कुर्सी से चिपके कबाड़ बनते नेताओं पर कटाक्ष करती कविता
@@@@@@@@@-कबाड़ नेता -@@@@@@@@@
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काली अंधेरी एक रात को ,देखा एक भयानक सपना |
बता कर मैं उसे आपको ,साँझा कर रहा हूँ दुःख मैं अपना ||
अच्छा ख़ासा मैं आदमी ,बन गया मैं सपने में कबाड़ |
पत्नी ने पुकारा जब कबाड़ी को ,तो चीख पड़ा मैं बुका फाड़ ||
पत्नी तब जगा कर बोली ,क्या हुआ मेरे भरतार |
मैं बोल नहीं पाया सदमे में ,तो पूछने लगी वो बारम्बार ||
सर्दी के मौसम में भी ,मैं पसीने से तरबतर था |
अपने कबाड़ बन जाने का ,दिल में समाया डर था ||
उस दिन से मैंने ये ठाना,उपयोगी रहना सदा-सदा |
उस दिन से मैं कामों के ,बोझ से रहता हूँ लदा-लदा ||
घर की सफाई करता हूँ मैं ,और पत्नी को चाय पिलाता हूँ |
हालांकि मैं भरतार हूँ उसका ,पर भर्त्य की याद दिलाता हूँ ||
यदा कदा मैं अपनी बीवी के ,चरण कमल भी दबाता हूँ |
और मैं हूँ अब भी उपयोगी प्राणी ,मैं हर तरह उसे जतलाता हूँ ||
काश हम कबाड़ नेताओं को, पुनः चक्रित कर पातें |
या फिर उन्हें निर्यात कर ,कबाड़ से हम मुक्ति पातें ||
राज सेवक रिटायर्ड हो जाता ,साठ साल का हो जाने पर |
पर राज नेता नहीं होता ,पचहतर पार हो जाने पर ||
पचहतर पार के नेताओं को ,जनता अब रिजेक्ट करें |
और देश की बूढाती धमनियों में ,युवा खून इजेक्ट करें||