पाखण्ड की पोल खोलती कविता -
@@@@@@@@@ प्रसाद @@@@@@@@@
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अरब पति एक उच्च अधिकारी ,करते थे दावा ऐसा |
नहीं लेते कभी हाथ में , वे रिश्वत का पैसा ||
महल जैसा था बंगला उनका ,और थी लग्जरी गाड़ियाँ |
उनकी पत्नी हर हफ्ते , लाती थी महंगी साड़ियाँ ||
फार्म हाउस था उनका अपना ,था बीस एकड़ में फैला |
पत्नी को वे बंगले में रखते ,और फार्म हाउस में लैला ||
नहीं थे वे राजवंश के ,और नहीं थे कोई नेता |
नहीं थे वे उद्योगपति भी ,और नहीं थे विधि वेता ||
नहीं थे वे जादूगर भी ,जो पैसा उनके घर बनता |
पर जादू से पैसा बनता तो ,मदारी दर -दर क्यों फिरता ||
इतना पैसा फिर कहाँ से आता ,नहीं समझ में जब आया |
विचार उनके घर जाने का ,दिमाग में मेरे तब आया ||
घर में उनके मंदिर था ऐसा ,नहीं देखा जीवन में जैसा |
दीवारों पर चाँदी का पतरा ,पर नहीं था कोई लूट का खतरा |
सोने से बनी मूर्त के ऊपर ,सोने का ही छत्र लगा था |
दान पेटी थी रखी पास में ,देख वैभव मैं रहा ठगा था ||
पहुँच गया मैं मंदिर के भीतर ,वो पूजा -पाठ में थे तल्लीन |
देखने लगा मैं हैरत से उनको ,जो लग रहे थे मिस्टर क्लीन ||
तभी एक ठेकेदार आया ,मूर्त को उसने शीश नवाया |
फिर मिठाई का बंद डिब्बा ,चरणों में मूर्त के चढ़ाया ||
बिना खोले उस डिब्बे को ,पत्नी उनकी ले गयी |
लौट कर उस ठेकेदार को ,एक बंद लिफाफा दे गयी ||
बिन बोले ही उस नारी ने ,भेद सारा खोल दिया |
घूस का एक पैसा भी ,नहीं छूता जिसका पिया||
जिसका काम अटका होता ,वे इस मंदिर में आते थे |
और पूजारी बने अधिकारी को ,मूंह मांगी भेंट चढाते थे||
अधिकारी की इस चाल को ,हैरत से रह गया मैं तकता |
मंदिर में चढ़े प्रसाद को , कोई घूस कैसे कह सकता ||
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