@@@@@@@@ जश्न निगोड़ी शादी का @@@@@@@@
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पूछा एक दिन किसी ने मुझको ,कि शादी में क्यों नहीं जाते हो ?
बराती बनने से आप सदा ,क्यों इतना घबराते हो ??
मैं बोला जश्न शादी का ,मुझे नहीं सुहाता है |
मौज करता जो पहले आदमी ,वो शादी कर पछताता है ||
फेरे हुए जब से मेरे ,फिर गयी मुझ से जिन्दगी |
करने लगा हूँ मैं साथियों ,अपनी बीवी की बन्दगी ||
नहीं भूल सकता मैं कभी ,शादी की वो शहीदी रात |
ले गया था मैं ख़ुशी से , बेंड- बाजे संग बरात ||
जब खुश होती है पत्नी ,कहती मुझसे एक ही बात |
नहीं भूल सकती मैं अपनी ,सुहाग की वो पहली रात ||
कैसे बताऊँ मैं साथियों ,सुहाग रात की सारी बात |
मूर्ख समझती हर मर्द को ,यह निगोड़ी औरत जात ||
नहीं मानूं यदि बात उसकी तो ,बात-बात में करती तकरार |
और निकल पड़ती उसके नैनों से ,आंसुओं की अविरल धार ||
निकल जाना पड़ता घर से ,हो रही हो चाहे भारी बरसात |
समझाया है कई बार उसको ,पर ढाक के रहे वो तीन ही पात ||
शादी करके जान गया मैं ,बीवी के समक्ष अपनी औकात |
नहीं सुहाते इसलिए मुझको ,बैंड -बाजा और बरात ||
आजादी का अनमोल मोती ,लुट गया सुहाग रात को |
नहीं समझ पाया कोई आदमी ,अबूझ औरत जात को ||
गवाह नहीं बनना चाहता मैं ,आजादी की बरबादी का |
इसलिए मैं अटेण्ड नहीं करता,जश्न निगोड़ी शादी का ||
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