मित्रों ये प्रश्न "The Kerala Story" में एक कन्वर्टेड मुस्लिम युवती ने जब हिन्दु लड़कियों से पूछी तो वो इसका उत्तर ना दे सकी, क्यों, क्योंकि वो अपने धर्म के ज्ञान से अत्यंत दूर थी।
मित्रों ये प्रश्न "The Kerala Story" में एक कन्वर्टेड मुस्लिम युवती ने जब हिन्दु लड़कियों से पूछी तो वो इसका उत्तर ना दे सकी, क्यों, क्योंकि वो अपने धर्म के ज्ञान से अत्यंत दूर थी।मित्रों ये प्रश्न "The Kerala Story" में एक कन्वर्टेड मुस्लिम युवती ने जब हिन्दु लड़कियों से पूछी तो वो इसका उत्तर ना दे सकी, क्यों, क्योंकि वो अपने धर्म के ज्ञान से अत्यंत दूर थी।
पर क्या आप इसका उत्तर दे सकते हैँ, सोचिये और सोच कर बताइये। जब तक आप सोचते हैँ, तब तक हम आपके लिए इस लेख के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां दे देते हैँ।पर क्या आप इसका उत्तर दे सकते हैँ, सोचिये और सोच कर बताइये। जब तक आप सोचते हैँ, तब तक हम आपके लिए इस लेख के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां दे देते हैँ।
मित्रों आपने अपने बचपन और युवावस्था में कभी ना कभी "रामलीला" तो अवश्य देखा होगा। दशहरे के पावन पर्व पर यह "रामलिला" रावण के दहन के साथ समाप्त हो जाती है। पर क्या आपने कभी सोचा है, कि आखिर प्रभु श्रीराम के जीवन वृत का मंचन करने वाले इस पवित्र कार्यक्रम को "रामलीला" कह कर क्यों सम्बोधित करते हैँ?मित्रों आपने अपने बचपन और युवावस्था में कभी ना कभी "रामलीला" तो अवश्य देखा होगा। दशहरे के पावन पर्व पर यह "रामलिला" रावण के दहन के साथ समाप्त हो जाती है। पर क्या आपने कभी सोचा है, कि आखिर प्रभु श्रीराम के जीवन वृत का मंचन करने वाले इस पवित्र कार्यक्रम को "रामलीला" कह कर क्यों सम्बोधित करते हैँ?
आइये इस "रामलीला" शब्द के सार के थाह को परखने और जानने का प्रयास करते हैँ।आइये इस "रामलीला" शब्द के सार के थाह को परखने और जानने का प्रयास करते हैँ।
मित्रों आपको इस तथ्य का ज्ञान तो अवश्य होगा कि इस सृष्टि के पालनहार भगवान श्री विष्णु ने नौ अवतार ले लिया है और "कल्की" के रूप में दशवें अवतार को धारण कर वे पुन: पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाले हैँ।मित्रों आपको इस तथ्य का ज्ञान तो अवश्य होगा कि इस सृष्टि के पालनहार भगवान श्री विष्णु ने नौ अवतार ले लिया है और "कल्की" के रूप में दशवें अवतार को धारण कर वे पुन: पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाले हैँ।
भगवान विष्णु के द्वारा लिए गये सभी अवतार "सृष्टि के आरम्भ से जीवन् के उत्पत्ति और उसके विकास अर्थात " उत्परिवर्तन" को दर्शाते हैँ।भगवान विष्णु के द्वारा लिए गये सभी अवतार "सृष्टि के आरम्भ से जीवन् के उत्पत्ति और उसके विकास अर्थात " उत्परिवर्तन" को दर्शाते हैँ।
प्रथम अवतार मत्स्य अवतार था "जो समुद्र में बैटीरिया से एक कोशिकीय जीव और उनसे बहुकोशिकीय जीव के विकास का क्रम दर्शाता है और मत्स्य अर्थात मछली जल में उत्पन्न होने वाला सबसे परिष्कृत जीव है, जो आज भी उपस्थित है। जलचर ।प्रथम अवतार मत्स्य अवतार था "जो समुद्र में बैटीरिया से एक कोशिकीय जीव और उनसे बहुकोशिकीय जीव के विकास का क्रम दर्शाता है और मत्स्य अर्थात मछली जल में उत्पन्न होने वाला सबसे परिष्कृत जीव है, जो आज भी उपस्थित है। जलचर ।
दूसरा अवतार था कच्छप अर्थात कछुआ:- यह उत्परिवर्तन का दूसरा चरण था जब जल से जीवन बाहर आकर स्थल अर्थात भूमि पर रहना शुरु कर चुका था। उभयचरदूसरा अवतार था कच्छप अर्थात कछुआ:- यह उत्परिवर्तन का दूसरा चरण था जब जल से जीवन बाहर आकर स्थल अर्थात भूमि पर रहना शुरु कर चुका था। उभयचर
तीसरा अवतार था वाराह:- अर्थात अब अंडो के द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों के साथ साथ स्तनधारियों का भी विकास आरम्भ हो गया और उनमे वाराह अर्थात शुकर सबसे ज्यादा योग्य जीव था और इसी समय नभचर जीवो तथा ऐसे जीवों का भी विकास शुरु हुआ जो जल, नभ और स्थल तीनो पर समान रूप से जीवन यापन कर सकते थे।तीसरा अवतार था वाराह:- अर्थात अब अंडो के द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों के साथ साथ स्तनधारियों का भी विकास आरम्भ हो गया और उनमे वाराह अर्थात शुकर सबसे ज्यादा योग्य जीव था और इसी समय नभचर जीवो तथा ऐसे जीवों का भी विकास शुरु हुआ जो जल, नभ और स्थल तीनो पर समान रूप से जीवन यापन कर सकते थे।
चौथा अवतार नृसिंह का था :- अर्थात चार पाँवो से चलने वाले जीवों का क्रमिक विकास होने लगा अब वो दो पाँवो पर भी चलने लगे, जिससे उनके जीवन में अत्यधिक आसानी होने लगी।चौथा अवतार नृसिंह का था :- अर्थात चार पाँवो से चलने वाले जीवों का क्रमिक विकास होने लगा अब वो दो पाँवो पर भी चलने लगे, जिससे उनके जीवन में अत्यधिक आसानी होने लगी।
पांचवा अवतार "वामन" का था:- अर्थात उत्परिवर्तन के कारण क्रमिक विकास के दौरान ४ से ५ फुट की लम्बाई वाले मानव अस्तित्व में आये, ये जंगलों में अन्य जीवों के साथ रहते थे।पांचवा अवतार "वामन" का था:- अर्थात उत्परिवर्तन के कारण क्रमिक विकास के दौरान ४ से ५ फुट की लम्बाई वाले मानव अस्तित्व में आये, ये जंगलों में अन्य जीवों के साथ रहते थे।
छठा अवतार "परशुराम" अवतार था:- अब मनुष्यों ने पत्थरों के हथियार और औजार बनाना सिख लिया था और वो जंगलों से निकलकर गुफाओं में झुण्ड बना कर रहने लगे और भाषा इत्यादि का विकास किया, अग्नि का विकास किया।छठा अवतार "परशुराम" अवतार था:- अब मनुष्यों ने पत्थरों के हथियार और औजार बनाना सिख लिया था और वो जंगलों से निकलकर गुफाओं में झुण्ड बना कर रहने लगे और भाषा इत्यादि का विकास किया, अग्नि का विकास किया।
अब था सातवा अवतार अर्थात प्रभु श्रीराम का:- इस दौरान जीवन के क्रमिक विकास में संस्कृति, सभ्यता, भाषा, गाव, समाज, मर्यादा, जीवन जिने के सामूहिक नियम, इत्यादि का ना केवल क्रमिक विकास हुआ अपितु यह अपने चरमोतकर्ष पर पहुंच गया। अब था सातवा अवतार अर्थात प्रभु श्रीराम का:- इस दौरान जीवन के क्रमिक विकास में संस्कृति, सभ्यता, भाषा, गाव, समाज, मर्यादा, जीवन जिने के सामूहिक नियम, इत्यादि का ना केवल क्रमिक विकास हुआ अपितु यह अपने चरमोतकर्ष पर पहुंच गया।
खैर आप उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करें या ना करें पर यही सत्य है। अब हम ऊपर दिये गये वैज्ञानिक अवधारणा को यंही छोड़ "रामलीला" पर पुन: आते हैँ।खैर आप उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करें या ना करें पर यही सत्य है। अब हम ऊपर दिये गये वैज्ञानिक अवधारणा को यंही छोड़ "रामलीला" पर पुन: आते हैँ।
"रामलीला" का अर्थ है:- "राम" का अर्थ तो सभी जानते हैँ फिर भी मै आपको बताता चलूँ "राम शब्द संस्कृत के दो धातुओं, रम् और घम से बना है। रम् का अर्थ है रमना या निहित होना और घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान। इस प्रकार राम का अर्थ सकल ब्रह्मांड में निहित या रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं ब्रह्म। शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।""रामलीला" का अर्थ है:- "राम" का अर्थ तो सभी जानते हैँ फिर भी मै आपको बताता चलूँ "राम शब्द संस्कृत के दो धातुओं, रम् और घम से बना है। रम् का अर्थ है रमना या निहित होना और घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान। इस प्रकार राम का अर्थ सकल ब्रह्मांड में निहित या रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं ब्रह्म। शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।"
लीला का अर्थ है, प्रभु श्रीराम के रूप में मानव समाज में जन्म लेकर, विश्व को मर्यादा, संस्कृति और सदाचारण (त्याग, तपस्या, क्षमा, प्रेम, दया और करुणा इत्यादि) का पाठ समझाने हेतु किये गये क्रिया कलाप।लीला का अर्थ है, प्रभु श्रीराम के रूप में मानव समाज में जन्म लेकर, विश्व को मर्यादा, संस्कृति और सदाचारण (त्याग, तपस्या, क्षमा, प्रेम, दया और करुणा इत्यादि) का पाठ समझाने हेतु किये गये क्रिया कलाप।
अब आइये इसे समझने का प्रयास करते हैँ। बाल्यवस्था में प्रभु श्रीराम अन्य सामान्य बालको की भांति हि अपनी मासूम क्रियाओं से अपने माता पिता के हृदय को असीम सुख और आनंद से भर देते हैँ और धीरे धीरे बड़े होते हैँ।अब आइये इसे समझने का प्रयास करते हैँ। बाल्यवस्था में प्रभु श्रीराम अन्य सामान्य बालको की भांति हि अपनी मासूम क्रियाओं से अपने माता पिता के हृदय को असीम सुख और आनंद से भर देते हैँ और धीरे धीरे बड़े होते हैँ।
वे अपने माता पिता की आज्ञा से गुरुकुल में शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करने जाते हैँ और अयोध्या के अन्य सामान्य जनता के बच्चों के साथ ही शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करते हैँ। यंहा पर वो सभी ऊंच नीच या छुआ छुत जैसी अवधारणाओ की बेड़ियों को तोड़ने का मर्यादामयी आचरण दर्शाते हैँ और इसी क्रम में निशाद राज उनके परम मित्र बन जाते हैँ।वे अपने माता पिता की आज्ञा से गुरुकुल में शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करने जाते हैँ और अयोध्या के अन्य सामान्य जनता के बच्चों के साथ ही शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करते हैँ। यंहा पर वो सभी ऊंच नीच या छुआ छुत जैसी अवधारणाओ की बेड़ियों को तोड़ने का मर्यादामयी आचरण दर्शाते हैँ और इसी क्रम में निशाद राज उनके परम मित्र बन जाते हैँ।
जब शिक्षा पूर्ण कर घर वापस आते हैँ, तो कुछ हि अवधि के पश्चात महर्षि विश्वामित्र के निवेदन पर अपने पिता के आदेश से राक्षसों के आतंक से संतो की रक्षा करने वन गमन कर जाते हैँ।जब शिक्षा पूर्ण कर घर वापस आते हैँ, तो कुछ हि अवधि के पश्चात महर्षि विश्वामित्र के निवेदन पर अपने पिता के आदेश से राक्षसों के आतंक से संतो की रक्षा करने वन गमन कर जाते हैँ।
(अब यंहा वो चाहते तो अपनी माता से या पिता से आग्रह कर किसी ना किसी बहाने वन में जाने से बच सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने पिता के आदेश का पालन कर पुत्रधर्म निभाया और वंही दूसरी ओर अयोध्या के राजकुमार होने के नाते अपनी प्रजा के प्रति अपने राजधर्म का पालन किया)ताड़का और सुबाहु जैसे महापराक्रमि राक्षसों का वध कर संत समाज को अभय प्रदान करते हैँ।(अब यंहा वो चाहते तो अपनी माता से या पिता से आग्रह कर किसी ना किसी बहाने वन में जाने से बच सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने पिता के आदेश का पालन कर पुत्रधर्म निभाया और वंही दूसरी ओर अयोध्या के राजकुमार होने के नाते अपनी प्रजा के प्रति अपने राजधर्म का पालन किया)ताड़का और सुबाहु जैसे महापराक्रमि राक्षसों का वध कर संत समाज को अभय प्रदान करते हैँ।
मार्ग में वे गौतम ऋषि की कुटिया में प्रवेश करते हैँ और शिला के रूप में विद्यमान और कई वर्षों से अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रही अहिल्या को अपने स्पर्श द्वारा मुक्ति प्रदान करते है। यह भी उनके अवतार का एक प्रमुख कारण था।मार्ग में वे गौतम ऋषि की कुटिया में प्रवेश करते हैँ और शिला के रूप में विद्यमान और कई वर्षों से अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रही अहिल्या को अपने स्पर्श द्वारा मुक्ति प्रदान करते है। यह भी उनके अवतार का एक प्रमुख कारण था।
मिथिला राजवंश के द्वारा आयोजित स्वयंबर में गुरु कि आज्ञा से ना केवल भाग लेते हैँ, अपितु धनुष को तोड़कर स्वयंबर की शर्त पूरी कर राजकुमारी सीता का वरण करते हैँ। परन्तु यंहा पर अपने मर्यादा रूपी आचरण से समाज को विशेष संदेश देते हैँ और अपने पिता, गुरुओं और अयोध्यावासियों कि उपस्थिति में पूरे धार्मिक अनुष्ठानों के साथ विवाह प्रक्रिया को सम्पन्न कराने तथा सभी बड़ो का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात हि माता सीता की विदाई कराकर अयोध्या वापस आते हैँ। मिथिला राजवंश के द्वारा आयोजित स्वयंबर में गुरु कि आज्ञा से ना केवल भाग लेते हैँ, अपितु धनुष को तोड़कर स्वयंबर की शर्त पूरी कर राजकुमारी सीता का वरण करते हैँ। परन्तु यंहा पर अपने मर्यादा रूपी आचरण से समाज को विशेष संदेश देते हैँ और अपने पिता, गुरुओं और अयोध्यावासियों कि उपस्थिति में पूरे धार्मिक अनुष्ठानों के साथ विवाह प्रक्रिया को सम्पन्न कराने तथा सभी बड़ो का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात हि माता सीता की विदाई कराकर अयोध्या वापस आते हैँ।
वो चाहते तो स्वयंबर जितने के पश्चात माता सीता का वरण कर गुरु विश्वामित्र के साथ अयोध्या वापस आ सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने सांस्कृतिक मूल्यों, धार्मिक वैवाहिक अनुष्ठानों और अपने पिता और अन्य अयोध्यावासियों के आशीर्वाद के साथ विवाह को सम्पन्न कराकर एक मर्यादामयी आचरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया।वो चाहते तो स्वयंबर जितने के पश्चात माता सीता का वरण कर गुरु विश्वामित्र के साथ अयोध्या वापस आ सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने सांस्कृतिक मूल्यों, धार्मिक वैवाहिक अनुष्ठानों और अपने पिता और अन्य अयोध्यावासियों के आशीर्वाद के साथ विवाह को सम्पन्न कराकर एक मर्यादामयी आचरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया।
अब आते हैँ १४ वर्ष के वनवास पर। मित्रों देवताओं की प्रार्थना पर माता सरस्वती ने रावण के अत्याचार से विश्व को मुक्त कराने हेतु और भगवान प्रभु श्रीराम को वन में भेजने हेतु, माता कैकेई की प्रमुख दासी मंथरा के मस्तिष्क में रासायनिक उलटफेर किया, जिसके फ्लस्वरूप मंथरा ने माता कैकेई का आजकल की भाषा में "ब्रेन वाश" किया और उसका परिणाम ये निकला कि महाराज दशरथ को अपने हृदय पर पत्थर रखकर दो वचन देने पड़े और प्रभु श्रीराम को १४ वर्ष का वनवास मिला। अब आप स्थिति को देखें:-अब आते हैँ १४ वर्ष के वनवास पर। मित्रों देवताओं की प्रार्थना पर माता सरस्वती ने रावण के अत्याचार से विश्व को मुक्त कराने हेतु और भगवान प्रभु श्रीराम को वन में भेजने हेतु, माता कैकेई की प्रमुख दासी मंथरा के मस्तिष्क में रासायनिक उलटफेर किया, जिसके फ्लस्वरूप मंथरा ने माता कैकेई का आजकल की भाषा में "ब्रेन वाश" किया और उसका परिणाम ये निकला कि महाराज दशरथ को अपने हृदय पर पत्थर रखकर दो वचन देने पड़े और प्रभु श्रीराम को १४ वर्ष का वनवास मिला। अब आप स्थिति को देखें:-
१:- भरत और शत्रुघ्न दोनो अयोध्या में नहीं हैँ;
२:- लक्ष्मण प्रभु श्रीराम के पक्ष में विद्रोह करने को तैयार हैँ;
३:- महाराज स्वयं को बंदी बनाकर कारागार में डालने का सुझाव दे रहे हैँ;
४:- अयोध्या की सेना प्रभु के साथ है;
५:- अयोध्या की सम्पूर्ण प्रजा प्रभु के साथ है;
६:- गुरु, संत और श्रेष्ठजन भी प्रभु श्रीराम के साथ हैँ
सब चाहते हैँ प्रभु विद्रोह करके अयोध्या का राजा बन जाए और सुख और यश के साथ राज करें, पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम इन सभी के आग्रह और साथ को टाल देते हैँ। वो अपने पिता के वचन के आगे सम्पूर्ण विश्व के वैभव और सुख को अत्यंत छोटा मानकर १४ वर्ष के वनवास को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैँ। प्रभु के लिए पिता के वचन का मान रखना अयोध्या के सिंहासन से कंही ज्यादा महत्व का है और अपने पुत्र धर्म का पालन करने हेतु वो वनवासी का जीवन अपना लेते हैँ, यही तो उदाहरण है, जो कंही और नहीं मिल सकता। यही तो एक योग्य पुत्र की मर्यादा है।
आगे प्रभु बड़ी विनम्रता से निशाद राज का आतिथ्य स्वीकार करते हैँ और एक बार पुन: समाज को "सभी मनुष्य बराबर हैँ" का पाठ पढ़ाते हैँ।
केवट का प्रसंग भी हमें प्रभु श्रीराम की लीला का एक दर्शन कराता है। केवट को इस घटना का भान था कि प्रभू के पैरों के स्पर्श से एक शिला नारी बन गयी थी, अत: वह प्रभु के पैरों को धोये बिना अपनी नाव में बैठाने के लिए तैयार नहीं था, अत: प्रभु ने केवट के हठ के आगे नतमस्तक होकर उसे संतुष्ट होने दिया और फिर उसकी आज्ञा से केवट की नाव में बैठकर नदी को पार किया। यंहा पर भी प्रभु ने अपनी इच्छा के स्थान पर केवट कि इच्छा का सम्मान किया और एक आदर्श प्रस्तुत किया।
अब आगे आते हैँ, वन में विचरण कर रही लंकाधीपति महाबली रावण की बहन सुपर्णनखा, जब प्रभु श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण को देखती है तो उनके रूप और सौंदर्य पर मोहित हो जाती है और अत्यंत रुपवती नारी के वेश में वो उनके पास जाती है। वो प्रभु श्रीराम से अपने सौंदर्य से ओत प्रोत और अत्यंत कामुकता से भरे शब्दों से प्रेम निमंत्रण देती है, पर मर्यादा पुरुषोत्तम अपनी मर्यादा के अंदर रहकर सुपर्णनखा को बड़े ही सम्मानपूर्वक मना कर देते हैँ और कहते हैँ कि "मेरी अर्धांगिनी तो मेरे साथ हैँ और पति के रूप में ये सम्पूर्ण जीवन बस इन्हीं के लिए है। जब लक्षमण भी इंकार कर देते हैँ, तो वो वासनामयी नारी माता सीता के जीवन को खत्म करने दौड़ पड़ती है और उसे दंडित करने हेतु लखन को वाण चलाना पड़ता है जो उसके नाक और कान को बेधकर वन में चला जाता है।
अब यंहा पर भी प्रभु ने मर्यादा का पाठ पढ़ाते हुए अपने आचरण से दर्शाया है कि किसी भी अवस्था में व्यक्ति को अपने चरित्र कि ना केवल रक्षा करनी चाहिए अपितु नारी का सम्मान भी करना चाहिए। चरित्र हि व्यक्ति के संस्कार, संस्कृति और समाज का परिचायक होता है।
इसके पश्चात रावण साधु के वेश में आता है और अपने मामा मारीच (जो " स्वर्णमृग" का प्रपंच रचकर आया था) की सहायता से माता सीता का हरण कर पुष्पक विमान में बैठा लंका की ओर उड़ जाता है। मित्रों यंहा पर जब माता सीता भगवान राम की वेदनामयी आवाज को सुन व्याकुलता में लक्ष्मण को आदेश देती हैँ कि जाओ अपने भाई की सहायता करो, तब लक्ष्मण जी माता सीता की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, ना चाहते हुए भी जाने को विवश हो जाते हैँ, परन्तु वो जाने से पूर्व लक्ष्मण रेखा खींच कर जाते हैँ और भाभी से प्रार्थना करते हैँ कि "आप इस रेखा के बाहर ना जाना"!
माता सीता का हरण तभी सम्भव हो पाता है, जब वो इस लक्ष्मण रेखा को पार करती हैँ। यंहा प्रभु श्रीराम ने विश्व को सचेत किया कि आप जब भी मर्यादा की रेखा को पार करेंगे तो याद रखिये केवल और केवल अहित होगा।
जब दोनो भाई कुटिया में वापस आते हैँ, तो माता सीता को ना पाकर व्याकुल हो जाते हैँ, प्रभु आम मनुष्यों की हि तरह व्यवहार करते हैँ। वे व्याकुलता में वन वन भटकते हैं और अपने पत्नी के वियोग में अश्रु भी बहाते है। मार्ग में उन्हें स्थान स्थान पर माता सीता के द्वारा फेके गये कुछ गहने भी प्राप्त होते हैँ, पर जब वो उन्हें पहचानने के लिए लक्ष्मण से पूछते हैँ, तो वो ये कहकर इंकार कर देते हैँ कि, " भईया मैंने तो कभी भाभी के चरणों के अतिरिक्त कुछ देखा ही नहीं" अत: मै कैसे पहचान सकता हुँ। फिर कुछ और दूर जाने पर जब पैरों में पहने जाने वाली पायल मिलती है, तब लक्ष्मण उसे पहचान लेते हैँ और कहते हाँ भईया हाँ ये भाभी का हि है।
ये मर्यादा की पराकाष्ठा है, क्या लक्ष्मण जैसा देवर और भाई हो सकता है और यदि हाँ तो क्या ऐसा मर्यादामय आचरण निभा सकता है।
प्रभु श्रीराम के रूप में अवतार लेने का दूसरा कारण जटायु की मुक्ति:- जी हां मित्रों रावण से माता सीता की रक्षा करते हुए जटायु पूर्णतया घायल हो जाते हैँ और प्रभु श्रीराम को रावण के बारे में जानकारी देते हुए, प्रभु कि गोद में ही अपने प्राण त्याग देते हैँ। इस प्रकार प्रभु ने जंहा माता अहिल्या और केवट का उद्धार किया वंही इस पक्षिराज का भी उद्धार कर उसे मुक्ति दी।
इसके पश्चात प्रभु श्रीराम वर्षो से प्रतीक्षा कर रही है माता शबरी के आश्रम में पहुंच कर उनके जूठे बेरो को आनंदपूर्वक ग्रहण करते हैँ और एक बार पुन: ऊंच नीच या छुआछूत को समाज से मिटाने का प्रयास करते हैँ।
इसके पश्चात अब अपने सबसे यशस्वी सेवक हनुमान से प्रभु श्रीराम की मुलाक़ात हुई और फिर किसकिंधा नरेश बाली द्वारा नगर से बाहर निकाल दिये गये सुग्रीव से मैत्री संधी होती है और प्रभु श्रीराम महाबली बाली का वध कर सुग्रीव को उसके आतंक से मुक्ति दिलाते हैँ और सुग्रीव को किसकिंधा का नरेश बना, बाली के पुत्र अंगद को उनके सरंक्षण में सौंप देते हैँ।
यंहा बाली का वध प्रभु ने इसीलिए किया, क्योंकि बाली ने अपने क्रोध में आकर ना केवल अपने छोटे भाई सुग्रीव को देश से निकाल दिया था अपितु उनकी पत्नी को भी अपने पास रख लिया था, जो की एक असमाजिक और अमर्यादित आचरण था और इससे समाज को गलत संदेश जा रहा था। प्रभु ने पेड़ की ओट लेकर इसलिए बाली का वध किया, क्योंकि यह एक युद्ध नीति का हिस्सा था, क्योंकि बाली को ये वरदान था कि वो स्वयं से लड़ने वाले की आधी शक्ति खींच लेता था अब उसका तरीका जैसा भी हो, पर सत्य यही था। अत: दुश्मन के इस लाभ की अवस्था के काट के तौर पर इस प्रक्रिया को उपयोग में लाया गया था।
इसी मध्य जब लंका से प्रताड़ित होकर रावण का छोटा भाई विभीषण उनसे मिलने आया तो जामवंत, सुग्रीव, अंगद और हनुमान के संदेह व्यक्त करने के पश्चात भी, प्रभु उनसे मिले और प्रथम मिलन में हि उन्हें "आओ लंकेश" कहकर सम्बोधित किया और उन्हें अपने समकक्ष आसन पर बैठाया। प्रभु के द्वारा ऐसा सम्मान पाकर विभीषण उनके चरणों में नतमस्तक हो गये। अब यंहा पर प्रभु श्रीराम चाहते तो उनसे मिलने से इंकार कर देते या उन्हें अपने सैनिकों के हवाले कर देते, परन्तु उन्होंने ये सब नहीं किया अपितु विभीषण को लंकेश कहकर भविष्य की रुपरेखा भी तैयार कर दी।
अब प्रभु श्रीराम ने अपनी अर्धांगिनी को प्राप्त करने के लिए वनवासी समुदाय का सर्वप्रथम विश्वाश जिता, उन्हें अपना बनाया, उनकी सहायता की और फिर अपने लिए सहायता की उम्मीद की। उन्होंने उन्हीं वनवासियों से मैत्री और संधी के माध्यम से एक विशाल सेना तैयार कि और उनके अभियांत्रिकी अनुभव का उपयोग करते हुए ना केवल अपनी अर्धांगिनी का पता लगाया अपितु वो समुद्र पर पुल बनाकर लंका भी पहुँच गये।
वो भगवान थे, तभी उन्होंने लंका तक पहुंचने के पश्चात भी उन्होंने अंतिम बार प्रयास किया और अपनी सेना के सबसे युवा योद्धा अंगद पर विश्वास करते हुए ना केवल उनका आत्मविश्वाश बढ़ाया अपितु उन्हें अपना दूत बना रावण के पास भेजा और "सीता" को सम्मान सहित लौटाकर युद्ध से बचने का अवसर प्रदान किया।
परन्तु रावण का वध तो प्रभु श्रीराम के हाथों ही होना था अत:, भयंकर युद्ध हुआ रावण के पुत्र, रिश्तेदार, सगे संबंधी और सैनिक सभी का उद्धार प्रभु श्रीराम और उनके वनवासी सेना के द्वारा किया गया और माता सीता को ससम्मान रावण के कैद से मुक्त करा लिया गया।
अब मित्रों आप स्वयं सोचे भगवान विष्णु के इस सातवें अवतार प्रभु श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन काल में जो भी आचरण दर्शाया गया क्या वो एक सामान्य व्यक्ति के वश कि बात है:-
१:- एक पत्नीव्रता पति:- यदि वो सामान्य मनुष्य की भांति व्यवहार करते तो एक पत्नी के लिए, इतना भयानक संघर्ष नहीं करते। अपनी पत्नी को सुरक्षित वापस लाने के लिए समुद्र पर पुल बाँध दिया, सुग्रीव को किसकिंधा का नरेश बनाकर वनवासी समुदाय को अपने साथ कर लिया, दुश्मन के भाई को भी अपना लिया और फिर लंका पहुंचकर रावण के सम्पूर्ण खानदान (विभीषण को छोड़) का सर्वनाश कर डाला। विभीषण को लंका का राजा बनाकर केवल अपनी धर्मपत्नी को लेकर चले आये।
२:- पुत्रधर्म:- क्या कोई ऐसा हो सकता है, जो अपने पिता के वचनों के लिए अयोध्या के राज सिंहासन, सुख, आनंद और यश से भरे निष्कंटक जीवन का त्याग कर वनवासी का जीवन १४ वर्षों तक जिने के लिए वन गमन कर जाए।
३:-लोकधर्म:- माता अहिल्या, माता शबरी, केवट, महाबली बाली और , जटायु इत्यादि को मुक्ति प्रदान करे और रावण के सम्पूर्ण खानदान का विनाश कर लंका को जीत कर उसे विभीषण को सौप दे।
हमारा भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है। है कोई इस दुनिया में जो इनके चरित्र और मर्यादापूर्ण आचरण की अंश मात्र भी बराबरी कर सके।
यदि ये सभी तथ्य उनकी जानकारी में होते तो वो उस कन्वर्ट मुस्लिम युवती का उत्तर दे सकते थे।
लेखन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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