हे मित्रों कैसे हैं आप लोग, आप तो जानते हैं कि हमारे एक मित्र हैं जो जनम से ब्राह्मण पर कर्म से वामपंथी हैं। आज एक बार पुन: मेरे आवास पर आ बिराजे और वामपन्थ के एक और झूठ को हथियार बना मुझसे शास्रार्थ करने कि ठान ली।
उन्होंने प्रणाम नमस्ते के पश्चात तुरंत बोल उठे और उन्होंने कहा कि अरे तुम भारतीय तो सांप बिच्छु का खेल देखने दिखाने वाले हो, मुग़ल और अंग्रेज आए तो तुम्हें पढना लिखना सिखाया।
मैंने उत्तर दिया, हे मित्र सुनो जब इस्लाम और अंग्रेजो के मुल्क का जन्म भी नहीं हुआ था, तब हमारे यंहा चार वेद, १८ पुराण और १०० से ज्यादा उपनिषद, सम्पूर्ण रामायण, मनुस्मृति, महाभारत, श्रीमद भगवत् गीता इत्यादि पवित्र पुस्तके देव वाणी संस्कृत में लिखी जा चुकी थी और उई सभी गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार पढ़ाये जा रहे थे।
जब मुगलो , पुर्तगालीयो, अंग्रेजो और यूरोप के अन्य देशों में विद्यालय या स्कूल के बारे में चर्चा तक नहीं होती थी, उस समय हमारे देश का हर गांव एक गुरुकुल से जुड़ा था। नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे उच्चतम कोटि के विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे, जिनकी ख्याति पूरे विश्व में थी। ह्वेनसांग, मेगस्थनीज, ईत्सींग और फाह्यान इत्यादि जैसे यात्री और छात्र भारत पढ़ने के लिए हि आए थे। अलबेरुनी भी भारतीय धर्म ग्रंथो और विज्ञान, गणित, समाज और अर्थ शास्त्र से जुड़ा ज्ञान प्राप्त करने भारत आया था।
तुम्हारे मुग़ल मे बाबर से लेकर औरंगजेब तक कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था केवल दारा शिकोह (शाहजंहा का सबसे बड़ा पुत्र) को छोड़कर, रही बात अंग्रेजो कि तो मित्रों उनसे बड़ा अल्प ज्ञानी तो कोई था नहीं। जब हमारे वाल्मीकि, व्यास, विदुर, अगस्त्य, कणाद, कपिल, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट, पाणिनि, बुद्धायन, सुश्रुत, कालिदास, चाणक्य तथा चवन इत्यादि जैसे महान वैज्ञानिक दार्शनिक, वैज्ञानिक, कवी और साहित्यकार तथा अर्थशास्त्री अपनी प्रतिभा से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशमय और ज्ञानमय कर रहे थे, तब पूरा अरब और यूरोप छीना झपटी, लुटमार और हत्या में मस्त था, वंहा गेलिलियो को जेल में डाला जा रहा था और सुकरात को ज़हर पिलाया जा रहा था, विज्ञान कि बात करने वाली महिलाओ को पत्थर से मार कर खत्म किया जा रहा था।
अब वामपंथी मित्र के माथे पर बल पड़ने लगा था, फिर भी अपनी हैकड़ी दिखाते हुए, उन्होंने फिर आरोप लगते हुए एक और झूठ परोसते हुए बोला, अरे काहे का गुरु शिष्य परम्परा, जिसमें एक गुरु अपने शिष्य से भेदभाव करते हुए उससे उसके अंगूठा दक्षिणा में माँग लेता है क्योंकि वो एक शूद्र है।
मैंने उत्तर दिया, हे मित्र ये ज्ञान भी तुम्हारा आधा अधूरा हि नहीं अपितु पूर्णतया मिथ्या प्रवन्चना और अनर्गल प्रलाप है, सच क्या है सुनो। इस विषय वस्तु का विश्लेषण हम निम्न तीन बिन्दुओ के अंतर्गत करते हैं: -
१:- एकलव्य और गुरु द्रोण कि सामाजिक स्थिति;
२:- गुरु द्रोण का एकलव्य को शिक्षा देने से इंकार तथा
३:- गुरु दक्षिणा के रूप में अंगूठे की माँग।
१:- एकलव्य और गुरु द्रोण की सामाजिक स्थिति: -
एकलव्य:- हे मित्रों तुम्हारा प्रथम भरम है कि एकलव्य शूद्र पुत्र था। तो आओ तुम्हें यदुवंशी क्षत्रिय एकलव्य कि सच्चाई से अवगत कराते हैं ।महाभारत के मुताबिक वह निषादराज हिरण्यधानु का दत्तक पुत्र था-
ततो निषादराजस्य हिरण्यधानुष: सुत: एकलव्य:
(महाभारत आदिपर्व अध्याय १३१ श्लोक ३१)
इसी प्रकार ब्रह्मपुराण अध्याय १४ और श्लोक २७ के अनुसार
निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं श्रुतदेव त्वजायत।
श्रुतदेवात्मजास्ते तु नैषादिर्यः परिश्रुतः॥
एकलव्यो मुनिश्रेष्ठा निषादैः परिवर्द्धितः।
और हरिवंश पुराण के हरिवन्शपर्व अध्याय ३४ श्लोक ३१ में भी एकलव्य के बारे में स्पष्ट बताया गया है कि
निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं देवश्रवा व्यजायत।
देवश्रवाः प्रजातस्तु नैषादिर्यः प्रतिश्रुतः।
एकलव्यो महाराज निषादैः परिवर्धितः॥
अर्थात वह यदुवंशी देवश्रवा (श्रुतदेव) का पुत्र था। उसे लोकसंहारक गतिविधियों और कंस का पक्षधर होने के कारण श्री कृष्ण के सलाह से ही उसे निषादराज हिरण्यधनु को सौप दिया गया था और एकलव्य कंस के श्वसुर जरासन्ध आदि के दल में सम्मिलित हो गया। अब ये निषादराज हिरण्यधनु प्रयागराज (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश के श्रृंगवेरपुर नामक क्षेत्र विशेष पर राज करते थे तथा तत्कालीन मगध नरेश जरासंध के सेनापति भी थे।इस प्रकार इससे स्पष्ट होता है कि, एकलव्य अर्थात शत्रुघ्न एक अत्यंत गौरवशाली और राजपरिवार से संबंध रखता था। उसकी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा थी। एकलव्य सर्व सुख सुविधा सम्पन्न था। एकलव्य को किसी भी प्रकार का कोई अभाव नहीं था।
द्रोणाचार्य :-
द्रोणाचार्य के पिता एक महान ऋषि भारद्वाज थे तथा घृतार्ची नामक अप्सरा उनकी माता थी। द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। भविष्य में द्रुपद राजा बने और धन धान्य से पूर्ण हो गए। बचपन कि दोस्ती ठीक उसी प्रकार थी जैसे श्री कृष्णा और सुदामा की।
इसके पश्चात परशुराम के शिष्य बन कर द्रोणाचार्य अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ, जिसका नाम अश्वत्थामा है। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी।
द्रोणाचार्य अत्यंत गरीब अवस्था में जीवन यापन करने को विवश थे, यंहा तक कि उनके उनके पुत्र को पिलाने के लिए दूध खरीद सके इतनी भी आर्थिक स्थिति नहीं थी। उनका कुटुंब अत्यंत हि निर्धन अवस्था में जीवन यापन कर रहे थे। अत: वह अपने मित्र द्रुपद के राज्य में कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त करने हेतु पहुंचे। जब द्रोणाचार्य अपने पूर्व सहपाठी राजा द्रुपद के पास गए तो द्रुपद ने उनका अपमान करते हुए कहा –
न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा।
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्।
तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः॥
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय – १४१, श्लोक – ०९-११)
द्रुपद ने कहा – जो निर्धन है, वह भूमिपति का मित्र नहीं होता। मूर्ख व्यक्ति विद्वान् का, नपुंसक व्यक्ति वीर का सखा नहीं होता, फिर हम दोनों में पूर्वकाल में कैसे मित्रता सम्भव हो सकती है ? जिनका आर्थिक स्तर एवं प्रसिद्धि समान होती है, उनके मध्य ही वैवाहिक सम्बन्ध अथवा मित्रता होती है, असमानों में नहीं। जो वेदज्ञ नहीं है, उसका वेदज्ञ से, जो रथी नहीं है, उसका रथी से, जो राजा नहीं है, उसका राजा से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध नहीं होता है। फिर हम दोनों में कैसी मित्रता ?
अपने बाल सखा द्वारा इस प्रकार अपमानित किये जाने पर द्रोणाचार्य अत्यंत दुःखी हो गए, उन्हें अपने मित्र से ऐसे क्रूर व्यवहार की आशा ना थी। वो इतने शक्तिशाली थे की यदि वो तनिक भी इच्छा रखते तो द्रुपद को उसके राज समेत उखाड़ फेकते परन्तु उन्होंने अपने मानव धर्म का पालन किया और अपमान का कडवा घूंट पीकर वंहा से शांत भाव से चलें गए।
इसके पश्चात कुछ घटनाक्रम से प्रभावित होकर पितामह भीष्म ने गुरु द्रोण को हस्तिनापुर के राजकुमारो को शिक्षित करने हेतु गुरुपद से विभूषित कर दिया और तब जाकर गुरु द्रोणाचार्य का निर्धनता ने पीछा छोड़ा।
तो अगर हम सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर तुलनात्मक विश्लेषण करें तो एकलव्य की स्थिति गुरु द्रोण से कंही अधिक सुदृढ़ और मजबूत थी। एकलव्य समाज में अति उच्च स्थान पर विराजमान था।
२:- गुरु द्रोणाचार्य का एकलव्य को शिष्य बनाने से इंकार:-
द्रोणाचार्य जैसे चारों वेदो के ज्ञाता, क्या एकलव्य को केवल निशाद्पुत्र मानकर अपना शिष्य बनाने से इंकार कर सकते थे, ये संभव हि नहीं है, परन्तु सच को दूषित करके प्रचारित किया गया है और अनवरत किया जा रहा है।
सच:- एक बार पुलक मुनि ने एकलव्य को अत्यंत हि तन्मयता से धनुर्विद्या का अभ्यास करते हुए देखा तो अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने निषादराज से एकलव्य कि प्रशन्शा करते हुए उसे किसी योग्य गुरु से शिक्षा प्रदान कराने का सुझाव दिया। पुलक मुनि के विचार जानकर निषादराज प्रसन्न होकर बोले- हे मुनि श्रेष्ठ वे महान गुरु कौन हैं एवम् कहाँ निवास करते हैं!" कृपया बताने कि कृपा करें।
निषादराज की अधीरता देख मुनि बोले -"हे राजन अधीर होने की आवश्यकता नही है! वे गुरु इस समय हस्तनापुर में हैं तथा कुरु राजकुमारों को विद्यादान दे रहे हैं !" निषादराज एकलव्य को एक महान धनुर्धर कैसे बनाये इस पर विचार करने लगे और तुरंत उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य से एकलव्य के लिए प्रार्थना करने की ठानी
द्रोण आश्रम में अपने शिष्यों को धनुर्विद्या का अभ्यास करा रहे थे! तभी निषाद राज ने एकलव्य को लेकर आश्रम में प्रवेश किया! द्रोण कुछ समझ पाते इससे पहले ही वे उनके चरणों में बैठ गये तथा निवेदन करने लगे- " हे गुरू श्रेष्ठ मैं अपने पुत्र के लिए आपसे विद्यादान मांगता हूँ! कृपा कर मुझे कृतार्थ करें!"
द्रोण ने निषादराज को उठाया तथा उनके कंधे सहलाते हुए बोले -" हे राजन मैं आपके पुत्र को विद्यादान अवश्य देता परन्तु इस समय मैं कुरू वंश का राजगुरु नियुक्त किया हूँ इसलिए मैं कुरु राजकुमारों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अपने आश्रम में शिक्षा प्रदान नही कर सकता! अत: हे राजन मैं आपसे छमा चाहता हूँ आप अपने पुत्र को किसी अन्य गुरु के पास ले जाइए!" ये सत्य था क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य कुरु वंश के राजकुमारो को हि शिक्षित और दीक्षित करने के लिए वचनबद्ध थे।अत: दिए गए वचन को निभाने के लिए वो एकलव्य को अपना शिष्य नहीं बना सकते थे। (ये पहला कारण था)
नसतं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।
शिष्यं धानुषधार्मज्ञ: तेषामेवान्ववक्षया’ (आदिपर्व 131.32)
मित्रों जैसा कि हम सब यह जानते हैं कि हस्तिनापुर के राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए ही गुरु द्रोणाचार्य को विशेष नियुक्ति मिली थी अत: वो तन, मन और ज्ञान से पूर्णतया हस्तिनापुर को समर्पित थे।
जबकि एकलव्य जरासन्ध के पक्ष का था क्योंकि उसके पिता ज़रासन्ध कि सेना के सेनापति थे। उस समय विश्व में शक्ति के तीन हि धाम थे:-१- हस्तिनापुर, २:- मगध तथा ३:-प्राग्ज्योतिषपुर!
मगध पर महापराक्रमी जरासंध का राज था और प्राग्ज्योतिषपुर पर नरकासुर का साम्राज्य था। ये दोनों अत्यंत निरंकुश और हस्तिनापुर तथा द्वारिका के शत्रु थे। जरासंध और नरकासुर में गाढ़ी मित्रता थी। इसी के साथ आपको बताते चलें की मथुरा नरेश कंस (जो श्रीकृष्ण का मामा था) मगध नरेश जरासंध का दामाद था यही नहीं गुरु द्रोणाचार्य को अपमानित करने वाला द्रुपद भी जरासंध का मित्र था। और एकलव्य स्वय धनुर्विद्या में पारंगत होकर जरासंध की सेवा करना चाहता था। अत: स्पष्ट है कि हस्तिनापुर के शत्रुओ और स्वय के शत्रु द्रुपद के सहयोगी निषादराज के पालक पुत्र एकलव्य को अपना शिष्य बनाकर वो शत्रु का कैसे साथ दे सकते थे। (दूसरा कारण)
महाभारत, आदिपर्व, अध्याय – १४२, श्लोक – ४०-४१
ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः।
एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह॥
न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।
शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया॥
निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास गया किन्तु धर्मज्ञ द्रोणाचार्य ने उसे निषादपुत्र समझकर धनुर्विद्या नहीं दी।
अब यंहा इन श्लोको पर तनिक ध्यान देने की अवश्यक्ता है कि आखिर द्रोणाचार्य के लिए धर्मज्ञ शब्द क्यों आया है, और साथ ही समझकर, ऐसा संकेत क्यों दिया गया है?
प्रश्न ये है कि क्या समझकर धर्मज्ञ गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य बनाने से मना कर दिया ? निषादपुत्र समझकर, नहीं ये सत्य नहीं है, द्रोणाचार्य जानते थे कि एकलव्य निषादपुत्र तो है नहीं, यह तो मथुरा के राजवंश का क्षत्रिय है, जिसे असामाजिक गतिविधियों के कारण निकाल दिया गया और निषादराज को सौप दिया गया, ऐसा समझकर, और उसके पूर्व चरित्र को जानकर, धर्म का विचार करके हि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य बनाने मना कर दिया।(तीसरा कारण)!
३:- गुरु दक्षिणा के रूप में अंगूठे की माँग:-
धनुर्वेदे गुरुर्विप्र: प्रोक्तो वर्णद्वयस्य च।
युद्धाधिकारः शूद्रस्य स्वयं व्यापादिशिक्षया॥
युद्धकला को सीखने के लिए मात्र प्रतिभाशाली ही होना आवश्यक नहीं है अपितु पवित्र उद्देश्य, धैर्य, लोकोपकार की भावना, आदि भी आवश्यक है। यह सभी गुण अर्जुन में थे, इसीलिए उन्हें स्वर्ग से भी निमंत्रण मिला। साथ ही शिवजी की कृपा से अनेकों दुर्लभ दिव्यास्त्र मिले।
एकलव्य में प्रतिभा तो थी किन्तु सद्भावना नहीं थी। वो धनुर्विद्या में प्रवीणता प्रपात कर जरासंध और नरकासुर जैसे निरंकुश और अधर्मी राजाओं का साथ देना चाहता था। उसे अच्छी प्रकार ज्ञात था कि नरकासुर ने हजारों राजाओं की पुत्रियों को बलपूर्वक विवाह हेतु बन्दी बना रखा था तो उन हज़ारों राजाओं को तामसी यज्ञ में नरबलि देने हेतु जरासन्ध ने बन्दी बना रखा था। नरकासुर की बाणासुर एवं कंस से मित्रता थी और जरासन्ध का दामाद कंस था। साथ ही कंस बाणासुर का मित्र भी था। तो इस प्रकार जरासन्ध एवं नरकासुर में भी मित्रता थी। जरासन्ध के साथ पांचालनरेश द्रुपद एवं मत्स्यनरेश विराट भी थे। अब एकलव्य जरासन्ध का सहयोगी था अत: वो मानवता के शत्रुओ के साथ था। और धनुर्विद्या प्राप्त कर उस निरंकुशता, अत्याचार, दुराचार और व्याभिचार रूपी अधर्म का ही साथ देना चाहता था।
गुरु द्रोण द्वारा मना कर देने पर निषाद राज ने उदास मन से एकलव्य देखा और द्रोण को प्रणाम कर आश्रम से बाहर की ओर जाने लगे! परन्तु एकलव्य ने तो मन हि मन गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु स्वीकार कर लिया था, अत: वो निषादराज के कहने पर भी उनके साथ वापस नहीं लौटा।एकलव्य निराश नहीं हुआ। इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई-
कृत्वा द्रोणं महीमयम् (आदिपर्व अध्याय १३१ श्लोक ३३) और उसी प्रतिमा में गुरु द्रोण के साक्षात् दर्शन कर उनकी देखरेख में या निर्देशन में धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और अभ्यास करते-करते अपनी विद्या का परम विशेषज्ञ हो गया।
एक बार जब कुरु वंश के राजकुमार आखेट के लिए वन की और प्रस्थान किया तो अपने साथ एक स्वान भी ले गए। वाह स्वान वन में गमन करते हुए उस स्थान पर पहुंच गया जंहा एकलव्य अपना अभ्यास कर रहा था। स्वान ने एकलव्य को देख भौकना शुरू कर दिया और फिर अभ्यास में विघ्न पड़ता देख एकलव्य ने उस स्वान को नुकसान पहुंचाये बगैर अपने साथ बाण से उसके मुख को बंद कर दिया। जब राजकुमारो ने इस प्रकार कि विद्या देखी तो वो एकलव्य के पास पहुंचे और जब एकलव्य ने स्वय को गुरु द्रोण का शिष्य बताया तो वे सब आश्चर्य में पड़ गए।
जब अर्जुन ने दुःखी ह्रदय से ये समाचार गुरु द्रोणाचार्य को सुनाया तो उन्हें सहसा विश्वास हि नहीं हुआ। वे राजकुमारो के साथ अभ्यास स्थल पर पहुंचे। और जब एकलव्य ने उनको विश्वास दिलाने के लिए उनकी मूर्ति दिखाई और यह प्रकट किया कि इसे हि गुरु मानकर उसने धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल की है, तो धर्मज्ञ द्रोणाचार्य भी आश्चर्य में पड़ गए परन्तु धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने एकलव्य से कहा :-
यदि शिष्योऽसि मे वीर वेतनं दीयतां मम।।
(महाभारत आदिपर्व १३१/ ५४)
यानी हे वीर, अगर मेरे शिष्य हो तो मेरा वेतन भी दो। एकलव्य के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उसे उस गुरु ने अपना शिष्य मान लिया था जिसने कभी उसे शिष्यत्व देने से इनकार कर दिया था, पर जिसकी मिट्टी की मूर्ति को गुरु धारण कर उसने सारी विद्या सीखी थी। गुरुदक्षिणा का नाम सुन एकलव्य प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आप स्वयं इसके लिए आज्ञा दे
तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति।।
(महाभारत आदिपर्व १३१/५६)
आचार्य द्रोण एकलब्य से गुरुदक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया।एकलब्य आचार्य द्रोण की इस वचन सुनकर भी बिना बिचलित हुए प्रसन्नचित हो कर अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काट कर द्रोणाचार्य को समर्पित किया ।
तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः।
छित्त्वाऽविचार्य तं प्रादाद्द्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः
(महाभारत आदिपर्व १३१/५८)
यहाँ भी दो विशेषता है एक तो एकलब्य स्वयं इस प्रकार के दारुणवचन सुनकर भी विचलित नही हुए और प्रसन्नचित हो गुरुदक्षिणा देकर अपनी गुरुभक्ति भी सिद्ध की । गुरु द्रोणाचार्य अत्यंत धर्मज्ञ थे उन्होंने स्वय तो अपने शिष्य से अंगूठा मांगने वाला विष का प्याला पी लिया, परन्तु वो अपने शिष्य के साथ अन्याय नहीं कर सकते थे अत: उन्होंने संकेत से एकलव्य को कहा: -
ततः शरं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत।
न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।।
(महाभारत आदिपर्व १३१/५९)
गुरुद्रोणाचार्य ने संकेत में ही एकलब्य को यह विद्या प्रदान की जिससे वे तर्जनी और मध्यमा अंगुली से किस प्रकार वाणों का संघान करना चाहिए और अपने दृढ निश्चय से एकलव्य ने इस विधि से धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल कर ली। अब सोचने और समझने वाली बात ये है कि यदि गुरुद्रोणाचार्य की दृष्टि में एकलब्य के प्रति द्वेष अथवा हेय भाव होता तो वे उन्हें ऐसी विद्या क्यो प्रदान की होती ?अतः द्रोणाचार्य ने लोक को उसके प्रकोप से बचाने के लिए उसके अंगूठे को मांग लिया और उसकी प्रतिभा पूर्णतया समाप्त न हो जाए, इसके लिए उसे बिना अंगूठे के ही तर्जनी एवं मध्यमा के सहयोग से तीर चलाने की विधि बता दी थी, जिसका प्रयोग आजतक ओलम्पिक आदि में भी होता है।
एकलव्य के बारे में सम्मान व्यक्त करते हुए क्या कहा गया है :-
महाभारत द्रोण पर्व अध्याय १८१ श्लोक १९
एकलव्यं हि साण्गुष्ठम्षक्ता देव दानवाः।
स राक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित्।।‘‘
भगवान् श्री कृष्णा अर्जुन से कहते हैं "हे पार्थ! यदि एकलव्य अंगुष्ठ सहित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग - ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे जीत नहीं सकते थे।‘‘
अगले हि श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण एकलव्य का गुणगान करते हुए कहते हैं: -
जरासंधष्चेदिराजो नैषदिष्च महाबलः।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानीं स्युर्भयंकराः।।‘‘
अर्थात् ‘‘हे अर्जुन! जरासंध, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये सब पहले ही न मारे गये होते तो इस समय बहुत भयंकर सिद्ध होते।‘‘ ध्यातव्य है कि जब श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह बात कही तब तक महाभारत युद्ध छिड़ चुका था। अर्थात् अंगूठाविहीन एकलव्य भी खतरा था।
इसी प्रकार जब युधिष्ठिर इस भूमण्डल का सम्राट बनने की इच्छा से राजसूय यज्ञ करना चाहते थे तो भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्न बात कही –
क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत।
दुर्योधनं शान्तनवं द्रोणं द्रौणायनिं कृपम्॥
कर्णं च शिशुपालं च रुक्मिणं च धनुर्धरम्।
एकलव्यं द्रुमं श्वेतं शैब्यं शकुनिमेव च॥
एतानजित्वा सङ्ग्रामे कथं शक्नोषि तं क्रतुम्।
तथैते गौरवेणैव न योत्स्यन्ति नराधिपाः॥
एकस्तत्र बलोन्मत्तः कर्णो वैकर्तनो वृषा।
योत्स्यते स परामर्षी दिव्यास्त्रबलगर्वितः॥
न तु शक्यं जरासन्धे जीवमाने महाबल।
राजसूयस्त्वयाऽवाप्तुमेषा राजन्मतिर्मम॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – १४ श्लोक – ६८-७२)
अर्थात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – हे भरतवंशी युधिष्ठिर ! यदि आप पृथ्वी पर सम्राट बनना चाहते हैं तो दुर्योधन, शान्तनुपुत्र भीष्म, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, धनुर्धर रुक्मी, एकलव्य, द्रुम, विराटपुत्र श्वेत, शैब्य, शकुनि आदि को बिना जीते ही राजसूय यज्ञ कैसे कर सकते हैं ? हम मानते हैं कि (भीष्म, द्रोण, कृप आदि) आपके प्रति स्नेह और सम्मान का भाव रखने से आपसे युद्ध नहीं करेंगे किन्तु आपसे ईर्ष्या करने वाला कर्ण तो अपने दिव्यास्त्र के बल पर अभिमान करने के कारण आपसे युद्ध करेगा ही। यदि वह भी युद्ध न करे तो भी जरासन्ध के जीवित रहते आप यह राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते, ऐसा मैं समझता हूँ। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने एकलव्य को वीरों की श्रेणी में अति सम्माननीय बताया है।
इतना ही नहीं, जब राजसूय यज्ञ के समय किसकी अग्रपूजा हो, इस संशय में माद्रीतनय सहदेव ने कहा कि निश्चय ही, अग्रपूजा के अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, तो शिशुपाल ने वहां सभा में उपस्थित अन्य गणमान्य लोगों के नाम भी निम्न प्रकार से गिनाए थे:-
भीष्मकं च महावीर्यं दन्तवक्त्रं च भूमिपम्।
भगदत्तं यूपकेतुं जयत्सेनं च मागधम्॥
विराटद्रुपदौ चोभौ शकुनिं च बहद्बलम्।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पाण्ड्यं श्वेतमथोत्तमम्॥
शङ्खं च सुमहाभागं वृषसेनं च मानिनम्।
एकलव्यं च विक्रान्तं कालिङ्गं च महारथम्॥
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंसति केशवम्।
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय – ६७, श्लोक – १९-२२)
अर्थात श्री कृष्ण के परम विरोधी शिशुपाल ने कहा – (रुक्मिणी के पिता) अत्यंत पराक्रमी भीष्मक, राजा दन्तवक्त्र, कामरूप के स्वामी भगदत्त, यूपकेतु, मगध के वीर जयत्सेन, विराट एवं द्रुपद ये दोनों, गान्धारनरेश शकुनि, बृहद्बल/ बहद्वल, अवन्ती के विन्द एवं अनुविन्द, पाण्ड्य के राजा, उत्तम आचरण वाले श्वेत, महाभाग शङ्ख, स्वाभिमानी वृषसेन, पराक्रमी एकलव्य, महारथी कलिंगनरेश, इन सभी महाबलशालियों को छोड़कर तुम केशव की प्रशंसा क्यों करते हो ? अर्थात इतने महावीरो और महारथियों के साथ एकलव्य का नाम लिया जा रहा था।
अत: यह कहना की शुद्पुत्र् होने के कारण उसे शिष्य नहीं बनाया और वो अत्यंत निपुण धनुर्धर था अत: उसके प्रति द्वेश भावना के कारण उसका दाहिना हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में माँग लिया, बिलकुल मिथ्या प्रवन्चना है। असल में एकलव्य एक महारथी, राजपुत्र और सामाजिक रूप से अत्यंत प्रतिष्ठित था।
निष्कर्ष:-
एकलव्य में प्रतिभा तो थी किन्तु सद्भावना नहीं थी। आज भी बहुत से कुशाग्र बुद्धि वाले डॉक्टर, इंजीनियर, वकील एवं वैज्ञानिक अपनी दुर्भावना के कारण आतंकवादी बन जा रहे हैं, हावर्ड यूनिवर्सिटी के पढ़े लिखें अर्थशास्त्री देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और देशद्रोही बन गए, बड़े से बड़े पदों पर बैठे लोग असमाजिक आचरण कर रहे हैं तो क्या उनकी प्रतिभा के कारण उनका सम्मान किया जाएगा ?यदि चीन या पाकिस्तान का कोई ऐसा व्यक्ति, जिसका अतीत संसार के प्रति आतंकवाद का हो, यहां आए तो भारत का कोई सैन्य प्रशिक्षक उसे प्रशिक्षण दे सकता है क्या ?
एकलव्य अपनी प्रतिभा का प्रयोग संसार को कष्ट देने के लिए करता था, साथ ही आसुरी शक्तियों के साथ उसकी मित्रता थी, अतएव द्रोणाचार्य ने उसे शस्त्र की अतिरिक्त शिक्षा नहीं दी थी। द्रोणाचार्य के मन में एकलव्य के प्रति कोई निजी दुर्भावना नहीं थी। द्रोणाचार्य अत्यन्त उदार थे, उन्होंने इस घटना के बाद, स्वयं को मारने के लिए उत्पन्न द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न को स्वयं ही शस्त्र की शिक्षा दी थी, क्योंकि उससे शेष संसार को कोई कष्ट नहीं था।
हे वामपन्थियों सुनो प्रभु श्री राम के समय निषादराज गुहा की भूमिका से हम सभी सुपरिचित हैं कि कैसे उन्होंने प्रभु श्रीराम कर साथ मित्रता निभाई और एक बार प्रभु श्री राम के पक्ष में उनके अनुज भरत से युद्ध करने का मन बना लिया था, पर जब भरत के बारे में वास्तविकता मालूम पड़ी तो उन्होंने उनका पूर्ण साथ दिया।महाराज शान्तनु की पत्नी सत्यवती के पिता दाश भी हमें निषादराज हि थे। अत: एकलव्य और गुरु द्रोणाचार्य का प्रसंग गुरु और शिष्य के महानतम प्रसंगो में से एक है, जिसे प्रमुखता से उदेश्य के रूप में उपयोग में लाया जाता है।
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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