वो कम्युनिस्ट बाप बेतहाशा अपनी पत्नी के साथ दौड़ता हुआ, अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ता है और जैसे हि कमरे का दरवाजा खोलता है, कमरे के पंखे से लटक रहे अपनी बेटी के बेजान हो चुके शरीर को झूलता देख अवाक और पथराई आँखों के साथ दरवाज़े पर लगे पर्दे को कसकर पकड़ के निढाल हो जाता है, उसकी पत्नी पर्दे के टूटने से गिरते हुए अपने पति के शरीर को सम्हालती हुई अपनी बेटी के मुह से गिर रही लार और आँखों से अभी भी बह रहे आसुओं के मिश्रण को देख चित्कार मारती हृदयावेधी ध्वनि से रोती हुई एक मूर्ति की भांति बैठ जाती है।
कम्युनिस्ट के पत्नी की वेदनाभरी आवाज से अचंभित पड़ोसी दौड़कर आते हैँ तो उस भयानक दृश्य को देख चीख पड़ते हैँ और आनन फानन में उस बेजान हो चुके शरीर को पंखे से उतारकर निचे लिटाते हैँ। थोड़ी हि देर में कम्युनिस्ट को भी होश आता है और अपनी बेटी के लाश को देखता है और अपने कलेज़े पर पत्थर रखकर एक ओर सरक कर मौन हो जाता है। उस कम्युनिस्ट पिता के आँखों से अविरल अश्रु धारा बह रही है और वो चीखना चाहता है चिल्लाना चाहता है और अपनी वेदना और दर्द का एहसास कराना चाहता है, पर करे तो करे क्या, कम्युनिज्म की विदेशी और निर्र्थक विचारधारा उसे रोक रही है और कह रही है "अरे कामरेड तू किसको अपनी वेदना सुनाएगा, यंहा तो कम्युनिस्टों का शाशन है तो यदि दोषी भी बनाएगा तो किसको।"
इधर उसकी पत्नी अपने पड़ोसियों के साथ मिलकर अपनी लाडली के अंतिम यात्रा की तैयारी करती है। जब उसकी अर्थी उठने को थी कि उस कम्युनिस्ट के मौन को तोड़ा गया तो वो घुट घुट कर अपने आसुओं को पिता हुआ आगे बढ़ा पर कम्युनिज्म विचारधारा ने एक बार फिर उसके पाव में बेड़िया डाल दी पर अब उसकी पत्नी के धैर्य का बांध टूट गया और गुस्से से लाल होती हुई अपने आँखों से बरस रहे खुन रूपी आसुओं को पोछती अपने बेटी के सिर से हिजाब को खींच कर अग्नि के हवाले करती है और स्वयं अपनी बेटी को कंधा देने आगे बढ़ती है और ये सब देख वो कम्युनिस्ट आत्मग्लानि से डूबा अपनी बेटी को कंधा देने के लिए आगे बढ़ आता है।
मित्रों मैनें जैसे "ताशकन्द फाइल्स" देखी, जैसे RRR देखी और जैसे "द कश्मीर फाइल्स" देखी कुछ वैसे हि "द केरला स्टोरी" भी देखी। सभी सच्ची घटनाओं पर आधारित हैँ और सभी का विरोध कम से कम कम्युनिस्टो ने तो अवश्य किया है।पर आप जानते हैँ, मुझे सबसे अधिक खुशी और शर्म दोनों केवल "द केरला स्टोरी" में उस लाचार कम्युनिस्ट बाप को देखकर हुई, जिसने अपनी बेटी को धर्म से यह कहकर दूर रखा कि "धर्म तो अफीम है, जो इंसानियत को बर्बाद कर देता है"!
आइये इस कम्युनिस्ट की कहानी पर एक दृष्टि डालते हैँ।
अपनी बेटी की जलती चिता अभी भी उस कम्युनिस्ट बाप के आँखों के सामने घूम रही थी और धीरे धीरे वो अपने अतीत के पन्नो को उलटने लगता है।
केरला के एक छोटे से जिले के एक छोटे से गाँव में यह कम्युनिस्ट अपनी पत्नी और पुत्री के साथ निवास करता है। सबकुछ अच्छा है, घर है, गाड़ी है, बंगला है, सम्मान है और एक कद्दावर कम्युनिस्ट के रूप में समाज में प्रभाव भी है।
यह कम्युनिस्ट बाप अपनी बेटी को कम्युनिज्म की विदेशी विचारधारा के अनुसार पालता पोसता है और धार्मिक क्रिया कलापों से सदैव दूर रखता है, यंहा तक की कहानी के रूप में भी सनातन धर्म के आधारभुत सिद्धांतो को भी नही जानने देता। परिणामस्वरूप बच्ची बड़ी होती है, शिक्षित भी होती है परन्तु कम्युनिज्म के खोखले अमानवीय सिद्धांतों में लिपटे होने के कारण ना तो कम्युनिज्म को दृढ़ता से अंगीकार कर पाती है और ना हि अपने धर्म को। यह उसके लिए हि नहीं केरल के प्रत्येक हिन्दु परिवार के लिए भयानक खतरे की घंटी होती है।
कम्युनिस्ट इधर " लाल सलाम" से क्रांति पैदा करता है उधर उसकी बेटी देखते ही देखते बड़ी हो जाती है और नर्सिंग की पढ़ाई के लिए इस्लामिक प्रभुत्व वाले क्षेत्र कासरगोढ के एक प्रसिद्ध नर्सिंग विद्यालय में प्रवेश लेती है, जंहा पर उसे जीवन के असली चुनौती से सामना करना होता है।
कम्युनिस्ट ने अपनी बेटी को ना तो सनातनी मान्यताओं के समीप जाने दिया और ना ही अपनी तरह कामरेड बनाया, परिणामस्वरूप वो लड़की एक कोरे कागज की भांति थी जिसे कोई भी आसानी से अपनी बातों के प्रभाव में ले सकता था।वो हॉस्टल के जिस कमरे में रहने के लिए जाति है, वंहा पर इस्लामिक मजहब के आवरण में लिपटी शाजिया भी रहने आती है, उसका घर उसी विद्यालय के आस पास होता है, इसलिए वो प्रत्येक छुट्टी वाले दिन अपने घर चली जाती है।
इधर कम्युनिस्ट की बेटी के साथ दो अन्य लड़कियाँ भी आती हैँ और सब मिलजुल कर रहना शुरु कर देती हैँ। कम्युनिस्ट की बेटी और अन्य दो लड़कियों को तो अपने धर्म के बारे में बेसिक जानकारी भी नहीं थी वही शाजिया इस्लामिक मजहब में डूबी हुई थी।शाजिया बात बात में अपने "अल्लाह" की बड़ाई करती है और जब इन लड़कियों के धर्म के बारे में पूछती है, तो इनके पास कोई उत्तर नहीं होता है और ये केवल उसकी बातो को ध्यान से सुनने के अलावा कुछ नहीं कर पाती।
एक साजिश के अनुसार शाजिया इस कम्युनिस्ट की बेटी और इसके दोस्तों को अपने पुरुष मुसलमान मित्रों से मुलाक़ात कराती है। उन पुरुष मोमिनों के मुंह से खैरात(दान) देकर् लोगों की सहायता करने तथा अन्य सदाचारी बाते सुनकर ये कम्युनिस्ट के बेटी और उसके दो सखियाँ प्रभावित हो जाती हैँ।एक बार होटल में खाना खाने के दौरान इस्लामिक शाजिया खाने से पहले अल्लाह को शुक्रिया करते हुए आंखे बंद करती है, यह देख कम्युनिस्ट की बेटी और उसकी एक साथी अचंभित हो जाती हैँ। पर शाजिया जब उन्हें कहती है कि "Eating Without Prayer is SIN " तो जोर का झटका बड़े हि सटीक तरिके से उनके मस्तिष्क को झकझोर देता है।
उसी होटल में कम्युनिस्ट की बेटी और उसकी दोस्त उन पुरुष मोमिनो के साथ नाच गाने में मशगूल हो जाति हैँ, जबकी शाजिया अपने इस्लामिक चरमपन्थ के आवरण में नये तरिके का ईजाद करते हुए वही बैठी रहती है।होटल से हॉस्टल के रास्ते में शाजिया उनको "अल्लाह" की महानता के बारे में बताती है और कहती है कि " इस दुनिया को केवल अल्लाह चलाता है" और कोई नहीं। कम्युनिस्ट के बेटी और उसके साथियों के पास इस दावे का कोई उत्तर नहीं था अत: वो चुपचाप चल देते हैँ।
इधर शाजिया उनके मस्तिष्क से खेलना शुरु करती है क्योंकि ऐसे या वैसे उसे अपने अल्लाह को बड़ा साबित करना है और अपनी संख्या बढ़ानी है। शाजिया उन्हें अपने घर ले जाती है, दावते देती है, अपने परिवार के सदस्यों से मिलवाती है, ईद और अन्य त्यौहार मनवाती है और यंहा तक कि उन मोमीन पुरुषों में से एक साथ कम्युनिस्ट की बेटी के प्रेम प्रसंग भी शुरु हो जाते हैँ।
अब शाजिया अपनी धूर्तता और मक्कारी की अंतिम चाल चलती है। जब कम्युनिस्ट की बेटी अपने साथियों के साथ माल घूमने जाति है तो माल के अंदर योजना के मुताबिक कई मोमिन उन्हें घेर कर शैतानी करने लगते हैँ और अंत में उन सभी लड़कियों के कपड़े फाड़ देते हैँ।
कम्युनिस्ट की बेटी अपने साथियों के साथ हॉस्टल में जाती है और अपनी योजना के सफल हो जाने पर अल्लाह को शुक्रिया कर अपने शाजिश को अंजाम तक पहुंचाने में लग जाती है। शाजिया कहती है "देखा वंहा पर बहुत सी लड़कियाँ थी पर शैतानो ने केवल तुम लोगों पर हि हमला किया, क्यों? क्योंकि जो अल्लाह को मानते हैँ और बुर्का और हिजाब पहनते हैँ, अल्लाह केवल उनकी रक्षा करता है"! और केवल अल्लाह ही है जो शैतानो से रक्षा करता है, कोई भगवान या GOD नहीं।
फिर वो कम्युनिस्ट हिन्दु लड़की के सामने महादेव और प्रभु श्रीराम की बुराई करती है और पूछती है की तुम्हारा ईश्वर जब अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाया तो तुम्हारी क्या रक्षा करेगा। अब यदि इस कम्युनिस्ट बच्ची को कुछ भी पता रहता अपने धर्म के विषय में तो वो प्रतीकर कर सकती थी परन्तु उसके बाप के अनुसार तो " धर्म अफीम है"! अत: वो कैसे जान सकती थी।
इसके पश्चात ये कम्युनिस्ट की बेटी अपने एक हिन्दु दोस्त के साथ शाजिया के द्वारा पहचान कराये गये दो मोमिनो में से एक के घर पर जाती हैँ। वो दोनो मोमिन इनसे हमदर्दी जताते हुए अपनेपन की चासनी में इन्हें शीशे में उतार लेते हैँ और फिर चिंता को दूर करने के नाम पर एक गोली खाने को देते हैँ और फिर उनकी इज्जत को तार तार कर देते हैँ।
इधर अपनी इज्जत के लूट जाने से बेखबर कम्युनिस्ट कि बेटी और उसकी दोस्त अब हिजाब पहनने लगते हैँ। अब उनके मस्तिष्क में जंहा कोई नहीं था वंहा अब "अल्लाह" हल्ला मचाने लगता है।
इधर हॉस्टल की छुट्टियाँ होती हैँ और कम्युनिस्ट की बेटी अपने घर पहुंचकर घंटी बजाती है, जैसे हि उसकी माँ दरवाजा खोलती है, वो अपनी बेटी का यह रूप देख अवाक् रह जाती है वो अपने पति को बुलाती है, और कम्युनिस्ट बाप जब अपनी बेटी को देखता है तो उसकी जिंदगी मानो थम सी जाती है, वो अपनी बेटी को हिजाब में देख सन्न रह जाता है।
बेटी के तेवर और बात बात पर अल्लाह की बड़ाई वाली आदतों को देख, कम्युनिस्ट बाप के भेजे से कम्युनिज्म का बुखार हि उतर जाता है, एक झटके में अपनी बेटी को इस जिहाद का शिकार बनता देख उसे अपने आप पर और अपने कम्युनिज्म पर आत्मग्लानि होने लगती है। वो समझ नहीं पाता कि आखिर उसकी अपनी बेटी हि इस जिहाद का शिकार कैसे हो गयी।
भाग्-२
"उठिये चाय पीजिए।"
पत्नी के इन शब्दों ने कम्युनिस्ट को अपने अतीत के पन्नो से बाहर निकाला और दोनों पति पत्नी अपने आँखों में आंसू भरे एक दूसरे को देखे बिना चाय पिने लगते है। कम्युनिस्ट की पत्नी उसे सूचना देकर बाजार चली जाती है। इधर अंधेरे ने एक बार फिर कम्युनिस्ट के हृदय पर दस्तक दिया और उसे उसके अतीत में धकेल दिया।हॉस्टल की छुट्टियाँ बितने में अभी कुछ दिन बाकी थे कि तभी, अब्दुल (उन्ही दो मोमिनों में से एक) का फोन आता है और अल्लाह को अपने दिमाग़ में बसाये हिजाब को पहन अपना सामान लेकर कम्युनिस्ट की बेटी अपने माता पिता को बिना बताये हॉस्टल के लिए चल देती है।
कम्युनिस्ट की बेटी अपने अब्दुल के घर पर रूकती है और नशीली पर उत्तेजक दवाओं की आदि हो जाने के कारण लोक लाज को छोड़कर अब्दुल के जिस्मानी भूख और उसके पीछे छिपे एजेंडे के अनुसार कार्य करने लगती है। दोनो के शरीर निकाह से पहले एक दूसरे को कुबूल कर लेते हैँ।इधर कम्युनिस्ट बाप अपनी बेटी को बुलाने के सारे प्रयास कर लेता है परन्तु असफलता के बोझ को स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि शाजिया के अल्लाह और उन दवाइयों ने कम्युनिस्ट की बेटी के ना केवल शरीर अपितु मस्तिष्क भी नियंत्रण कर लिया था।
एक बार शाजिया कि उपस्थिति में कम्युनिस्ट की पत्नी अपनी बेटी को यह कहकर बुलाती है कि "आजा बेटी तेरा बाप हृदयाघात होने के कारण अस्पताल में है" परन्तु अल्लाह तो काफिरों को दोजख की आग में जलाता है" और शाजिया ने तो इस बेटी को पुरी तरिके से इस्लाम में बदल दिया था। अत: यह बेटी अपने पिता को देखने से इंकार करती है और कहती है कि "वे काफिर हैँ अत: मै उनसे नहीं मिलने जाउंगी"!
जब शातिर और धूर्त शाजिया को पता चलता है कि " इसकी माँ "ज्वेलरी देने के लिए बूला रही है" तब यह कहती है कि "तू जा और ज्वेलरी ले आ, क्योंकि काफिरों से मिला धन हराम नहीं होता" और सुन जब तक तू अपने बाप पर थूकती नहीं और पत्थर नहीं मारती तब तक तू उनको छोड़ नहीं पायेगी।
कम्युनिस्ट की बेटी अस्पताल जाती है, अपनी माँ को रोते बिलखते देखने के पश्चात भी उसके प्रति जरा भी सहानुभूति नही दिखाती अपितु हिकारत भरी दृष्टि डालते हुए कहती है, "तुम लोग काफिर हो, तुम पर अल्लाह का अजाब गिरा है, इस्लाम कुबूल कर लो"! और ऐसा कहते हुए अपने पिता के सिर के पास जाकर थूक देती है।पर धीरे धीरे उस कम्युनिस्ट की बेटी को इस बात का एहसास होने लगता है कि " उसे नशीली और उत्तेजक दवाओं का रोगी बना दिया गया है।" वो अपने अब्दुल से बात करती है और उसके कहने पर नशीली दवाओं के प्रभाव में आकर अपनी वस्त्रहीन तस्वीरें उसको भेजती है।
इधर उसकी दोस्त तो गर्भवती होकर शाजिया के जाल में पुरी तरह फंस जाती है और आतंकी मौलवियों के द्वारा सीरिया जाकर खलीफा का खिदमत करने को विवश हो जाती है।पर कम्युनिस्ट की बेटी अपने अब्दुल के बहकावे में आकर सीरिया जाने से इंकार कर देती है और फिर शैतान अपने असली रूप में आता है और कम्युनिस्ट की बेटी को धमकियाँ देने लगता है कि यदि तु मेरे साथ नहीं आयी तो तेरे सारे फोटो सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर दूंगा।अब अल्लाह को मानने वाले इन शैतानों से उबकर अंतत: वो अपने कम्युनिस्ट बाप के पास लौट आती है। "अरे सो गये क्या" उठिये खाना खा लीजिये"!
कम्युनिस्ट फिर से अतीत में भ्रमण करता हुआ वर्तमान के खालीपन में आकर ठहर गया, किसी प्रकार मुंह में दो निवाले गये, पर खाना नहीं खाया गया। दोनों पति पत्नी इतने वर्ष एक साथ व्यतीत करने और हर सुख दुख में एक दूसरे का साथ देने के पश्चात भी बेटी के साथ हुए इस जघन्य अपराध को भूल नहीं पा रहे थे।
तीसरा भाग।
खाना खाने के पश्चात थोड़े हि देर में कम्युनिस्ट कि पत्नी अपनी सिसकियों और अपने आँखों से बहते हुए आँसुओ को रोकने में असफल होने के कारण, बेचैनी की दशा में छत पर चली गयी और इधर ये कम्युनिस्ट पुन: अतीत के पन्नो में खो गया।
बेटी लौटकर् तो आ गयी थी परन्तु उसकी आँखों से बहते आंसु और कभी भी कुछ भी गलत हो जाने के डर ने उसे जान रहित जिस्म में बदल दिया था। कम्युनिस्ट अपनी बेटी से बात करने का प्रयास करता है, तो उसकी बेटी उसे उलाहना देते कहती है,"पापा सब आपकी गलती है, इस खोखले विदेशी कम्युनिस्ट विचारधारा को अपनाकर आपने मुझे मेरे धर्म से हि दूर कर दिया, यदि आपने मुझे उसी प्रकार धार्मिक ज्ञान दिया जैसा शाजिया को उसके माँ बाप ने दिया था तो आज मै अपने आपको इस हालात में नहीं पाती, पापा आपने ऐसा क्यों किया?
अब कम्युनिस्ट को काटो तो खून नहीं वाले हालात के दर्शन होने लगे, वह अपनी बेटी के प्रश्नों से लज्जा और शर्म से झुक गया। उसे आत्मग्लानी खाने लगी। उसे अब इस तथ्य का आभास हुआ कि "कम्युनिस्टों के चक्कर में आकर उसने अपनी बेटी और पूरे परिवार को शैतानी ताकतों के मध्य अकेला छोड़ दिया। कम्यनिस्ट विचारधारा के खोखले आदर्शो की आड़ में उसने अपनी बेटी को इस लायक़ भी नहीं बनाया कि वो शाजिया और अब्दुल जैसे शैतानी ताकतों का मुकबला कर सके।
आज वो कम्युनिस्ट पूर्णतया टूट चुका था। कम्युनिजम का भूत उसके सिर से उतर चुका था, उसे अपनी बेटी की शिकायत में सच्चाई दिखाई दे रही थी। आज उसे इस बात का एहसास हो रहा था कि कैसे उसने इस वाहियात विचारधारा को अपना लिया और कैसे उसने अपना ५५ वर्ष का जीवन इस खोखली और निकृष्ट विचारधारा को समर्पित कर दिया।
और इसका अंत इतना भयावह हुआ कि " अब्दुल को भेजे गये फोटो, मिडिल इस्ट के देशों से सोशल मीडिया पर वायरल कर दिये गये ना केवल प्राइवेट अपितु सरकारी संस्थानों के वेबसाईटो पर भी और फिर न्यूज़ चैनलो के माध्यम से कम्युनिस्ट कि बेटी के पास पहुंच जाती हैँ, शेष आप पढ़ चुके है।
तन्द्रा भंग होती है, तो कम्युनिस्ट को शोर सुनाई देता है और जब वह दौड़कर अपनी पत्नी के साथ बाहर आता है तो उसका घर आग के हवाले किया गया मिलता है। कम्युनिस्ट बाप को अपने कम्युनिस्ट विचारधारा से बेटी की बदनामी, उसकी लाश और अपना जलता आशियाना मिलता है।
आखिर शैतानों ने कम्युनिस्ट की बेटी को दोजख की आग में जला डाला और उसका कम्युनिस्ट पिता अपने कम्युनिज्म के लाश को ढोता अभी भी जी रहा है, या फिर कम्युनिज्म को प्यारा हो गया।
निष्कर्ष:- ये केवल इसलिए हो गया, क्योंकि उन्होंने मदरसों की तामिल की और हमने गुरुकुल पूर्णतया बंद कर दिये। हम सनातनियों को अपने बच्चों को अपने धर्म से जोड़ कर रखना चाहिए, उन्हें तर्कवादी, गतिशील तथा विज्ञानवादी के साथ साथ। धर्मवादी भी बनाना चाहिए।
"धर्मों रक्षति रक्षित:
लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)