एक पत्नी -पीड़ित पति की व्यथा को व्यक्त करता हास्य गीत -
@@@@@ मैंने पाली जब से एक बीमारी रे @@@@@
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मुझे चढ़ी रहती खुमारी ,मेरा दिल रहता है भारी |
मैं भूल गया हेकड़ी सारी ,मैंने खायी ऐसी चोट करारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||
बड़-बड़ बोले मुझ पति से, और चले गिरगिटिया चाल |
जली - भूनी रहती मुझसे ,और फुलाए रहती गाल ||
मैं तो बंदा था ब्रह्मचारी ,जब से आयी जीवन में नारी |
छीन गयी आजादी मेरी सारी ,रग-रग में भरी चिन्गारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||
लिपा -पोती करे चेहरे की ,और जेब की खींचे खाल |
फरमाइश पूरी न करूं तो ,लाल कर दे गाल ||
मैं तो बंदा हूँ संस्कारी ,पड़ गयी बला मुझ पर भारी |
अकड़ दूर हो गयी सारी ,मेरी आजादी पर चली कटारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||
आँख तरेर कर वो देखे तो ,पसीना मेरा छूटे |
फटकारे मुझे जब कभी तो ,रुलाई मेरी फूटे ||
मैं आदमी था सरकारी ,मेरी बुध्दि गयी थी मारी |
मेरी सेहत गिर गयी सारी,विष छोड़ गयी हत्यारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||
डगमग -डगमग झोले खाती ,चले वो हथनी सी चाल |
हिरण और भेंस में बोलो ,कैसे मिलती ताल ||
मैं तो बंदा हूँ नियमधारी ,जब से आयी जीवन में नारी |
हेकड़ी दूर हो गयी सारी ,मेरी उसने अकड़ उतारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||
समझ उसकी शैतान जैसी ,क्या करूँ मैं बात ?
करवट बदलते बीत जाती है ,लम्बी काली रात ||
मैं आदमी हूँ संस्कारी ,छूटती दर्द भरी सिसकारी |
उसकी चलती थानेदारी ,और मैं एक अदना सा अधिकारी रे |
मैंने पाली जब से एक बीमारी रे ||