मित्रों मैं एक सनातनी हूँ कल अंग्रेजी वर्ष २०२२ का अंतिम दिन था और अचानक मार्क्स को अपना पिता, लेनिन को अपना मार्गदर्शक और माओ को अपना सगा मानकर उनका गुणगान करने वाला एक वामपंथी मित्र मुझसे टकरा गये। वो स्वय जन्म से ब्राह्मण है पर कर्म उनके कैसे हैं उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रश्नों से हि आप पता लगे।
१:-
वामपंथी ने मुझसे कहा तुम्हारे यंहा मनुस्मृति नामक एक पुस्तक है जो मानवता के विरुद्ध है।
मैंने उत्तर दिया:- हे वामपंथी सुनो! मनुस्मृति मानव समाज को व्यवस्थित और सदाचारी बनाने का एक दर्पण है। वो असभ्य दो पैर वाले जीवो को सभ्यता की ओर अग्रसित करने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
२:-
वामपंथी:- आप एक तथ्य की जानकारी दे जो मनुस्मृति को मानव समाज के लिए हितकारी साबित करें।
मैंने उत्तर दिया:- हे वामपंथी ! सुनो
आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः । ।1/108
अर्थात:- सदाचार हि परम धर्म है। वेदों में कहा हुआ और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचारः आचरण है परमः धर्मः वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है (तस्मात्) इसीलिए आत्मवान् द्विजः आत्मोन्नति चाहने वाले द्विज को चाहिए कि वह (अस्मिन्) इस श्रेष्ठाचरण में (सदा नित्यं युक्तः स्यात् )सदा निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।‘‘कहने सुनने – सुनाने, पढ़ने – पढ़ाने का फल यह है कि जो वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना । इसलिये धर्माचार में सदा युक्त रहे ।’’ ये मनुस्मृति हि सिखलाति है।
३:-
वामपंथी ने पुन: प्रश्न किया:- मनुस्मृति तो सनातनियों को जातियों में बांटती है और शूद्रों के साथ भेदभाव करती है।
मैंने उत्तर दिया :- हे वामपंथी! सुनो
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः ।
मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् । ।1/87
इस सारे संसार का कार्य चलाने के हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण शरीर के चार भाग मुख, वाहु, उरु और पाँव के अनुसार बनाये। और चारों वर्णों के काम पृथक्-पृथक् निर्धारित किये।इस श्लोक के द्वारा मनुस्मृति स्पष्ट करती है की ब्रह्मा के शरीर को समाज मानकर "मानव समाज" की सम्पूर्ण व्यवस्था को चार वर्ण में विभाजित किया गया, जो शरीर के अंगों के कर्म से जुड़े थे, जो निम्न प्रकार है:-
मुख:- से ब्राह्मण के उत्पत्ति का अर्थ:- हे वामपंथी सुनो शरीर में मुख हि वो अंग है जो बोलने या वार्तालाप में भाग लेने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् । ।1/88
अत: मुख को केंद्र बनाकर मानव समाज के जो मनुष्य
वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना, इन छह कर्मो में युक्त थे उन्हें ब्राह्मण वर्ण में रखा गया।
वाहु: - से क्षत्रिय की उत्पत्ति का अर्थ:- मानव समाज में जो मनुष्य अपने अपने समाज कि रक्षा करने और दुष्टो तथा शत्रुओ से युद्ध करने के लिए तैयार रहते थे, उन्हें क्षत्रिय वर्ण में रखा गया। यंहा हमारे शरीर में जो "वाहु" नामक २अङ् हैं वो शरीर की रक्षा करने और शारीरिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अन्य सभी प्रकार के कार्य करते हैं जिससे शरीर के सभी अंगों की बराबर देखभाल कर सके अत: क्षत्रिय को वाहु से जोड़ा गया।
प्रजानां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च ।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः । ।1/89
दुसरे और आसान शब्दों में " न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, विद्या-धर्म के प्रवर्तन और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, और विषयों में न फंसकर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, ये संक्षेप से क्षत्रिय के कर्म आदिष्ट किये"
उरु:- उरु से वैश्य की उत्पति का अर्थ है कि जिस प्रकार मानव शरीर का उरु या पेट भोजन को संग्रहित कर उसे पकाता है पचाता है और उससे उतपन्न ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में परीसन्चरित कर देता है, ठीक उसी प्रकार वैश्य वर्ण के अंतर्गत आने वाले मनुष्य भी अपने देश या राष्ट्र या समाज के लिए करते हैं
पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च ।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च । ।1/90
चौपायों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती (कृषि) करना, ये सात कर्म वैश्यों के लिये नियत किये हैं।
पैर: - पैर से शूद्र की उत्पत्ति का अर्थ है कि जिस प्रकार पैर सम्पूर्ण मनुष्य शरीर को आधार प्रदान करता है, वैसे हि जो मनुष्य हर वर्ण को अपना सहयोग दे सकते हैं और उन्हें किसी ना किसी प्रकार अपना सहयोग प्रदान करते हैं, उन्हें शूद्र वर्ण में रखा गया।
एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् ।
एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया । ।1/91
इस श्लोक के द्वारा उन सभी व्यक्तियों के बारे में बात कि जा रही है, जिनकी इच्छा ना तो वेदो को पढ़ाने में, ना युद्ध इत्यादि में भाग लेने में और ना व्यापार में होती है परन्तु यदि उन्हें आधार प्रदान किया जाए और कार्य सौपा जाए तो वो पढ़ाने, रक्षा करने और व्यापार करने में अपना अमूल्य सहयोग दे सकते हैं, ऐसे मनुष्यों को शूद्र वर्ण में रखा गया।
मैंने पुन: स्पष्ट किया कि हे वामपंथी! ये सभी वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित है, किसी व्यक्ति के जन्म से संबंधित नहीं है। मैंने वामपंथी को उदाहरण दिया संत रविदास तुम्हारे अनुसार निम्न कुल में पैदा हुए थे परन्तु वो अपने कर्म से संत शिरोमणि बन गए और मीराबाई (जो कि एक क्षत्रिय कुल में जन्मी थी) उनकी शिष्या बनी और उन्हें अपना गुरु माना। इसी प्रकार वाल्मीकि समुदाय के वाल्मीकि अपने कर्म से भगवान् वाल्मीकि के पद को प्राप्त किये और महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र जैसे महान तपस्वीयों के रहते भी उन्हें प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र् को लेख बद्ध करने का शुभ कार्य प्राप्त हुआ। इसी प्रकार महाराणा प्रताप ने भील प्रजाति की सहायता से युद्ध करके मुगलो के दांत खट्टे किये।
४:-
अब वामपंथी ने अपने तरकश में से एक और बाण निकाला और पूछा तुम्हारे मनुस्मृति का सम्बन्ध विज्ञान से नहीं है वो अवैज्ञानिक है।
मैंने उत्तर दिया :- हे वामपंथी! सुनो
सृष्टि के उत्पत्ति के संदर्भ में सर्वप्रथम प्रकटिकरण वेदो के द्वारा किया गया। ऋग्वेद के १०वे मंडल के १२९ वे सूत्र के अंतर्गत श्लोक १से ७ में सृष्टि के उत्पत्ति के संदर्भ में विधिवत प्रकटिकरण किया गया है। और मनुस्मृति भी मार्क्सवाद या लेनिनवाद या माओवाद से हजारों वर्ष पूर्व हि इस विज्ञान के विषय को समझा दिया था।
आसीदिदं तमोभूतं अप्रज्ञातं अलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यं अविज्ञेयं प्रसुप्तं इव सर्वतः । ।1/5
यह सब जगत् सृष्टि के पहले प्रलय काल में अन्धकार (प्रकृति) से आवृत आच्छादित था। उस समय यह न किसी से जानने योग्य, न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त, न तर्क में लाने योग्य और न इन्द्रियों से जानने योग्य था। एवं, यह सर्वत्र गाढ़ निद्रित सा प्रलीन था।
ततः स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् ।
महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः । ।1/6
इसके पश्चात् अयक्त और अचिन्त्य शक्ति रंग वाले और अन्धकार का नाश करने वाले परमेश्वर ने महत्वपूर्ण तत्त्व आकाश वायु आदि साकल्पिक अर्थात् माँ-बाप के बिना उत्पन्न होने वाले लोगों को पैदा किया।
उद्बबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम् ।
मनसश्चाप्यहंकारं अभिमन्तारं ईश्वरम् । ।1/14
फिर ब्रह्म ने परमात्मा से संकल्प-विकल्प रूप मन को उत्पन्न किया, और मन से सामथ्र्य और अभिमान करने वाले अहंकार को बनाया।
महान्तं एव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च ।
विषयाणां ग्रहीतॄणि शनैः पञ्चेन्द्रियाणि च । ।1/15
और अहंकार से पहले आत्मा का उपकार करने वाले महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि को पैदा किया, तथा विषय को, भोग करने वाले-पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय एवं तन्मात्रा को बनाया।
तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान्षण्णां अप्यमितौजसाम् ।संनिवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे । ।1/16
और इन बड़े शक्तिमानों के सूक्ष्म अवयवों को अपने विकार में मिलाकर समस्त सृष्टि को बनाया। प्रकृति और परमात्मा के सम्बन्ध से सब तन्मात्रा अहंकार इन्द्रिय पैदा हुए हैं, अर्थात् परमात्मा और प्रकृति के योग से पैदा हुए हैं।जब परमात्मा ने प्रकृति को संचालित किया, तब वस्तुओं के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से आकाश उत्पन्न हुआ, क्योंकि इसके बिना आकाश नहीं हो सकता। जब आकाश हुआ तब उसमें वायु संचालित हुई। वायु के संचालन के कारण अग्नि परमाणु एकत्रित हो गये। अग्नि-परमाणुओं के एकत्रित होने से जल-परमाणुओं के मध्य की रूकावट दूर हुई। जल-परमाणुओं के एकत्रित होने से पृथ्वी के परमाणु एकत्रित हो गए, इसी प्रकार सृष्टि की रचना हुई।
अब यंहा पर हमारे वामपंथी मित्र थोड़े से बेचैन हो गए, क्योंकि उनके ह्रदय में मनुस्मृति के विरुद्ध रचाई और बसाई गई तीन महत्वपूर्ण भ्रान्तियो को नीव जड़ दे हिल गई और वो कुछ और जिज्ञासाओ के साथ पुन: शास्त्रार्थ में भाग लेने का वचन देकर चलें गए।
खैर मित्रों मनुस्मृति कओ अत्यधिक अपमानित किया और बदनाम किया गया है और हम सनातनियों का यह कर्तव्य है कि हम इसको उचित सम्मान और समुचित स्थान दिलाये।
🌹🌸🌻जय श्रीराम प्रेम से बोलो राधे राधे हर हर महादेव 🙏🌼🌷🌺🕉️