मैं रेडियो शिमला के लिये ड्रामे वास्तुकला व मूर्ति शिल्प पर लिखता रहा। वहां के निदेशक श्री स्वामी ने मेरे द्वारा लिखित वार्ता परा-मनोविज्ञान पर प्रसारण के लिये पहली बार परामनोविज्ञान पर मेरी वार्ता रखी। जब निश्चित समय पर रिकाॅर्डिंग के लिये पहुंचा तो कुछ मिनट शेष थे। वह बोले मेरी जिज्ञासा है कि मैं कुछ उनके बारे में बताया।
मैंने उन्हें बताया कि कुछ घंटे पूर्व वह एक मीटिंग में दीवार के सहारे बैठे बहुत ज़ोर से किसी बात पर हंसी के ठहाके लगा रहे थे। जो उनके गंभीर स्वभाव से बिल्कुल भिन्न था। वह बोले बिल्कुल सच, ऐसा पहली बार हुआ। उस समय मैं अपने आवास पर आकाशवाणी शिमला में रिकार्डिंग के लिये वस्त्र पहन कर टाई बांध रहा था। मुझे उस समय याद आया आकाशवाणी के स्टूडियो में पहुंचने से पूर्व निदेशक पूछेंगे। मैंने अपना मन एकाग्र कर सोचा तो लगा कि सुबह 11 बजे मीटिंग में बैठे निदेशक जोर से हंस रहे थे। मैं ढाई बजे के करीब टाई बांध रहा था।
जो घट चुका है और घटने वाला है या किसी समय क्या घट रहा है वह परामनोविज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। मन के लिये समय काल पात्र स्थान की कोई सीमा नहीं है। मन सर्वव्यापी त्रिकाल दर्शी होता है। भूत, भविष्य अथवा वर्तमान अपनी साधना व क्षमता द्वारा जाना जा सकता है।
ऐसा शास्त्रों में भी कहा गया है। मन की शक्तियां अनन्त हैं। उस से व्यवहार में काम लेने के लिए नियंत्रण में होना आवश्यक है। जो अति कठिन है, दूसरी ओर अति सरल है। मेरा विश्वास और अनुभव है कि सरल सच्चे समदर्शी होने पर मनुष्य असम्भव लगने वाले भौतिक तथा अध्यात्मिक किसी प्रकार का कठिन लगने वाला कार्य भी कर सकता है। इसके लिये सुने या पढ़े गये, लिखित ज्ञान को करके भी अपनी मानसिक व शारीरिक सामथ्र्य के अनुसार कर्म करना चाहिये।
हम सब पढ़ते हैं, सुनते हैं, वेद पुराण, विज्ञान, धर्म नाना प्रकार असंख्य विषयों पर तर्क, भाषण, शास्त्रार्थ करते हैं। विदुता के लिये न जाने किस-किस गुरु विश्व विद्यालयों में जाते है। असीमित, धन, समय खर्च करते तथा पुरुषार्थ करते हैं ।
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में पूजा पाठ कर विभिन्न अवसरों पर अपने इष्ट से मांगते हैं। यह मौखिक या थ्योरी में होता है। प्रैक्टिकल या व्यवहार इससे परे होता है। मैं प्रायः कहता हूं और महसूस करता हूं कि जीवन रेलवे लाइन की भांति समानान्तर पटरी जैसा है। एक यदि दूसरी से समानान्तर योग नहीं देती तो गाड़ी या रेलवे के डिब्बे गिर जाएंगे, कोई दुर्घटना हो सकती है और चलाने वाला ड्राइवर कितना कुशल सतर्क है। इस पर जीवन यात्रा का दायित्व है। हम सभी जैसा मेरा विचार है, हो सकता है मैं आपकी नज़र में ग़लत हूं क्योंकि गलत और सही भी लोग अपनी सोच व कर्म के अनुसार उसके अर्थ लगा लेते है।
देखा जाये सामाजिक प्राणी होकर भी हमारा जीवन एकाकी है। हर व्यक्ति का शरीर मन, बुद्धि, रहन-सहन सोच शक्लो-सूरत बनावट सौ प्रतिशत दूसरे से नहीं मिलती। आदतेें भी एक जैसी लगती है पर थोड़ी भिन्न होती है। उदाहरण के लिये एक स्थान की मिट्टी निकालकर मूर्तिकार या कुम्हार मूर्ति या बर्तन बनाता है फिर जो पास में निकालेगा वह पहले से भिन्न दूसरे स्थान की होगी। वह नहीं होगी जो पहले थी। चिड़िया जानवर, वृक्ष सब एक जैसे लगते है। उनमें अंतर कर पाना कठिन है।