मित्रों विधर्मियों और कुपढो ने सर्वप्रथम सनातन धर्म के जिस पुस्तक पर अपनी ओछी दृष्टि डाली उसे हम मनुस्मृति के नाम से जानते हैं | मनुस्मृति सम्पूर्ण मनवा सभ्यता को सुसंकृत और सुशिक्षित बनाने के लिए रचा गया एक ग्रंथ है | इसमें मनुष्य को सदाचार का पालन करते हुए किस प्रकार अपना सम्पूर्ण जीवन यापन करना चाहिए इस का सारगर्भित चित्रण किया गया है | यह अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है | २६ जनवरी १९५० को हमारे देश में संविधान लागू किया गया और इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है | मनुस्मृति को जंहा सनातन धर्मियों को जातियों में बाटने का आरोप लगाया जाता है , वंही संविधान को सभी को एकजुट करने वाला माना जाता है | आइये इस मुद्दे पर दोनों ही पुस्तकों की वास्तविक स्थिति का विश्लेषण कर लेते हैं |
उत्पत्ति :-
मनुस्मृति :-
प्रथम मानव मनु ने इसकी रचना की थी , इस पर वेदो का व्यापक प्रभाव है | इसकी रचना आज से हजारों वर्ष पूर्व की गयी थी , जब प्रथम बार मानव का अवतरण हुआ था | इसमें कुल १२ अध्याय और २६६४ श्लोक हैं | मनुस्मृति के विषय में बाइबल इन इण्डिया' नामक ग्रन्थ में लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot) लिखते हैं: "मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसियन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है। Anthony Reid (1988), Southeast Asia in the Age of Commerce, 1450-1680: The lands below the winds, Yale University Press, pages 137-138 में स्प्ष्ट लिखा है कि बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, जावा-बाली आदि में धर्मशास्त्रों और प्रमुखतः मनुस्मृति, का बड़ा आदर था। इन देशों में इन ग्रन्थों को प्राकृतिक नियम देने वाला ग्रन्थ माना जाता था और राजाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे इनके अनुसार आचरण करेंगे। वी कृष्णा राव अपनी पुस्तक "Expansion of Cultural Imperalism Through Globalisation" के पेज संख्या ८२ पर लिखते हैं "Manu Smriti was the foundation upon which the Egyptian, the
Persian, the Grecian and the Roman codes of law were built and that the
influence of Manu is still felt in Europe".
संविधान :-
भारत रत्न बाबा साहेब भीमराव रामजी अम्बेडकर के नेतृत्व वाली संविधान समिति ने २ वर्ष ११ महीने १८ दिनों में लगभग १८६ घंटे काम करके तैयार किया था | इस पर कुल ११४ दिन चर्चा की गयी थी | भारत का संविधान, भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा २६ नवम्बर १९४९ को पारित हुआ तथा २६ जनवरी १९५० से प्रभावी हुआ।भारत के संविधान का मूल आधार भारत सरकार अधिनियम १९३५ को माना जाता है, जिसे ब्रिटिश संसद द्वारा ३२१ धाराओं और १० अनुसूचियों के साथ पारित किया गया था और इसके २५० धाराओं को हमारे संविधान का हिस्सा बना दिया गया | हमारे संविधान में एक उद्देशिका, ४७० अनुच्छेदों से युक्त २५ भाग, १२ अनुसूचियाँ, ५ अनुलग्नक (appendices) और १०५ संशोधन हैं | इस संविधान में आयरलैंड और अमेरिका के संविधान से भी कुछ लेकर सम्मिलित किया गया है |
अब आइये देखते हैं कि सनातन धर्म में फैले इस जातिवाद को मनुस्मृति और संविधान में कैसे निरूपित किया गया है | सर्वप्रथम हम देखते हैं, हमारे संविधान के द्वारा दिए गए प्रावधान जातिवाद के विषय में क्या व्यवस्था करते हैं |
मित्रों चूँकि हमारे संविधान का मूल आधार अंग्रेजों द्वारा दिया गया भारतीय सरकार अधिनियम १९३५, है अत: निसंदेह उनके षड्यंत्र को स्वीकार कर लिया गया और भारतीय सनातनी समाज को जातियों में विभक्त करने के असमाजिक कार्य को संवैधानिक ढांचा प्रदान कर दिया गया | इस संविधान के तहत सनातन समाज को अगड़ा (General) पिछड़ा (backword ) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति ( Schedule Tribes) में बाँट कर पिछड़ा (backword ) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति ( Schedule Tribes) इत्यादि के लिए विशेष प्रावधान कर दिए गए | आइये देखते हैं कुछ प्रावधानों को
भारत के संविधान के अनुच्छेद ३३० से लेकर ३४२ तक पिछड़ा (backword ) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति ( Schedule Tribes) इत्यादि के लिए के लिए विशेष उपबंध किए गए हैं |
अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियां- भारत के संविधान के अंतर्गत इनको विशेष रूप से परिभाषित नहीं किया गया अनुच्छेद ३४१ और ३४२ हमारे देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति को इन जातियों को उल्लेखित करने की शक्ति प्रदान करता है। राष्ट्रपति संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए जिन जातियों को अनुसूचित जाती में या अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित करते हैं वो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जातियां समझी जाती हैं । ऐसी कोई अधिसूचना किसी राज्य से संबंधित होती है तो वह उस राज्य के राज्यपाल के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं।
संसद विधि द्वारा खंड १ के अधीन निर्गमित की गयी अधिसूचना में उल्लेखित सूची के अंतर्गत किसी क्षेत्र में जनजातीय समुदायों को सम्मिलित कर सकती है या निकाल सकती है। कोई जनजाति क्षेत्र के अंतर्गत जनजाति है या नहीं हमें राष्ट्रपति के द्वारा निकाली गई अधिसूचना के आधार पर तय करना होता है। अनुसूचित जातियों की श्रेणी के संबंध में राष्ट्रपति का आदेश पर्याप्त है। इस सूची की मान्यता पर इस आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती है कि इसमें किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद ३३२ के अधीन दिए गए प्रावधानों के अनुसार लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किए जाने का उपबंध किया गया है। अनुच्छेद ३३२ उपबंध करता है कि लोकसभा तथा प्रत्येक राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित होंगे। वर्ष १९७६ में किये गए ४२ वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद ३३२ में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस आयोजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य वर्ष १९७१ में की गई जनगणना पर आधारित जनसंख्या है और वह वर्ष २००० तक वैसे ही बनी रहेगी। इसका तात्पर्य यह था कि इन वर्गों के लिए लोकसभा और राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में स्थानों का आरक्षण वर्ष २००० तक वर्ष १९७१ ई में की गई जनगणना के आधार पर किया जाएगा और नई जनगणना पर इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इसके पश्चात वर्ष २००० ई में संविधान में किये गए ८४वे संशोधन द्वारा अनुच्छेद ३३२ में संशोधन किया गया और इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद ३३२ के स्पष्टीकरण के प्रवर्तक में वर्ष २००० के स्थान पर वर्ष २०२६ और वर्ष १९७१ के स्थान परवर्ष १९९१ स्थापित कर दिया गया अर्थात उपर्युक्त व्यवस्था का आधार वर्ष १९९१ ई में हुई जनसंख्या जनगणना को आधार बनाकर वर्ष २०२६ तक के लिए निर्धारित कर दिया गया।
संविधान के ७३ वें संशोधन अधिनियम २००३ द्वारा अनुच्छेद ३३२ के स्पष्टीकरण को फिर से संशोधित किया गया और सन १९९१ के लिए सन २००१ प्रतिस्थापित किया गया। इसका तात्पर्य यह है कि इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या का आधार २००१ की जनगणना होगी न कि १९९१ की जनगणना। इनमें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान सभा में आरक्षण जिलों को छोड़कर पूरे प्रदेश में होगा।
प्रथम आरक्षण संविधान लागू होने की तारीख से १० वर्ष के लिए किया गया था। इसके पश्चात अवधि को समय-समय पर बढ़ाया जाता रहा। संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसे बढ़ाकर २० वर्ष के लिए कर दिया गया।
अनुच्छेद ३२५ निर्वाचन के लिए एक साधारण निर्वाचन नामावली का उपबंध करता है इसका अर्थ यह है कि पिछड़ा (backword ) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति ( Schedule Tribes) जातियों के लोग सामान्य जातियों के लिए आरक्षित स्थानों के लिए भी निर्वाचित किए जा सकते हैं।
अनुच्छेद ३३५ में संशोधन करके निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद ३३५ की कोई भी बात राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सहयोग के लिए उपबंध करने से नहीं रोकेगा जो संघ ने राज्य से संबंधित किसी वर्ग या सेवा के वर्गों में पदोन्नति के संबंध में आरक्षित है या फिर किसी परीक्षा में और उनको या मूल्यांकन की मांगों को लेकर बनाया गया।
संविधान में वर्ष २००३ में किये गए ८९वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद ३३८ के अंतर्गत अनुसूचित जातियों के लिए एक "राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग" की स्थापना का उपबंध किया गया है। संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए आयोग एक अध्यक्ष उपाध्यक्ष व तीन अन्य सदस्यों से मिलकर बनता है । आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
इस संशोधन द्वारा एक नया अनुच्छेद ३३८ (ए) जोड़ा गया है जो आयोग के कार्य करने की प्रक्रिया और उसके कर्तव्यों के सम्बन्ध में उपबंध करता है। आंग्ल भारतीय समुदाय को आरक्षण आंग्ल भारतीय समुदाय (एक समुदाय हैं जो भारत से आए ब्रिटिश लोगों के वंश के हैं तथा स्वतंत्रता के बाद ब्रिटिश लोगों के भारत से जाने के पश्चात भी यह लोग भारत में निष्ठा रखकर स्वतंत्र भारत में बने रहे) लोगों को भारत के संविधान में कुछ आरक्षण दिए हैं।
यदि राष्ट्रपति की राय में लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो वह इस समुदाय से अधिक से अधिक २ सदस्यों को लोकसभा में नामजद कर सकता है। इसी प्रकार किसी राज्य का राज्यपाल यह कर सकता है कि राज्य की विधानसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो समुदाय के एक सदस्य को विधानसभा में नामजद कर सकता है। संविधान के साथ प्रारंभ की गई यह सुविधा प्रारंभ में १० वर्ष के लिए की गई थी और ४५ वें संशोधन द्वारा इसे बढ़ाकर ४० वर्ष तक के लिए कर दिया गया है।
भारतीय संविधान आंग्ल समुदाय के संविधान पूर्व अधिकारों और विशेष अधिकारों को भी संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद ३३६ कहता है कि संविधान के प्रारंभ के पश्चात प्रथम २ 2 वर्ष में संघ की रेल,सीमा शुल्क, डाक संबंधित सेवाओं में पदों के लिए आंग्ल भारतीय समुदाय के लोगों की नियुक्तियां १५ अगस्त १९४७ ईस्वी के पूर्व वाले आधार पर की जाएगी। इसके पश्चात प्रत्येक २ वर्ष के बाद उक्त समुदाय के लिए आरक्षित पदों की संख्या १० % कम हो जाएगी और संविधान के प्रारंभ से १० वर्ष के बाद ऐसे सब आरक्षणों का अंत हो जाएगा। संविधान के लागू होने के बाद प्रथम २ वर्षों में आंग्ल भारतीय समुदाय के लिए शिक्षा के संबंधों में संघ द्वारा वही अनुदान दिए जाएंगे ३१ मार्च १९४७ ईस्वी तक दिए जाते रहे थे। ऐसा कोई अनुदान अगले ३ वर्षों बाद १० % कम होता जाएगा और संविधान के प्रारंभ से १० वर्ष के बाद समाप्त हो जाएगा पर आंग्ल भारतीय समुदाय द्वारा चलाई जाने वाली किसी शिक्षा संस्था को अनुदान पाने का हक तब तक न होगा जब तक कि उसके वार्षिक प्रवेशों में कम से कम ४० % दूसरे समुदाय के लोगों को प्रवेश दिया गया हो।
पिछड़े वर्ग के लिए भी विशेष उपबंध भारत के संविधान में किया गया है। पिछड़े वर्ग में कौन जाती सम्मिलित है इसको उल्लेखित करने की शक्ति संघ तथा राज्य सरकार में निहित है अर्थात कौन पिछड़े वर्ग का है इसे उल्लेखित करने की शक्ति भारत के संघ और राज्य के पास है।
अनुच्छेद ३४० (१ ) के अंतर्गत राष्ट्रपति को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशा तथा उनकी कठिनाइयों के अनुसंधान के लिए आयोग की नियुक्ति करने की शक्ति है। आयोग वर्गों की कठिनाइयों को दूर करने के उपायों के बारे में या उनके दिए गए अनुदान या अनुदान के बारे में राज्य सरकारों को अपनी सिफारिश भेजेगा और वह अनुसंधान करेगा। उसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजेगा। राष्ट्रपति आयोग द्वारा दिए गए प्रतिवेदन को उस पर की गई कार्यवाहियों सहित संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रख पाएगा। आयोग के प्रतिवेदन प्राप्त होने के पश्चात राष्ट्रपति आदेश द्वारा पिछड़े वर्गों को उल्लेखित करेगा। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियां, आदिम जातियों के लिए नियुक्त विशेष पदाधिकारी पिछड़े वर्गों के लिए भी कार्य करेंगे।
हे मित्रों पिछले अंक में आपने देखा कि किस प्रकार भारतीय सरकार अधिनियम १९३५ को आधार बनाकर संविधान की रचना की गयी और हिन्दू समाज को संवैधानिक रूप से अगड़ा (Forward), पिछड़ा (Backward) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति (Schedule Tribes) में सदैव के लिए बाँट दिया | इस अंक में देखेंगे कि किस प्रकार मनुस्मृति द्वारा प्रदान की गयी वर्ण व्यवस्था इस संवैधानिक जातिगत व्यवस्था से न केवल श्रेष्ठ है अपितु समाज को जोड़ने वाली है, थी और हमेशा रहेगी:-
अनुच्छेद १५ (४ ) के अंतर्गत राज्य को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान बनाने की शक्ति प्राप्त है।
अनुच्छेद १६ ४ ) के अंतर्गत राज्य को इन वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान पर आरक्षित करने की शक्ति प्राप्त है। संविधान में पिछड़े वर्ग की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। सरकार को श्रेणी में आने वाले लोगों को लिखित करने की शक्ति प्राप्त है। रामकृष्ण बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने एक आदेश द्वारा राज्य की जनसंख्या के २५ % भाग को पिछड़ा वर्ग घोषित कर दिया। यह वर्गीकरण आर्थिक सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर नहीं बल्कि जातिगत आधार पर किया गया था। मैसूर उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पिछड़े वर्गों को उल्लेखित करने वाला सरकारी आदेश न्यायिक जांच के अधीन है। इस विषय में सरकार का निर्णय अंतिम नहीं है। न्यायालय इस बात की मांग कर सकते हैं कि सरकार का निर्णय किसी युक्तियुक्त सिद्धांत पर आधारित है या नहीं। न्यायालय इस बात की भी जांच कर सकते हैं कि किसी पद के लिए आरक्षित स्थानों नियुक्त है या नहीं।
मित्रों इसी संविधान के दायरे रहकर मंडल कमीशन की नियुक्ति की गयी | जी हाँ वर्ष १९७९ ई में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया। आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी (OBC)) कहलाती है, का कोई सटीक आँकड़ा था और ओबीसी की ५२ % आबादी का मूल्यांकन करने के लिए १९३० की जनगणना के आँकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में १,२५७ समुदायों का वर्गीकरण किया। वर्ष १९८० ई में आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए २२ % से ४९. ५ % वृद्धि करने की सिफारिश की| वर्ष २००६ ई जनसंख्या विवरण के अनुसार पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या ३७४३ तक पहुँच गयी, जो मण्डल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में ६० % की वृद्धि है। वर्ष १९९० ई में मण्डल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की। कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया।
तो मित्रों इस प्रकार हम देखे तो संविधान के द्वारा निम्न तथ्यों को निर्धारित कर दिया गया :-
१ :- व्यक्ति जन्म से जाती समूहों में बँटा होता है , अर्थात कोई यादव कुल में पैदा हुआ है तो वो यादव ही रहेगा और संविधान के अनुसार भले ही वो उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाये पर वो पिछड़े में ही गिना जायेगा | इसी प्रकार यदि अनुसूचित जनजाति या जाती का मनुष्य देश का राष्ट्रपति ही क्यों ना बन जाये वो और उसके परिवार के लोग अनुसूचित जनजाति या जाती के ही रहेंगे ;
२:- संविधान ने भारत के कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को नकार दिया ;
३:- जातिगत दुर्व्यवस्था को संवैधानिक ढांचा और आरक्षण का आवरण प्राप्त हो जाने के पश्चात ये और भी मजबूत हो गयी ;
४:- अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाती आयोग तथा पिछड़ा आयोग बनाकर सनातन समाज को पूर्णतया विभक्त कर दिया गया;
५:- संविधान की आड़ में जातिगत जनगड़ना की बात भी बड़ी ही बेशर्मी से उठायी जा रही है , ताकि संख्या के आधार पर पहले से विभक्त सनातन समाज को और बाँट दिया जाये;
अत: जिस सनातन समाज के वेद , सम्पूर्ण रामायण, भगवत गीता, उपनिषद, ब्राह्मण, पुराण तथा महाभारत जातिगत व्यवस्था का निषेध करते है और कर्म के आधार पर दी गयी वर्ण व्यवस्था को अपनाने का संदेश देते है, वंही हमारा संविधान जन्म पर आधारित जातिगत व्यवस्था को हो आधार मान कर अपनी सम्पूर्ण रूप रेखा तैयार करता है |
अब आइये जरा मनुस्मृति के द्वारा दिए गए प्रावधानों को देखते हैं :-
मनुस्मृति मानव समाज को व्यवस्थित और सदाचारी बनाने का एक दर्पण है। वो असभ्य दो पैर वाले जीवो को सभ्यता की ओर अग्रसित करने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८७
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः । मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् । ।1/87
इस सारे संसार का कार्य चलाने के हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण शरीर के चार भाग मुख, वाहु, उरु और पाँव के अनुसार बनाये। और चारों वर्णों के काम पृथक्-पृथक् निर्धारित किये।इस श्लोक के द्वारा मनुस्मृति स्पष्ट करती है की ब्रह्मा के शरीर को समाज मानकर "मानव समाज" की सम्पूर्ण व्यवस्था को चार वर्ण में विभाजित किया गया, जो शरीर के अंगों के कर्म से जुड़े थे, जो निम्न प्रकार है:-
मुख:- से ब्राह्मण के उत्पत्ति का अर्थ:- शरीर में मुख हि वो अंग है जो बोलने या वार्तालाप में भाग लेने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८८
अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् । ।1/88
अत: मुख को केंद्र बनाकर मानव समाज के जो मनुष्य वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना, इन छह कर्मो में युक्त थे उन्हें ब्राह्मण वर्ण में रखा गया।
वाहु: - से क्षत्रिय की उत्पत्ति का अर्थ:- मानव समाज में जो मनुष्य अपने अपने समाज कि रक्षा करने और दुष्टो तथा शत्रुओ से युद्ध करने के लिए तैयार रहते थे, उन्हें क्षत्रिय वर्ण में रखा गया। यंहा हमारे शरीर में जो "वाहु" नामक २अङ् हैं वो शरीर की रक्षा करने और शारीरिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अन्य सभी प्रकार के कार्य करते हैं जिससे शरीर के सभी अंगों की बराबर देखभाल कर सके अत: क्षत्रिय को वाहु से जोड़ा गया।
मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८९
प्रजानां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः । ।1/89
दुसरे और आसान शब्दों में " न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, विद्या-धर्म के प्रवर्तन और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, और विषयों में न फंसकर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, ये संक्षेप से क्षत्रिय के कर्म आदिष्ट किये" अर्थात समाज के जो भी नर या मादा उस प्रकार के गुणों से युक्त होते हैँ, उन्हें क्षत्रिय कहा गया।
उरु:- उरु से वैश्य की उत्पति का अर्थ है कि जिस प्रकार मानव शरीर का उरु या पेट भोजन को संग्रहित कर उसे पकाता है पचाता है और उससे उतपन्न ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में परीसन्चरित कर देता है, ठीक उसी प्रकार वैश्य वर्ण के अंतर्गत आने वाले मनुष्य भी अपने देश या राष्ट्र या समाज के लिए व्यवसाय करते हैं।
मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ९०
पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च । ।1/90
चौपायों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती (कृषि) करना, ये सात कर्म वैश्यों के लिये नियत किये हैं।अर्थात समाज के जो भी नर या मादा उस प्रकार के गुणों से युक्त होते हैँ, उन्हें वैश्य कहा गया।
पैर: - पैर से शूद्र की उत्पत्ति का अर्थ है कि जिस प्रकार पैर सम्पूर्ण मनुष्य शरीर को आधार प्रदान करता है, वैसे हि जो मनुष्य हर वर्ण को अपना सहयोग दे सकते हैं और उन्हें किसी ना किसी प्रकार अपना सहयोग प्रदान करते हैं, उन्हें शूद्र वर्ण में रखा गया।
मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ९१
एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् । एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया । ।1/91
इस श्लोक के द्वारा उन सभी व्यक्तियों के बारे में बात कि जा रही है, जिनकी इच्छा ना तो वेदो को पढ़ाने में, ना युद्ध इत्यादि में भाग लेने में और ना व्यापार में होती है परन्तु यदि उन्हें आधार प्रदान किया जाए और कार्य सौपा जाए तो वो पढ़ाने, रक्षा करने और व्यापार करने में अपना अमूल्य सहयोग दे सकते हैं, ऐसे मनुष्यों को शूद्र वर्ण में रखा गया।
ये सभी वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित है, किसी व्यक्ति के जन्म से संबंधित नहीं है। संत रविदास निम्न कुल में पैदा हुए थे परन्तु वो अपने कर्म से संत शिरोमणि बन गए और मीराबाई (जो कि एक क्षत्रिय कुल में जन्मी थी) उनकी शिष्या बनी और उन्हें अपना गुरु माना। इसी प्रकार वाल्मीकि समुदाय के वाल्मीकि अपने कर्म से भगवान् वाल्मीकि के पद को प्राप्त किये और महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र जैसे महान तपस्वीयों के रहते भी उन्हें प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र् को लेख बद्ध करने का शुभ कार्य प्राप्त हुआ। इसी प्रकार महाराणा प्रताप ने भील प्रजाति की सहायता से युद्ध करके मुगलो के दांत खट्टे किये। इसी प्रकार भारत रत्न बाबासाहेब भीमराव रामजी अम्बेडकर भी अपने ज्ञान और कर्म से कानून मंत्री और फिर भारत रत्न बन गये, उन्होंने अपने कर्मो से ब्राह्मण तत्व को प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार बिरसा मुंडा जी जो एक आदिवासी समुदाय से आते थे, उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष किया और तिर धनुष का प्रयोग करके युद्ध किया और अपने कर्म से वो भगवान बिरसा मुंडा कहलाने लगे।
निष्कर्ष:- संविधान जंहा जातिगत व्यवस्था को अपनाने के कारण अनुसूचित जाति /जनजाति या पिछड़ा वर्ग को सामान्य वर्ग में आने से वर्जित करता है, वहीं मनुस्मृति कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को अपनाती है, अत: यह शूद्र कुल में जन्में मनुष्य को उसके कर्मों के आधार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में शामिल हो जाने का पूर्ण अवसर प्रदान करती है। आज आधुनिक काल में कई मंदिरों में अनुसूचित जाती/जनजाति के मनुष्य मुख्य पुजारी का दायित्व संभालने लगे हैँ, अत: ये पुजारी संविधान की दृष्टि में तो आजीवन अनुसूचित जाति/जनजाति के हि बने रहेंगे परन्तु मनुस्मृति की दृष्टि से ये ब्राह्मण माने जाएंगे।
आज भारत के विभिन्न विश्व विद्यालयों में अनुसूचित जाति/जनजाति या पिछड़ा वर्ग के अनगिनत अध्यापक/प्रोफ़ेसर शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैँ, अब ये सभी भले हि पढ़ने या पढ़ाने का कार्य कर रहे हैँ पर संविधान की दृष्टि से तो सदैव अनुसूचित जाति/जनजाति के हि बने रहेंगे, जबकी अपने कर्म के आधार पर ये सभी मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण माने जाएंगे।
इसी प्रकार भारतीय सेना में जितने भी सैनिक अनुसूचित जाति/जनजाति या पिछड़ा वर्ग से आते हैँ, संविधान की दृष्टि में वो सदैव उसी जाति या जनजाति के माने जायँगे परन्तु मनुस्मृति की दृष्टि में ये सभी क्षत्रिय माने जायँगे। खैर मित्रों मनुस्मृति को अत्यधिक अपमानित किया और बदनाम किया गया है और हम सनातनियों का यह कर्तव्य है कि हम इसको उचित सम्मान और समुचित स्थान दिलाये।
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता) aryan_innag@yahoo.co.in
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