मम्मी घर में ही ,''हॉबी क्लासेस '' चलातीं थीं ,विशेष रूप से लड़कियों, को केक -बिस्किट बनाना सिखातीं ,सारा दिन अपने ही कार्यों में लगीं रहतीं हैं ,वैसे वो बहुत मेहनत करती हैं। यह कार्य भी आसान नहीं , सभी लड़कियों को समझाना, सिखाना उससे पहले तैयारी करके रखना। तब उस एक घंटे में सारा कार्य समझाना , सामान बनाने की विधि, और उसको बनाने की आवश्यक सामग्री। मम्मी के दिन में तीन -तीन ,चार -चार बैच चल जाते थे। हमारे विद्यालय की तरह ही, उन्हें भी रविवार को ही छुट्टी मिलती थी। हमारे साथ जब दादी रहती थी ,तो मम्मी बड़ी परेशानी महसूस करती थीं। आजकल भी मैं देख रही हूं अक्सर यही होता है, अपने घर में जब कोई बड़ा हमारे घर में रहे, परेशानी महसूस करते हैं। इसी तरह ही मम्मी भी परेशानी महसूस करती थीं।
कुछ दिन बाद दादी गांव चली गई, हालांकि मम्मी का काम और भी बढ़ गया था। दादी घर में रहती थीं तो धुले कपड़ों की तह भी बना देती थीं । छत से ,धुले हुए कपड़े भी उतार लाती थीं। घर में बाहरी लोगों का आना जाना लगा ही रहता था, घर का भी ख्याल रखतीं थीं , तब भी मम्मी के मन में उनके प्रति इतना आदर नहीं था। हमेशा ही परेशानी महसूस करतीं। दादी के न रहने पर, मम्मी की कामवाली भी आने लगी थी वह बर्तन साफ करती थी और घर का झाड़ू पोछा भी कर देती थी। मम्मी उसके आने पर खुश होती थीं। जब भी कभी मम्मी लड़कियों को केक , बिस्किट , पेस्ट्री सिखाती थीं , तब उसमें से कामवाली अम्मा को भी देती थीं। उनके खाने-पीने का पूरा ख्याल रखती थीं, कि कहीं वह काम छोड़कर ना चली जाए। इसीलिए उसको खुश करने के प्रयास में, उसे खाने -पीने को कुछ ना कुछ देती ही रहती थीं।
यह बात , मुझे कुछ अजीब लगी, जब दादी रहती थीं , तब मम्मी इतना खुश नहीं होती थीं , कभी भी दादी को इस तरह ,उन्होंने खाने के लिए ,कभी कुछ नहीं दिया जबकि दादी भी कुछ ना कुछ ,उनकी मदद करवा ही देती थीं। तब मुझे इसीलिए भी अजीब लगा ,क्योंकि कभी भी मम्मी ने दादी से, ऐसे खुश होकर बातें नहीं की, ना ही कभी उनके खाने का इतना ख्याल रखा, हमेशा उन पर एहसान दिखलाती थीं कि मैं बहुत काम कर रही हूं। जबकि कामवाली के आने पर उससे खुश होती और उसे खाने के लिए भी पूछतीं। तब मैं सोचा करती थी- यह 'आदर भाव , दादी के लिए कहां चला गया था ? दादी भी तो उनकी मदद करती थी, बल्कि वह तो इस परिवार का ही एक हिस्सा थीं। मेरी यह कहानी लिखने का उद्देश्य, खाली यह नहीं है , मेरी दादी को प्यार नहीं मिलता था ,उनके प्रति सम्मान नहीं था। अक्सर मेरे मन में यह प्रश्न उठता था , आजकल हालात ही ऐसे हो गए हैं घर में , दादी- बाबा या बड़े बुजुर्ग का इतना सम्मान नहीं होता जितना ''कामवाली'' को पूछा जाता है। उसको खुश करने का प्रयास किया जाता है , क्या यही सब व्यवहार हम अपने बड़े बुजुर्गों से नहीं कर सकते , उनके रहने पर उन्हें एहसान दिखाना, बात-बात में ताने मारना ,उनका काम- काम नहीं लगता , क्या यह सब इसलिए कि वह इस घर के सदस्य हैं या उनके साथ हम रहना नहीं चाहते उनसे ज्यादा सम्मान तो एक' कामवाली 'को मिल जाता है ,जबकि वह तो काम के बदले में पैसे भी लेती है। क्या यह आदर घर के बड़े -बुजुर्ग के लिए ,मेरी दादी के लिए नहीं होना चाहिए था ? अक्सर मेरा मन यही प्रश्न मुझसे बार-बार करता। आज मैं भी, आप लोगों से यही प्रश्न कर रही हूं ,कि जो सम्मान, जो भावना हम एक कामवाली के प्रति रखते हैं ,एक तरह से कहा जाये तो ,उसकी ख़ुशामद करते हैं। वह अपने परिवार के सदस्यों के लिए क्यों नहीं रख सकते ?यदि वो काम करती है ,तो दादा -दादी की सम्पत्ति भी तो ,हमें मिलती है ,जो घर के बड़े बुजुर्ग हैं उनके लिए , वह आदर क्यों नहीं ?
दादी को इस तरह खिला देतीं या उनसे प्यार से' दो शब्द' भी बोल लेतीं तो क्या बिगड़ जाता ? आजकल घर के बड़े बुजुर्गों का भी इतना सम्मान नहीं, जितना आजकल कामवाली को पूछा जाता है। क्या वे यह आदर पाने के लायक नहीं हैं , क्या उन्हें , अपने बच्चों का हंसता- खेलता परिवार देखने का सुख नहीं मिलना चाहिए ? उन्हें क्यों गांव भेज दिया गया ? क्या मेरे पिता में इतना भी साहस नहीं था कि वह अपनी मां को सम्मान के साथ ,अपने पास रख सकते। जहां इतना बड़ा परिवार पल रहा था एक दादी भी रह सकती हैं , इतने खर्चे हो रहे थे ? क्या वे ही बड़ी बुजुर्ग थीं , आगे कभी और कोई या वे बड़े बुजुर्ग नहीं होंगे ?हम यह सब क्यों भूल जाते हैं ? कि कल को यही एकांतवास तुम्हें भी भोगना पड़ सकता है।फिर कहते हैं -बच्चे बिगड़ रहे हैं ,वो ये नहीं जानते ,बच्चे सब देख रहे हैं।वो कहावत है ,''कि बच्चा बड़ों से ही सीखता है''।बस चेहरे और परिस्थितियां बदल जाती हैं।