मित्रों जैसा कि आप जानते हि हैं कि हमारे एक मित्र हैं जो जनम से ब्राह्मण है पर कर्म से वामपंथी है। अब वामपंथी लोगों का कर्म कैसा होता है, ये बताने की अवश्यक्ता नहीं है। मित्रों वामपंथी मित्र हमारे पास आए और तुरंत आलोचनात्मक बाण व्यंगात्मक तरिके से छोड़ते हुए कहा कि "अरे तुम सनातनी लोगों में केवल भीख माँग कर जीने वाले साधु संत, ऋषि मुनि, कर्मकांडी और तांत्रिक लोग हि पैदा हुए और सुनो अंग्रेजो में देश में पैदा हुआ एक ईसाई वैज्ञानिक " सर आईजैक न्यूटन" हि तुम लोगों पर भारी है।
हमने मुस्करा कर पूछा हे वामपंथी तनिक ये बताओ कि आखिर तुम्हारे "सर आईजैक न्यूटन" ने कौन सा वैज्ञानिक नियम या सिद्धांत दिया है कि तुम इतने अकुलाहट से इतनी बड़ी बात कर रहे हो। हमारे वामपंथी मित्र जोर से हँसे और बोले तुम सनातनी लोगों को ये भी नहीं पता, अरे मूर्खो उसी ने गति के नियम और गुरुत्वाकर्षण बल का नियम बतलाया।
अब हँसने कि बारी हमारी थी, हमने भी जोर से ठहाका लगाया। हमें इस प्रकार हँसते हुए देख वो सकपका गए पर तुरंत हमारा मजाक बनाते हुए बोले कि तुम अपने पर हंस रहे हो हंसो। हमने कहा हे मित्र तनिक ये बताओ कि तुम्हारे " सर आईजैक न्यूटन" कब पैदा हुए थे और कब उन्होंने गति और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत दिए। वामपंथी मित्र ने बड़े हि गर्व से कहा, सुनो और इसे लिख कर रख लो:-
" सर आईजैक न्यूटन":- । इनका जनम ४ जनवरी १६४३ को इंग्लैंड नामक देश में हुआ था। दिनांक ५ जुलाई १६८७ को उन्होंने अपनी पुस्तक "फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका" प्रकाशित कीया, जिसमे उन्होंने अपने तीन सार्वभौमिक नियमों और गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि इस ब्रह्माण्ड में सभी वस्तुएं एक दूसरे को अपनी ओर खींचती हैं, जिसका जितना द्रव्यमान होगा उसका गुरुत्व उतना ज्यादा होगा। उन्होंने समाकलन - अवकलन की खोज की सिर्फ ये सत्यापित करने के लिए कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर गोलाई में नहीं अंडाकार लगाती है।
वामपंथी मित्र से हमने न्यूटन के बारे में और अधिक बताने का आग्रह ना करते हुए कहा, हे वामपंथी मित्र आप न्यूटन के जन्म कि तारीख और उनके द्वारा अपनी पुस्तक प्रकाशित करने कि तिथि को याद रखना, अब हम तुम्हें गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत और गति के नियम के बारे में बताते हैं कि ये कब और कैसे सर्वप्रथम अस्तित्व में आए।
हमने मित्र से कहा, हे वामपंथी सुनो, पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र (Philosophy) का ज्ञान देने वाला विश्व का प्रथम और एक मात्र धर्म हमारा सनातनी धर्म हि है। हमारे यंहा ६ दर्शन के शास्त्र हैं उन्हीं में से एक है " वैशेषिक-सूत्र" है जिसे भारतवर्ष के महान वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने दिया था।
हे वामपंथी मित्र सुनो सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में वैशेषिका-सूत्र लिखा। यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। इसके सूत्रों का आरम्भ "अथातो धर्मजिज्ञासा" से होता है। इसके बाद दूसरा सूत्र है- "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह धर्म है।
महर्षि कणाद का जनम ईसा मसीह के जनम से पूर्व हुआ था और इसी वैशेषिकसूत्र के द्वारा उन्होंने सर्वप्रथम अर्थात न्यूटन के जनम से करीब १७०० वर्ष पूर्व हि :-
१:- परमाणु सिद्धांत;
२:- गति के नियम का सिद्धांत और
३:- गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दे दिया था |
अब चुंकि यंहा न्यूटन कि बात हो रही है तो आओ सर्वप्रथम हम गति के नियम की बात करते हैं:-
डॉ नारायण गोपाल डोंगरे तथा श्री शंकर गोपाल नेने ने अपनी पुस्तक 'Physics in Ancient India' में वैशेषिक सूत्रों के ईसा कि प्रथम शताब्दी के पूर्व में लिखे गए " प्रशस्तपाद भाष्य" में उल्लिखित "वेग संस्कार" और न्यूटन द्वारा १६७५ में खोजे गए गति के नियमों की तुलना की है और विस्तृत जानकारी देते हुए बताया है:-
प्रशस्तपाद भाष्य के अनुसार :- महर्षि प्रशस्तपाद में लिखते हैं "वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।" अब इसे हम तीन भागो में तोड़ कर देखते हैं।
महर्षि कणाद ने गति का प्रथम नियम निम्न प्रकार से बतलाया:-
"वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते।"
अर्थात वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है।
अब इसी को न्यूटन ने अंग्रेजी भाषा में कुछ इस प्रकार से कहा: -
"The change of motion is due to impressed force (Principia)"
महर्षि कणाद ने गति का दूसरा नियम इस प्रकार बतलाया :-
"वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु:"
जिसका अर्थ ये है कि " वेग नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।"
इसी को न्यूटन ने अंग्रेजी भाषा में कुछ इस प्रकार बताया:-
The change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which the force is impressed (Principia)
इसी प्रकार महर्षि कणाद ने गति का तीसरा नियम बतलाया कि:-
"वेग: संयोगविशेषाविरोध:" अर्थात क्रिया कि हमेशा एक विरोधी क्रिया होती है।
इसी को न्यूटन ने अंग्रेजी भाषा में कुछ इस प्रकार बतलाया:-
To every action there is always an equal and opposite reaction (Principia )
तो हे वामपंथी मित्र तुम स्वय देख सकते हो कि तुम्हारे "सर आईजैक न्यूटन " के पैदा होने से १६००-१७०० वर्ष पूर्व महान वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिकासूत्र के प्रसस्तपाद मे गति के तीनो नियमो का प्रतिपादन कर दिया था, अब आप ये बताओ कि आखिर गति के नियम का प्रतिपादन किसने किया था।
गुरुत्वाकर्षण शक्ति का सिद्धांत:-
वामपंथी मित्र को इन तथ्यों पर सहसा विश्वास हि नहीं हुआ , ये सब सुनते हि ,उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। हमने कहा हे मित्र रुको अब ज़रा गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं।
सर्वप्रथम ऋग्वेद के मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 28 के अंतर्गत गुरुत्वाकर्षण को धारण शक्ति के रूप में बतलाया गया , जो इस प्रकार है:-
य॒दा ते॑ हर्य॒ता हरी॑ वावृ॒धाते॑ दि॒वेदि॑वे ।
आदित्ते॒ विश्वा॒ भुव॑नानि येमिरे ॥
अर्थात:-हे सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों को #धारण किये हुए हैं और प्रतिदिन सबका पालन, पोषण तथा रक्षण करते हैं, इसी से सब लोक-लोकान्तर नियमबद्ध रहते हैं अर्थात् संसार का धारण करना तथा पोषणरूप शक्तियें भी आप ही के अधीन हैं ॥
इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं: - " सब लोको का सूर्य के प्रति आकर्षण है और सूर्य आदि लोको का परमेश्वर के प्रति आकर्षण है।
"The glorious sun, by putting forth his powerful rays which possess the properties of attraction, illumination n motion, keeps all the worlds in order through the force of his attraction."
ऋग्वेद मंडल १ सूक्त ६ मंत्र ४ के अनुसार
आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे| दधाना नाम यज्ञियम्||
अर्थात हे प्रतापी और पराक्रमी प्रभु! (या तेजस्वी सूर्य!) जब वे नश्वर (एक मामले में) और आकाशीय (दूसरे में) प्रजा आपके समर्थन (एक में) और आकर्षण (दूसरे में) के कानून का पालन करते हैं, तो अकेले ही सभी संसार दृढ़ और रहने योग्य हो जाते हैं । यही कारण है कि वे अपनी नियत कक्षाओं में विचरण करते हैं।
"O Glorious and Mighty Lord! (or the Glorious sun!) when they mortal (in the one case) and aerial (in the other) subjects obey thy law of support (in the one) And of attraction (in the other) then alone all the worlds are rendered firm and habitable. This is the reason why they move in their appointed orbits."
ऋग्वेद मंडल १ सूक्त ६ मंत्र ५ और
वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः |
अविन्द उस्रिया अनु ||
ऋग्वेद मंडल ८ सूक्त १२ मंत्र ३० के अनुसार
यदा सूर्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ॥
हे ईश्वर, आपने इस सूर्य को बनाया है। आपके पास अनंत शक्ति है। आप सूर्य आदि लोकों को धारण कर रहे हैं और अपनी आकर्षण शक्ति से उन्हें स्थिर कर रहे हैं।
“O Ishwar, You have created this Sun. You possess infinite power. You are upholding the sun and other spheres and render them steadfast by your power of attraction.”
ऋग्वेद मंडल १ सूक्त ३५ मंत्र ९
हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते।
अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति॥
सूर्य अपनी कक्षा में चलता है लेकिन पृथ्वी और अन्य खगोलीय पिंडों को इस तरह पकड़ता है कि वे आकर्षण बल से आपस में टकराते नहीं हैं।
The sun moves in its own orbit but holding earth and other heavenly bodies in a manner that they don’t collide with each other through force of attraction.
ऋग्वेद मंडल १ सूक्त १६४ मंत्र १३
पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा | तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ||
सूर्य अपनी कक्षा में गति करता है जो स्वयं गतिमान है। पृथ्वी और अन्य पिंड आकर्षण बल के कारण सूर्य के चारों ओर घूमते हैं, क्योंकि सूर्य उनसे भारी है।
Sun moves in its orbit which itself is moving. Earth n other bodies move around sun due to force of attraction, because sun is heavier than them.
हे वामपंथी मित्र केवल ऋग्वेद में हि नहीं यजुर्वेदिक ऋचा में भी आकर्षण का विज्ञान समाहित है। सर्वोच्च भगवान (या सूर्य) सभी क्षेत्रों को अपनी (या उनकी) महिमामय (या शानदार) आकर्षण शक्ति और ज्ञान (या प्रकाश) के उपहार के साथ धारण कर रहे हैं जो सुख-उत्पादक गतिविधियों को संभव बनाता है।
यजुर्वेद ३३/४३
आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च |
हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ||
अर्थात सूर्य आकर्षण के बल पर पृथ्वी जैसे नश्वर शरीरों को अपने साथ लेकर अंतरिक्ष में अपनी ही कक्षा में गति करता है।
“The sun moves in its own orbit in space taking along with itself the mortal bodies like earth through force of attraction.”
नासा के सीनियर साइंटिस्ट प्रो. ओम प्रकाश पाठक ने दावा किया है कि यजुर्वेद के 17वें अध्याय में एक मंत्र है जिसमें एक संख्या पर 27 शून्य का उल्लेख मिलता है। यानी वेद ने आर्यभटट् से पहले शून्य की जानकारी दी। इसी प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत आधुनिक विज्ञान के हिसाब से न्यूटन ने बताया लेकिन ऐसा नहीं है। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत सवर्प्रथम कणाद ऋषि ने दिया था।
अब पुन: हम महर्षि कणाद द्वारा दिए गए सिद्धांत की ओर आते हैं, उन्होंने वैशेषिक दर्शन में गुरुत्वाकर्षण का कारण बताया, जो निम्न प्रकार से है:-
१:-"संयोगाभावे गुरुत्वातपतनम:" ५-१-७
यानी कोई भी वस्तु जब तक कही न कहीं उसका जुड़ाव है वो नीचे नहीं गिरेगी, (2/6)
जैसे आम या सेब का टहनी से संयोग, जब तक संयोग है तब तक पृथ्वी में कितना भी आकर्षण है वो वस्तु को अपनी तरफ खींच नहीं सकती, जैसे ही संयोग का अभाव हुआ गुरुत्व के कारण वस्तु खुद पृथ्वी पर गिर जाएगी।
२:-"संस्काराभावे गुरुत्वात पतनम:" ५-१-१८
आगे बढ़ते हुए ऋषि कणाद कहते हैं कि (3/6)
अगर किसी वस्तु में संस्कार है तब भी पृथ्वी उसे अपनी तरफ नहीं खींच सकती, संस्कार का अभाव होने पर ही वस्तु गुरुत्व के कारण पृथ्वी पर गिरेगी। संस्कार ऋषि ने तीन प्रकार के बताए, 1. वेग, 2. भावना, 3. स्थितिस्थापक।
तो इन तीन में से वेग संस्कार जिस वस्तु में है, जैसे तीर में (4/6) हम धनुष से वेग उत्त्पन्न करते हैं, तो वह गति करता है, जैसे ही वेग संस्कार खत्म होगा, उतनी दूर जाकर वह अपने गुरुत्व के कारण जमीन पर गिर जाएगा।
महर्षि कणाद हि नहीं योग दर्शन देने वाले महर्षि पतंजलि ने भी गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त देते हुए बतलाया कि:-
अचेतनेश्वपी, तद-यथा-लोष्ठ क्षिप्तो बाहुवेगम गत्वा नैव तिर्यग गच्छति नोर्ध्वमारोहती प्रिथिविविकारः प्रिथिविमेव गच्छति – आन्तर्यतः । तथा या एता आन्तरिक्ष्यः सूक्ष्मा आपस्तासां विकारो धूमः । स आकाश देवे निवाते नैव तिर्यग नवागवारोहती । अब्विकारोपि एव गच्छति आनार्यतः । तथा ज्योतिषो विकारो अर्चिराकाशदेशो निवाते सुप्रज्वलितो नैव तिर्यग गच्छति नावगवरोहति । ज्योतिषो विकारो ज्योतिरेव गच्छति आन्तर्यतः ।
पतंजलि महाभाष्य, सादृश्य एवं आन्तर्य- १/१/५०
अर्थात -चेतन अचेतन सबमें आन्तर्य सिद्धांत कार्य करता है। मिट्टी का ढेला आकाश में जितनी बाहुबल से फेंका जाता है, वह उतना ऊपर चला जाता है, फिर ना वह तिरछे जाता है और ना ही ऊपर जाता है, वह पृथ्वी का विकार होने के कारण पृथ्वी में ही आ गिरता है। इसी का नाम आन्तर्य है । इसी प्रकार अंतरिक्ष में सूक्ष्म आपः (hydrogen) की तरह का सुक्ष्म जल तत्व का ही उसका विकार धूम है। यदि पृथ्वी में धूम होता तो वह पृथ्वी में क्यों नहीं आता? वह आकाश में जहाँ हवा का प्रभाव नहीं, वहाँ चला जाता है- ना तिरछे जाता है ना नीचे ही आता है। इसी प्रकार ज्योति का विकार अर्चि है। वह भी ना निचे आता है ना तिरछे जाता है। फिर वह कहा जाता है? ज्योति का विकार ज्योति को ही जाता है।
इसके पूर्व के मन्त्र व्याकरण महाभाष्य स्थानेन्तरतमः -१/१/४९ में महर्षि पतंजलि ने गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा है –
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथ्वीविकारः पृथ्वीमेव गच्छति आन्तर्यतः ।
–महाभाष्य स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर
अर्थात- पृथ्वी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथ्वी का विकार है, इसलिये पृथ्वी पर ही आ जाता है ।
हे वामपंथी मित्र तुमने महाभारत नामक विश्व प्रसिद्ध सनातनीयो के इतिहास को व्यक्त करने वाले ग्रन्थ का नाम तो सुना ही होगा , ये हमारा सौभाग्य है की मुगलो और अंग्रेजो के किसी न्यूटन या डाल्टन ने खुद के द्वारा लिखा घोषित नहीं करवाया| हे मित्र इस सनातनी इतिहास के शांतिपर्व नामक अध्याय के २६१ श्लोक का अंतर्गत पितामह भीष्म और युधिष्ठिर के मध्य हुए संवाद को दर्शाया गया है, जिसमे भूत पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए भीष्म पितामह ने युद्धिष्ठिर से कहा था –
"भूमै: स्थैर्यं गुरुत्वं च काठिन्यं प्र्सवात्मना, गन्धो भारश्च शक्तिश्च संघातः स्थापना धृति ।"-महाभारत-शान्ति पर्व . २६१
अर्थात- हे युधिष्ठिर! स्थिरता, गुरुत्वाकर्षण, कठोरता, उत्पादकता, गंध, भार, शक्ति, संघात, स्थापना, आदि भूमि के गुण है।
अमेरिका की साइंस मैगजीन में असोसिएट एडिटर रहे डिक टेरेसी ने अपनी किताब 'एंसियंट रूट ऑफ मॉडर्न साइंसेस' के पेज नंबर सात में लिखा है कि 'न्यूटन से ३४०० वर्ष पूर्व हिंदुओं के ऋग्वेद में यह बताया गया कि पूरा ब्रह्मांड गुरुत्वाकर्षण शक्ति से आपस में जुड़ा है।'
बृहत् उपनिषद् में भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के सूत्रांकित हैं –
अग्नीषोमात्मकं जगत् ।-बृहत् उपनिषद् २.४
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः । -बृहत् उपनिषद् २.८
अर्थात- सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है । अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति । इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।
प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी भास्कराचार्य ,जिन्हें भाष्कर द्वितीय (१११४ – ११८५ ) भी कहा जाता है , के द्वारा रचित एक मुख्य ग्रन्थ "सिद्धान्त शिरोमणि" है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा है-
आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत् खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।– सिद्धान्त० भुवन० १६
अर्थात – पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथ्वी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथ्वी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।
महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट के शिष्य वैज्ञानिक वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा है-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः । खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।– पञ्चसिद्धान्तिका पृ०३१
अर्थात- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथ्वी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।
प्रश्न उपनिषद् में महान ऋषि पिप्पलाद ने कहा है-
पायूपस्थे – अपानम् । – प्रश्न उपनिषद् ३.४
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० । – प्रश्न उपनिषद ३.८
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता … सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य…. अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते । अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् । –शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८
अर्थात- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथ्वी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।
अत: उपर्युक्त अकाट्य उदाहरणों को प्रस्तुत कर मैंने वामपंथी मित्र के शीश से आस्मान और पैरों के निचे से जमीं खिसका दी , उनकी स्थिति ऐसे हो गयी, जैसे किसी ने उनका शीलभंग कर दिया हो और उन्हें अच्छा भी लगा हो और बुरा भी लगा हो | अब मित्रो हमने एक और वार उन पर किया और मैनचेस्टर विश्विद्यालय की रिपोर्ट को उनके समक्ष प्रस्तुत करते हुए वास्तविकता का परिचय कराते हुआ बतलाया की हे मित्र सुनो, तुम्हारे न्यूटन के देश का ही एक विश्वविद्यालय क्या कहता है :-
मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के डॉ जॉर्ज घेवर्गीस जोसेफ (Dr George Gheverghese Joseph) ने माना है कि 'केरल स्कूल' ने लगभग १३५० ई में 'अनंत श्रृंखला' अर्थात 'infinite series' की पहचान कर ली थी - जो कि (Calculus) कलन के बुनियादी घटकों में से एक। जबकि वर्तमान में इसके खोज का श्रेय किताबो में गलत तरीके से सत्रहवीं शताब्दी के अंत में "सर आई जैक न्यूटन और गॉटफ्रीड लीबनिट्ज को दिया जाता है , अर्थात हे वामपंथी मित्र Calculus के 'infinite series' की खोज न्यूटन और लिबनिट्ज ने नहीं की थी |
मैनचेस्टर और एक्सेटर के विश्वविद्यालयों की टीम ने खुलासा किया कि केरल स्कूल ने पाई (pi) श्रृंखला की मात्रा की भी खोज की और दशमलव के ९ , १० और बाद में १७ वे स्थानों तक पाई के सही मात्रा की गणना की | और इस बात के प्रबल परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं कि भारतीयों ने अपनी खोजों को गणितीय रूप से जानकार जेसुइट मिशनरियों को दिया जो पंद्रहवीं शताब्दी के दौरान भारत आए थे | डॉ जॉर्ज घेवर्गीस जोसेफ (Dr George Gheverghese Joseph) का तर्क है कि यह ज्ञान, अंततः स्वयं न्यूटन को दिया गया हो सकता है।
डॉ जोसेफ ने उपरोक्त रहस्योद्घाटन अस्पष्ट भारतीय पत्रों के अध्ययन के आधार पर प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा अपनी सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक 'द क्रेस्ट ऑफ द पीकॉक: द नॉन-यूरोपियन रूट्स ऑफ मैथमेटिक्स' के अभी छपने वाले तीसरे संस्करण के लिए खोज करते हुए किया है |
डॉ जोसेफ का स्पष्ट मानना है कि : "आधुनिक गणित की शुरुआत को आमतौर पर एक यूरोपीय उपलब्धि के रूप में देखा जाता है लेकिन मध्यकालीन भारत में चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच की खोजों को अनदेखा या भुला दिया गया है।
"सत्रहवीं शताब्दी के अंत में न्यूटन के काम की चमक कम नहीं हुई - खासकर जब यह कलन के एल्गोरिदम की बात आती है। "लेकिन केरल स्कूल के अन्य नामों, विशेष रूप से "माधव" और "नीलकंठ" को उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना चाहिए क्योंकि उन्होंने कलन-अनंत श्रृंखला के अन्य महान घटक की खोज की।
डॉ जोसेफ के अनुसार ऐसे कई कारण थे कि केरल स्कूल के योगदान को स्वीकार नहीं किया गया है, जिसमे से एक प्रमुख कारण गैर-यूरोपीय दुनिया से निकलने वाले वैज्ञानिक विचारों की उपेक्षा है - यूरोपीय उपनिवेशवाद और उससे आगे की विरासत वाली ओछी मानसिकता"|
उन्होंने कहा: "कुछ अथाह कारणों के लिए, पूर्व से पश्चिम तक ज्ञान के संचरण का दावा करने के लिए आवश्यक साक्ष्य का मानक पश्चिम से पूर्व तक ज्ञान के लिए आवश्यक साक्ष्य के मानक से अधिक है। "निश्चित रूप से यह कल्पना करना मुश्किल है कि पश्चिम, भारत और इस्लामी दुनिया से ज्ञान और किताबें आयात करने की 500 साल पुरानी परंपरा को छोड़ देगा।
"लेकिन हमें ऐसे साक्ष्य मिले हैं जो इससे कहीं आगे जाते हैं: उदाहरण के लिए, जानकारी एकत्र करने के लिए बहुत अवसर थे क्योंकि यूरोपीय जेसुइट्स उस समय क्षेत्र में मौजूद थे। "वे गणित में एक मजबूत पृष्ठभूमि के साथ विद्वान थे और स्थानीय भाषाओं में पारंगत थे।
इस प्रकार के अनेक उदहारण मिल जायेंगे जो इस तथ्य को साबित करते हैं, की यूरोप का सम्पूर्ण पुनर्जागरण काल विशेषत: १६०० ई से १९०० ई तक सम्पूर्ण वैज्ञानिक शोध , सिद्धांत, अन्वेषण और खोज भारतीय वैज्ञानिको के द्वारा किये गए शोध, सिद्धांत, अन्वेषण और खोज पर आधारित है |
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in