सभी गृहिणियों को सदर समर्पित कविता -- "गृहिणी"
********************************************************
गृहिणी जो घर को सम्भालती है,
गृहिणी जो सबको पालती है,
गृहिणी जो अपनी इच्छाओं को टालती है ,
गृहिणी जो खुद को नये परिवार के साँचे में ढालती है |
वो उठती है सुबह सबसे पहले ,
पर सोती है रात को सबके बाद |
घोर गर्मी में जब परिजन ,
कूलर की ठण्डी हवा का ले रहे होते हैं आनन्द |
तब वो उमस भरी गर्मी में बना रही होती है भोजन ||
सर्दियों में सुबह की ठिठुराती ठण्ड में,
जब सोये होते हैं सभी परिजन ओढकर गर्म रजाई |
तब वो जुट जाती है करने को सफाई ||
वो देती है सबको बिस्तरों में गर्मागर्म चाय ,कॉफ़ी या दूध |
और नहीं होने देती वो किसी का कोई काम अवरूध्द |
घर की सीमित आय से चलाती है वो घर की गाड़ी|
बच्चों के लिए लाती है नये कपड़े,पर खुद पहनती है पुरानी साड़ी||
धन के प्रबंधन का दिखाती है वो कमाल|
और खाती है खुद बची रोटी और दाल ||
रखती है संतुलन आय और व्यय में |
देती है हिम्मत दुःख और भय में ||
करती है पुरी परिजनों की फरमाइशे |
और भूल जाती है ख़ुद अपनी ही ख्वाहिशें||
छुट्टी के दिन भी उसकी नहीं होती छुट्टी |
बल्कि करनी पड़ती है उस दिन तो उसको दुगनी ड्यूटी||
बनाती है वो छुट्टी के दिन , सब के पंसदीदा पकवान |
करती है वो पति - सेवा, कर्त्तव्य अपना मान ||
निभाती है निष्ठा से अपना पूरा रोल |
फिर भी नहीं सुन पाती वो ,प्रंशसा के मीठे बोल ||
अलसभोर से देर रात तक,वो करती घर के काम |
नहीं कर पाती वो कभी, जी भर के आराम ||
नहीं आंकी कभी किसी ने , उसके काम की कीमत|
नहीं उठाई कभी किसी ने , उसे सराहने की जहमत ||
बल्कि निकाल दी जाती है ,उसके काम में कोई न कोई खामी |
पति की हर बात मानने को भरती है वो हामी ||
दाल में पड़गया हो नमक कुछ ज्यादा ,
या रह गयी हो सब्जी अलूणी|
तो बता देता है पति उसे औरत अगुणी ||
नहीं सोचता है वो कि वो भी एक इन्सान है |
भूल हो ही जाती कभी - कभी हर इन्सान से ,
क्योंकि भूल करना इन्सानी फितरत है |
गृहिणी मशीन तो है नही है ना ?
इसलिए उसमे भी हैं भावनाएं ,संवेदनाएं और कामनाएँ |
वह भी चाहती है कि कोई उसे सराहे,
और स्वीकारे उसके वजूद को |
समर्पित कर देती है जो पति को ,
अपना कौमार्य और अपनी पहचान |
उस गृहिणीको मिलना चाहिए ,
सबसे प्यार और सम्मान ||
झूठ नहीं है यह कथन किसी का ,
की हर सफल व्यक्ति के पीछे
होता है हाथ एक नारी का ||
प्रसव -पीड़ा झेल कर जो चलाती है सृष्टि का चक्कर |
देती संस्कार संतति को प्रथम गुरु बनकर ||
गर्भ में पलता शिशु उसके तन के खून से |
जन्मोपरांत पालती है उसे वो ,अपने आँचल के दूध से||
फिर बनाती है उसे आदमी से इन्सान |
गृहिणीके तप से हम क्यों है अनजान ||
उचित नहीं है उसके काम को ,
धन के तराजू से तौलना
नहीं वाजिब है उसके त्याग को ,
मजबूरी उसकी बोलना ||
वह तो सराहना और सम्मान की सच्ची हकदार है |
गृहस्थ जीवन की वही तो सूत्रधार है ||
आओ हम करें उसका उचित मान -सम्मान|
और रखें उसकी भावनाओं का सदा पूरा ध्यान ||