जीवन तो हादसों से ही भरा होता है ,कुछ न कुछ हादसे हमारे जीवन में हो ही जाते हैं और कुछ हादसे ऐसे होते हैं जो जीवन को एक नई दिशा दे जाते हैं, या फिर व्यक्ति की सोच ही नहीं ,उसका व्यक्तित्व ही बदल जाता है। निशा की ज़िंदगी में भी वो लम्हा आया- जब उस लम्हे ने उसकी अपनी सोच को बदला और फिर उसने अपने -आपको। अभी आप नहीं समझेंगे ,किन्तु ये तो देखिये -आज उसने घर में ऐसा क्या कहा ?जो उसके पति और बच्चों ,को हैरान कर देने के लिए काफी था।
सुबह का समय था ,खन्ना जी अख़बार के साथ ही सुबह की चाय भी लेते थे ,ये बात निशा जानती है ,जाने भी क्यों न ?उसके पति हैं ,दोनों का बीस बरसों का साथ है। निशा उठी ,उसने उठते ही चाय गैस पर बनने के लि ये रख दी। उसके पश्चात अपने दैनिक कार्य किये और बच्चों के नाश्ते की तैयारी में जुट गयी। बच्चे अभी अलसा ही रहे थे ,तभी निशा खन्ना जी पास आकर बैठी और बोली -खन्नाजी !मुझे अब स्कूटी सीखनी है ,पहले तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया ,उन्हें पता था-'' कि ये पूरी जिद्दी है ,एक बार ठान लिया, तो मानेगी नहीं ''किन्तु उसकी बात को इस तरह नजरन्दाज करना भी ठीक नहीं। समाचार -पत्र से नज़रें उठाते हुए बोले -क्या मेरे कान बज रहे हैं या जो कुछ भी मेरे कानों में पड़ा ,सही था। उनकी इस हरकत से निशा थोड़ी चिड़ी सी हो गयी और बोली -आपके कान नहीं बज रहे ,आपने ठीक ही सुना है। मैं स्कूटी चलाना सीखूंगी ,आप मुझे स्कूटी ले दीजिये। ख्नन्ना जी मन ही मन मुस्कुराये ,उसके पहले के हालात को जानते हुए बोले - कभी साईकिल भी चलाई है। नहीं ,आप तो जानते ही हैं फिर ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?जब तुम्हें साईकिल भी चलानी नहीं आती तो तुम स्कूटी कैसे सीख सकती हो ?जैसे साईकिल को चलाने के लिए तालमेल बिठाना पड़ता है ,तालमेल ठीक नहीं होगा तो कभी साईकिल इधर गिरेगी ,कभी उधर। उसी तरह स्कूटी चलाने में भी तालमेल की आवश्यकता है। तुम बस घर में तालमेल बनाकर चलो ,तुम्हारे लिए बस यही काफी है ,कहकर फिर से समाचार -पत्र में आँखें गड़ा दीं।
निशा को इस तरह खन्ना जी का इस तरह बात करना ,अपनी बेइज्जती लगी। उन्होंने उस पर अविश्वास जताया ,ये सही नहीं था। उधर बच्चे भी अलसाये थे ,किन्तु मम्मी -पापा की आवाज कानों में पड़ रही थी। पहले तो वे भी चौंक गए, कि मम्मी को सुबह -सुबह ,ये कैसी सनक सवार हो गयी ? दोनों धीमे -धीमे हँसे भी , और उस वार्तालाप का नतीज़ा सोचकर ,दोनों ही फुर्ती के साथ उठे और अपने -अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। वरना ख्नन्ना जी का सम्पूर्ण क्रोध उनके आलस्य से आरम्भ होकर ,उनकी शिक्षा ,उनका आचार -विचार ,उनके दोस्तों से होता हुआ उनके दैनिक क्रिया -कलापों को रौंदता हुआ ,न जाने कहाँ जाकर रुकता ?
निशा रसोईघर में चुपचाप नाश्ता बनाने लगी। इनके लिए तो बस यहीं ,रसोईघर में खटते रहो। एक तो मेरे बाप ने ऐसे व्यक्ति से विवाह कर दिया ,जिसको मेरी कुछ भी चिंता नहीं। अरे ! किसी दूसरे को भी क्या दोष देना ?जब अपनों ने ही नहीं सोचा। पढ़ाई में , कितनी होशियार थी, मैं ?किन्तु मेरे पिता को तो अभियंता लड़का मिल गया ,इसीलिए तो पढ़ा भी रहे थे कि लड़का ठीक से मिल जाये वरना पढ़ाते भी नहीं। ठीक सा लड़का मिल जाए और इनके मिलते ही ,मेरे लिए क्या सोचा ?स्वयं ही जबाब भी दे दिया -कुछ नहीं। बेटियां तो जैसे सीने पर बोझ हैं। जब मम्मी से कहा ,तो उन्होंने भी बहका दिया। लड़का पढ़ा -लिखा ,समझदार है। वो तुम्हारी सोच को भी समझेगा और तुम्हें आगे बढ़ने में भी सहायता करेगा।ऐसे लड़के रोज -रोज नहीं मिलते। जब तो ये भी मुझे पसंद आ गए ,पसंद क्या आ गए ?मेरी तो ''अक़्ल पर ही पत्थर ''पड़ गए थे। माँ -बाप के बहकावे में आ गयी ,समझाने वाला कोई नहीं ,ऊपर से उम्र भी कम। तब तो ख़ुशी -ख़ुशी विवाह कर लिया। ये सभी बातें मन में सोच रही थी किन्तु प्याज़ काटने से आँखों से आँसू निकल रहे थे।
बच्चे और पतिदेव ,तैयार होकर ,खाने की मेज पर चुपचाप बैठे थे। एक नजर उनकी तरफ देखा ,तभी माँ की सीख़ स्मरण हो आई -''घर में खाना बनाओ तो ,दिल से खुश होकर बनाओ ,वरना बुरे विचारों के संग खाना बनाओगी , तो वो ही ज़हर खाने में घुल जाता है ,वो खाना तन को नहीं लगता। परांठे सेकते हुए ,अपने मन को समझाने का प्रयत्न किया ताकि इस समय कोई बुरा विचार मन में न आये किन्तु विचार हैं -कि आंधी -तूफ़ान की तरह बढ़े जा रहे हैं।
निशा ने सबकी मनपसंद का नाश्ता उनके सामने रख दिया। बच्चे उसका मुँह देख रहे थे ,शायद अनुमान लगा रहे थे- कि मम्मी की मनःस्थिति कैसी है ?खन्ना जी को शायद इतना समय भी नहीं कि कुछ सोच सकें। नाश्ता करके और अपना दोपहर का खाना लेकर ,चले गए। बच्चे अब बड़े हो गए कभी कॉलिज जाते कभी नहीं ,घर में ही पढ़ते। किन्तु अब भी उनका ध्यान रखना पड़ता है। ये विचार मन में आते ही ,उसके विचारों का ज्वालामुखी फिर से धधकने लगा।
इनके घर जब से आई ,तब से पढ़ाई -लिखाई तो एक तरफ रखी गयी। बिना बाप के इकलौते और दो बिन ब्याही बहनों के जिम्मेदार भाई ,की ज़िम्मेदारी में निशा ने भी अपना पूर्ण सहयोग दिया। बहनों का विवाह अपने बच्चे ,सास की बीमारी ,क्या -क्या नहीं किया ?कभी -कभी तो आईने में शक़्ल भी, नहीं देख पाती। अब तो दोनों ननदों का विवाह भी हो गया। बच्चे भी अपने विद्यालय जाने लगे। सास भी थोड़ी ठीक सी हो गयीं। अब थोड़ा समय निकालकर ,घर के सामान के लिए बाहर चली जाती। उस दिन भी तो वो बेटे के विद्यालय की टाई और कुछ अन्य सामान भी लेने गयी थी ,तभी किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा। निशा ने पीछे पलटकर देखा ,तो पहचान नहीं पाई। सामने खड़ी महिला उसे देखकर मुस्कुरा रही थी ,उसकी आँखों पर धूप का चश्मा, रेशमी सिल्की बाल ,हाथ में महंगा पर्स, किसी बड़े घर की लग रही थी। निशा को असमंजस की स्थिति में देखकर ,वो बोली -तूने मुझे पहचाना नहीं ,मैं दीप्ती.... दिमाग पर थोड़ा जोर डाला तब निशा को सब स्मरण हुआ।
इस घर -गृहस्थी के फेर में ,कॉलिज ,शिक्षा ,सपने सब भूल गयी थी किन्तु दीप्ती को देखते ही जैसे सब स्मरण हो गया। उसका रहन -सहन ,पहनावा देखकर ,उसका मन ग्लानि से भर गया। निशा अपने भावों को छिपाते हुए ,दीप्ती से बोली -तू यहाँ... कैसे ?तू तो कितना बदल गयी ?दीप्ती तो उसकी बातों से ही समझ गयी कि उसे इस तरह देखकर ,निशा को अवश्य ही झटका लगा है। बोली -मैं तो यहीं पास में रहती हूँ ,मैं अपने बेटे के लिए कुछ किताबें और सामान लेने आई हूँ। और बता तू क्या कर रही है ?दीप्ती बोली। निशा खिसयानी सी हंसी से बोली। क्या करना है ?घर की जिम्मेदारियां ही पूर्ण नहीं होती और तू क्या कर रही है ?निशा ने दीप्ती के पलटवार में प्रश्न किया। मैं तो ''टीचिंग ''कर रही हूँ ,अपनी भी ज़िंदगी है यार.... कहकर बोली -आजा ,यहीं नजदीक ही मेरी कोठी है ,चल दोनों आराम से बैठकर बातें करेंगे। निशा तो वैसे ही उसे देखकर हीन भावना से ग्रस्त हो गयी थी। बोली -नहीं ,मैं तो बहुत देर से बाहर निकली हुई हूँ ,तेरे संग चली गयी तो और भी देरी हो जाएगी।