भगवान शंकर के स्वरूप में इतनी विचित्रता क्यों है ?
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥
भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार श्रीराधा ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘प्रभो ! भगवान शंकर के बारे में मेरे कुछ संदेह हैं, जिनका निवारण आप कीजिए । इनका उत्तर जानने की मेरे मन में बहुत अधिक इच्छा जाग उठी है।’
श्रीराधा ने भगवान श्रीकृष्ण से शंकर जी के बारे में क्या प्रश्न किए और भगवान श्रीकृष्ण ने उनका क्या उत्तर दिया ? इसी की चर्चा इस ब्लॉग में की गई है ।
प्रश्न : भगवान शंकर पंचमुख और त्रिलोचन क्यों कहलाते हैं ?
उत्तर : भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—भगवान शंकर ने साठ हजार युगों तक तप करके मेरा ध्यान किया । तब उन्होंने मुझे अपने सामने खड़ा देखा । मेरे अत्यंत कमनीय अंग, किशोर अवस्था और श्यामसुन्दर रूप को देखकर उनके नेत्र तृप्त न हो सके । भक्ति के अतिरेक में वे रोने लगे । उन्होंने सोचा—सहस्त्रमुख शेषनाग तथा चतुर्मुख ब्रह्मा बड़े भाग्यवान हैं, जिन्होंने बहुत से नेत्रों से मेरे मनोहर रूप का दर्शन करके अनेक मुखों से मेरी स्तुति की है । मैं दो ही नेत्रों से इनके रूप को क्या देखूं व एक ही मुख से इनकी क्या स्तुति करुं ? इस बात को उन्होंने चार बार दोहराया ।
तपस्वी शंकर के इस प्रकार मन-ही-मन संकल्प करने से उनके चार और मुख प्रकट हो गए और एक मुख पहले से ही था । इस प्रकार वह ‘पंचमुख’ हो गए । उनका एक-एक मुख तीन-तीन नेत्रों से सुशोभित होने लगा और वे ‘त्रिलोचन’ कहलाए । शंकर जी को स्तुति करने की अपेक्षा मेरे रूप के दर्शन करने में अधिक प्रेम है; इसलिए उनके नेत्र ही अधिक प्रकट हुए ।
भगवान शंकर अपने पांच मुखों द्वारा मीठी तान के साथ सदा मेरा ही गुणगान किया करते हैं और निरतंर मेरे ही स्वरूप का ध्यान करते हैं । अत: शंकर जी से बढ़ कर मेरा कोई भक्त नहीं है ।
प्रश्न : भगवान शंकर का तीसरा नेत्र किस बात का प्रतीक है ?
उत्तर : रुद्र रूप भगवान शंकर के ललाट में स्थित तीसरे नेत्र से संहारकाल में क्रोध के कारण ‘संवर्तक अग्नि’ प्रकट होती है । यह अग्नि करोड़ों ताड़ों के वृक्ष के समान ऊंची, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवान और विशाल लपटों से युक्त होती है । यह अग्नि अपनी जीभ लपलपाते हुए त्रिलोकी को दग्ध करने में समर्थ है; इसलिए भगवान शंकर का तीसरा नेत्र विनाशकारी माना जाता है ।
प्रश्न : भगवान शंकर अपने सारे अंगों में विभूति क्यों लगाते हैं व मुण्डमाला क्यों धारण करते हैं ?
उत्तर : दक्ष-यज्ञ के विध्वंस के बाद भगवान शंकर सती के शव को छाती से लगा कर पूरे एक साल तक घूमते हुए रुदन करते रहे । सती का एक-एक अंग जहां-जहां गिरा, वहां सिद्धपीठ हो गया । सती के अवशिष्ट शव को छाती से लगा कर शंकर जी मूर्च्छित हो गए और सिद्ध क्षेत्र में गिर पड़े । तब मैंने उन्हें शोक को दूर करने वाले परम तत्त्व का उपदेश किया । तब संतुष्ट होकर वे अपने लोक को चले गए । सती के प्रति प्रेम के कारण ही वे उनकी हड्डियों की माला धारण करते हैं और दाह-संस्कारजनित भस्म अपने अंगों में मलते हैं; इसलिए ‘विभूतिधारी’ कहे जाते हैं ।
प्रश्न : भगवान शंकर दिगम्बर और जटाधारी क्यों हैं ? उन्हें मस्तक पर रत्नमय मुकुट की जगह जटा ही क्यों प्रिय है ?
उत्तर : भगवान शंकर से बड़ा कोई योगी नहीं है । वे योगस्थ होने के कारण दिगम्बर हैं । उनमें इच्छा का पूर्णत: अभाव है । उनके सिर पर जो जटाएं हैं, वे तपस्या-काल की हैं, जिन्हें वे आज भी धारण करते हैं । योगी को केशों को संवारने और शरीर को वेशभूषा से विभूषित करने की इच्छा नहीं होती है । उनका चंदन और कीचड़ में तथा मिट्टी के ढेले और मणि व रत्नों में समान भाव होता है ।
प्रश्न : वे सर्पों से विभूषित क्यों होते हैं ?
उत्तर : गरुड़ से द्वेष रखने वाले सर्प भगवान शंकर की शरण में गए । उन शरणागतों की रक्षा के लिए वे उन पर कृपा करके उन्हें अपने शरीर पर धारण करते हैं ।
प्रश्न : भगवान शंकर अच्छे वाहन छोड़कर वृषभ पर ही क्यों भ्रमण करते हैं ?
उत्तर : उनका वृषभ वाहन तो मैं स्वयं हूँ । दूसरा कोई भी उनका भार वहन करने में समर्थ नहीं है । पूर्वकाल में त्रिपुर वध के समय मेरे कलांश से उस वृषभ की उत्पत्ति हुई थी ।
प्रश्न : दिव्य वस्त्र छोड़कर भगवान शंकर व्याघ्रचर्म क्यों पहनते हैं ? वे रत्नाभूषण क्यों नहीं धारण करते हैं ?
उत्तर : एक बार भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ कैलास पर बैठे थे । तभी वहां महिषासुर का पुत्र गजासुर ब्रह्मा के वरदान से निर्भीक होकर गणों को त्रास देता हुआ भगवान शंकर के समीप चला आया । उसे ब्रह्माजी का वरदान था कि कामदेव के वश में होने वाले किसी से भी उसकी मृत्यु नहीं हो सकेगी । किंतु भगवान शंकर तो कामदेव के दर्प का नाश करने वाले ‘कन्दर्पदलन’ हैं । अत: उन्होंने गजासुर को त्रिशूल पर टांगकर आकाश में लटका दिया । तब उसने वहीं से भगवान शंकर की स्तुति की । शंकर जी के प्रसन्न होने पर गजासुर ने उनसे प्रार्थना की–’हे दिगम्बर ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे शरीर के चर्म से अपना वस्त्र बना लें । यह चर्म हमेशा कोमल बना रहे, कभी मलीन न हो और इससे उत्तम गन्ध निकलती रहे । इसे धारण कर आप ‘कृत्तिवास’ बन जाएं ।’
गजासुर का चर्म स्वत: ही उसके शरीर से पृथक् हो गया । शिव जी ने प्रसन्न होकर उसे अपने शरीर पर धारण कर लिया ।
प्रश्न : भगवान शंकर पारिजात तथा सुगंधित पुष्पों व चंदन, अगरु, कस्तूरी को छोड़कर धतूरे का पुष्प, बिल्वपत्र और बिल्व की लकड़ी के लेपन को क्यों पसंद करते हैं ?
उत्तर : पारिजात आदि पुष्प तथा चंदन आदि सुगंधित पदार्थ भगवान शंकर मुझको अर्पित कर चुके हैं; इसलिए उनमें उनकी कभी प्रीति नहीं होती है । धतूरा, बिल्वपत्र, बिल्व-काष्ठ के चंदन का लेप, गंधहीन पुष्प योगियों को प्रिय हैं ।
प्रश्न : दिव्य लोक छोड़कर उन्हें श्मशान में रहना क्यों पसंद है ?
उत्तर : दिव्य लोक में, दिव्य शय्या में और जन समुदाय में उनका मन नहीं लगता है; इसलिए वे अत्यंत एकान्त श्मशान में रह कर दिन-रात मेरा ध्यान किया करते रहते हैं । केवल मेरे इस अनिर्वचनीय रूप में ही उनका मन निरंतर लगा रहता है; इसलिए भगवान शंकर मेरे परम आत्मा हैं और प्राणों से भी बढ़ कर हैं । मैं गोलोक और वैकुण्ठ में नहीं रहता । तुम्हारे वक्ष में भी वास नहीं करता । मैं तो सदाशिव के प्रेमपाश में बंध कर उन्हीं के हृदय में निरन्तर निवास करता हूँ—
न संवसामि गोलोके वैकुण्ठे तव वक्षसि।
सदाशिवस्य हृदये निवद्ध: प्रेमपाशत:।।