। आप लोग चले गये और हम भी ,अलग शहर में विवाह करके रहने लगे। उस भोले ,मासूम चेहरे को देखकर मैं हैरान था ,ये ऐसा खतरनाक मंसूबा भी बना सकते हैं। मुझे अपने कानो पर विश्वास नहीं हो रहा था। जो प्यार जो सम्मान मेरी नजरों में उसके लिए था ,वो स्थान जैसे एकदम से रिक्त हो गया।
रात्रि ,न जाने मैंने किस तरह से काटी ?सुबह ही मैं वापस जाने के लिए तैयार हो गया ,चलते समय सोचा उससे एक बार पूछ लूँ ,तुम्हारा पति कहाँ है ?
उसे तो गए ,दो बरस हो गए ,अब वो इस दुनिया में नहीं है ,इसीलिए तो यहाँ उसके इस घर को किराये पर देकर खर्चा चलाती हूँ।
मैं एक बार को हैरान सा उसी जगह बैठ गया ज़िंदगी भीं न जाने क्या -क्या खेल दिखाती रहती है ?मैं उस रेगिस्तान में फिर से कहीं खो गया।