एक नागा साधू ‘स्वामी मोरगानन्द जी‘, भारत भ्रमण कर जहां गंगा पूजा होती थी कुछ दिन ठहर कर गंगा की पूजा अर्चना कर गंगा किनारे ही रहते थे जहां शिव स्थान हो।
मेरी रूचि के अनुरूप जहां मैं जाता हूं ऐसे रहस्यमयी व्यक्ति या साधक मुझे मिल जाते है। मैं ‘फ़रूखाबाद‘ गंगा के किनारे नाव द्वारा अपने दो परिचित व्यक्तियों के साथ गंगा किनारे ‘स्वामी मोरगानन्द जी‘ के पास एक विचित्र मरकद स्टोन का शिवलिंग के दर्शन करने पहुंचा। महात्मा जी व्यस्त थे कोई बात नहीं हो सकी। दूसरे दिन उन्होंने ठीक 11 बजे से पूर्व मिलने को कहा। अतः हम चार लोग फिर उनकी गंगा किनारे सुनसान स्थल रेत पर बनी फूस की कुटिया पर पहुंचे। कुछ देरी हो जाने पर वह महात्मा जी अपनी पूजा की थाली फूलों से सजी पूजा सामग्री सहित पूजा के लिये चल पड़े। वैसे ही हम लोगों ने उन्हें रोकते हुये प्रणाम किया। वह बोले कि आप लोग कुछ देरी से आये, अतः आप यही खड़े इस शिवलिंग के दर्शन करें। वह शिविलिंग पूजा की थाली में गुलाब की पखुडिंयों पर रखा था। हम लोगों के साथ एक ‘फ़रूखाबाद‘ के प्रसिद्ध व्यापारी ‘श्री काजरिया जी‘ तथा डाॅक्टर थे। व्यापारी ने ज्यों उस विचित्र शिविलिंग को देखने के लिये हाथ बढ़ाया उन्हें महात्मा जी ने रोककर कहा कि आप तो आलू के व्यापारी है आप क्या जानें और पास में खड़े मुझसे बोले मास्टर जी (मैं शिक्षक था) आप दर्शन कीजिये।
मैंने साधू ‘स्वामी मोरगा नंद जी‘ से कहा कि मैं इस पूजा की सजी थाली में विराजमान शिवलिंग को छूकर देखना चाहता हूं। वह बोले कि हां आप अपना हाथ फैलायें और मेरे दोनों फैली हथेलियों पर गुलाब दल (पखुंडियों) को रखकर उस पर सुन्दर सफेद रंग का लगभग 8‘ ऊंचा सुडोल शिवलिंग रख दिया। मुझे उस समय जो आनन्द की अज्ञात अनुभूति हुई उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। फिर मैं पहली बार जीवन में गंगा की बंद कुटिया में गंगा के किनारे पूजा देखने उन महात्मा की अनुमति से चला गया। कुछ समय गंगा जी को दूध का अर्ध देता वह पूजन देखा। वह पूजा कई घंटे की होती है। अतः मैं उन महात्मा से आज्ञा लेकर चला आया। यह जीवन का विचित्र अनुभव था।
गंगा उपासक महात्मा स्वामी मोरगानन्द जी ने पूछने पर बताया था कि वह कभी हिमाचल की देवभूमि पर भी रहे थे, उनका परिवार है। वह दक्षिण भारत के हैं। किन्तु गृहस्थ आश्रम को त्यागकर उन्होंने सन्यास लेकर यह प्रण किया कि वह गंगा पूजा करेंगे। जहां शिव की प्राचीन स्थापना होती, वह वहां अपनी साधना करते हैं।
उस विचित्र पूजित शिवलिंग के सम्बन्ध में पूछने पर बताया कि एक बूढ़ी ब्राम्हण स्त्री अपने पति के पश्चात उस शिवलिंग की पूजा अर्चना करती थी। उसके स्वर्गवास के पश्चात कोई पूजा करने वाला परिवार में नहीं रहा। उसके घर में एक छोटा बागीचा था। वहां बंदर उस शिवलिंग को आलू या फल समझ कर खाने के लिये उठा ले गये। फिर इसे खाने की वस्तु न समझ कर पास की दीवार पर छोड़ गये। जब स्वामी जी घूमते फिरते फरूखाबाद नगर (उत्तर प्रदेश) पहुंचे और एकान्त में दूर गंगा किनारे कुटिया में रहने लगे वहां कोई भक्त आया और उसने उस शिवलिंग की कथा बताई।
स्वामी मोरगानन्द जी ने उसे लेकर पूजा अर्चना आरंभ कर उसे अपने आराध्य रूप में अपना लिया। हम लोगों को बताया कि उस सुनसान गंगा किनारे कई अपराधियों का मन उनके प्रवचन से परिवर्तित हो गया और अपराधी साधारण जीवन बीताने लगे। कई किलो दूध उस शिवलिंग पर चढ़ाने को गांव वाले स्वयं लाते है। गंगा पूजा के लिये भी समीप के गांव वाले श्रद्धापूर्वक दूध इत्यादि सामग्री जुटाते हैं और सेवा व श्रद्धा भाव से प्रवचन सुनकर चले जाते हैं । वह महात्मा बिना भय अकेले ही एकान्त में रात दिन रहते है। कभी कभार नगर में किसी भक्त से मिलने जाते है।
अन्यथा शमशान स्थल के पार गंगा किनारे वह अपनी साधना में रहते हैं। जो जिज्ञासु मिलना चाहते हैं वह नाव द्वारा पानी पार कर उनके दर्शन करते हैं।