शिमला के इस पार्क में कैसे लगी हिमबाला शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी में 1963 में होली वाले दिन मैं हिमाचल राजकीय कला महाविद्यालय में प्राध्यापक के इंटरव्यू के लिये आया तो एक लखनऊ कला महाविद्यालय के छात्र स्टेशन पर मिल गये। वह लखनऊ कला विद्यालय में मेरी बनी मूर्तियों की फोटो लेने की आज्ञा मांगते थे। वह चित्र कला के विद्यार्थी थे किंतु फोटो खींचने का शौक था। हम एक दूसरे को देखकर चकित थे। वह भी चित्रकला के प्राध्यापक का उसी कला महाविद्यालय के लिये इंटरव्यू देने आये थे, जिसके लिए मैं प्रत्याशी था। हम दोनों एक होटल में ठहर गये। फिर शिमला मालरोड से रिज पर आये। वहां दौलत सिंह पार्क जो आशियाना रेस्टरां के पास है, उसे देखकर मैंने कहा- यहां मेरे द्वारा बनाई एक मूर्ति आने वाले समय में स्थापित होगी।
इंटरव्यू में हम दोनों सेलेक्ट हो गये। फिर लखनऊ वापस चले गये। नाहन कला महाविद्यालय ज्वाइन कर लिया। कुछ सालों बाद कला महाविद्यालय ही पूरा शिमला स्थानातंरित हो गया। तब तक मैंने शिमला नहीं देखा था। फिर हम दोनों रिज पर घूमने आये और मुझे याद आया 1968 का वह किस्सा कि ‘मेरे हाथ से बनी मूर्ति इस पार्क में लगेगी।‘
ठीक वैसा ही हुआ जैसा कि मैंने कहा था।
मेरी कला की एक कला प्रदर्शनी शिमला में लगी। हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डाॅ. वाईएस परमार को मेरी कला के बारे में पता लगा और मुझे उसी पार्क में मूर्ति लगाने को कहा गया। मैंने मूर्ति बनाई जो अब पूरे भारत और विश्व के सैलानियों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। उसे बनाते समय प्रसिद्ध श्री लाल चन्द प्रार्थी कला प्रेमी भाषा, कला व संस्कृति मंत्री कला कक्ष पर देखने आये। मानवाकार ‘हिम बाला’ मूर्ति खड़ी थी। जब उसका आवरण हटाया तो वह कला प्रेमी कुल्लू के रहने वाले मंत्री मंत्र मुग्ध हो गये। मेरे मुंह से निकल गया कि आप ही इसका उद्घाटन करेंगे।
कला कक्षा पर 1973 में पत्रकारों, अफसरों की उस मूर्ति को देखने के लिए भीड़ लगी रहती थी। मूर्ति बनाने से पहले मैंने शर्त रखी कि इसका उद्घाटन मेरे कहने पर उस दिन ही हो अन्यथा इसका उद्घाटन रूक जाएगा। मुझसे पूछे बिना इस मूर्ति का उद्घाटन न करें। मुख्य अधिकारी श्री चतुर्वेदी ने कहा ठीक है।
किन्तु 12 अगस्त 1973 को नगर पालिका के मुख्य अधिकारी व सम्बन्धी अधिकारी आये और मूर्ति का विलक्षण आकर्षण देखकर सहमति जताई कि जब मैं कहूंगा तब स्थापित करेंगे।
अगले दिन उनके कारिंदे व ट्रक लेकर आये कि मूर्ति स्थापना करने को ले जानी है। मुझे आश्चर्य हुआ। लेकिन मैंने मूर्ति दे दी। किन्तु कहा कि मेरे द्वारा कहे गये शब्दों के विपरीत उल्लंघन है। इस मर्ति का उद्घाटन रूक जायेगा।
15 अगस्त 1973 को हिमाचल के मुख्यमंत्री द्वारा उसके उद्घाटन की रूपरेखा व तैयारी आरंभ हो गई। मैंने कहा यह उद्घाटन नहीं होगा। पता चला कि प्रोग्राम रूक गया। मुख्यमंत्री ने किसी गांव में 15 अगस्त का ध्वज फहराया। मूर्ति लकड़ी के विशालकाय बाॅक्स में ढक दी गई। जितने मंत्रियों को उद्घाटन के लिये संपर्क किया, किसी न किसी कारण से कोई नहीं आया। श्री लाल चंद प्रार्थी कला प्रेमी मंत्री जो मेरे कला कक्ष पर आये थे उन्होंने भी व्यस्त होने के कारण मना कर दिया। फिर फोन द्वारा मुझसे क्षमा प्रार्थना कर उद्घाटन की तारीख पूछी। मैंने पहले तो मना कर दिया फिर काफी कहने के बाद राजी हुआ और प्रार्थी जी ने अपने सारे प्रोग्राम रद्द कर यह कहा कि वह खुश किस्मत हैं अगर मेरे द्वारा बनाई ‘हिम बाला’ नामक मूर्ति के उद्घाटन का सौभाग्य मिले। वैसा ही भारत में अभी तक ऐसे गाजे बाजे द्वारा मिठाईयों वाला उद्घाटन किसी मूर्ति का नहीं हुआ होगा। नगर निगम के अधिकारी इंजीनियर वैद्य जी ने अपने सहयोगियों के साथ मुझसे उस मूर्ति पर फिल्मी मधुबाला की मूर्ति के समान चुन्नी कपड़ा ढककर उद्घाटन की आज्ञा मुझसे मांगी, जैसा कि अनारकली फिल्म में है। इस जैसी मूर्ति को देखने और बाॅम्बे में बनवाने के लिए फिल्म अभिनेता मनोज कुमार का बेटा कई दिन शिमला में मेरी प्रतीक्षा कर बम्बई लौट गया। वह वैसी मूर्ति अपने लिए बनवाना चाहता था। मैं उस समय शिमला से बाहर उत्तर प्रदेश गया हुआ था। वह मूर्ति अनेक फिल्मों, दूरदर्शन, मीडिया और विश्व पर्यटकों के लिए आज भी आकर्षण का केंद्र है।
एक बाल ब्रम्हचारी साधु किसी धार्मिक सम्मेलन में शिमला के प्रसिद्ध कालीबाड़ी मंदिर आये। मेरी वही ‘हिमबाला’ मूर्ति देख मेरे निवास पर आये। मैं सरदार पटेल की मूर्ति कहीं के लिये बना रहा था। जब मैं उनसे बात कर रहा था तो मैंने उनके जीवन की जटिल समस्या बताई और पूछा कि आप दिल्ली में किसी ज्योतिषी से भी मिले। कला कक्ष में रखी मूर्ति को देखकर आप इसे खरीदने की सोच रहे थे और दूसरी देखकर आप को मीरा जैसा भाव उत्तर प्रदेश में एक वकील के घर उनको उनकी छोटी बेटी को देखकर लगा। वह दंग रह गये।
उनकी समस्या के लिए मैंने सांय 6 बजे का समय दिया और कहा कि 5 मिनट लेट हो जाने पर मैं नहीं मिलूंगा । वह पास में किसी भक्त के यहां ठहरे थे। वह अगले दिन आने में लेट हो गये। मैं अपने निवास से बाहर चला गया। रास्ते में मुझे लगा कि वही महात्मा सामने से आ रहे हैं। देखा तो वही महात्मा आ रहे थे। मैंने घड़ी दिखा दी बात नहीं की। वह कहने लगे कोई भक्त कहीं ले गया और मैं समय पर नहीं आया। अगले दिन मैं अपने विद्यालय लगभग 10 बजे प्रातः सोचते-सोचते पैदल चल रहा था। मुझे आभास हुआ कि वही महात्मा जी एक बैंच पर किसी के साथ बैठें हैं। जब पास से गुजरा तो मैंने उनसे केवल यह कहा कि काश्मीर जाने के लिये धन की व्यवस्था हो गई है। वह बात करना चाहते थे। मैंने मना कर दिया फिर कभी नहीं मिला।
यह पूर्वाभास, भविष्यवाणी और दूरदर्शन से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार घटना के लिये काल पात्र के स्थान की दूरी बाधा नहीं होती। क्योंकि मेरी विदेशों की अनेकों सत्य घटनायें हैं। जहां कभी न मैं गया न सुना न ही पहले कहीं पढ़ा- अतः कहीं से कोई संकेत मिलने की गुजाइश नहीं रहती है।
‘हिम बाला’ मूर्ति बनाने के बाद मैं रा़ित्र में कुछ सृजनात्मक कार्य में व्यस्त था। मुझे ऐसा आभास हुआ कि इस मूर्ति का चित्र प्रसिद्ध ‘धर्मयुग पत्रिका’ जो बम्बई से निकलती थी उसमें प्रकाशित होगा और मुझे बम्बई जाना पड़ेगा। जिसे मैंने कभी पहले ना देखा था या जानता था, केवल यह पढ़ा था कि वह फिल्मी दुनिया की माया नगरी है।
मैंने अपनी धर्मपत्नी से कहा कि कुछ लाइने लिख दो अपनी ओर से और मूर्ति के साथ ‘धर्मयुग पत्रिका’ को भेज दो। उन्होंने ऐसा ही किया यह घटना 1976 की है।
कुछ दिनों बाद एक बंद लिफाफे में पत्र आया... बिना मेरे नाम के.... केवल लिखा था दौलत सिंह पार्क के मूर्ति निर्माता, हिमाचल प्रदेश। यह पत्र कई दिन इधर-उधर घूमता रहा। पोस्टमैन ने सोचा कि मूर्ति बनाने वाला कोई शिमला कला महाविद्यालय में होगा। प्रधानाचार्य ने ईष्र्यावश यह कह कर कई बार लिफाफा लौटा दिया कि यहां इस तरह का कोई कलाकार नहीं है। पोस्टमैन उनके घर और कई जगह भटकता रहा। कुछ दिनों बाद समय समाप्ति के बाद वह फिर कला महाविद्यालय फागली स्थित पहुंचा। मैं धूप में बैठा विद्यार्थियों की उपस्थिति रजिस्टर पर कार्य कर रहा था। पास में एक अन्य प्रवक्ता और प्रधानाचार्य बैठे बातें कर रहे थे। वैसे ही मुझे आभासित हुआ कि उन्हें किसी महान संत की ओर से बम्बई जाने के लिये एक पत्र वाला लिफाफा आया है। मैं सोच ही रहा था कि प्रधानाचार्य ने कुछ कहते हुये वह बंद लिफाफा मेरे ऊपर उपस्थिति रजिस्टर पर पटक दिया। मैंने खोला तो बम्बई से आदरणीय श्री पंडित बाबलिया जी के जन्मोत्सव पर मुझे सपरिवार आमंत्रित किया गया था।
हिमाचल की शिमला में स्थापित मूर्ति के समान पानी पिलाने वाली मूर्ति बनवाने के लिये बुलाया गया था। मैं कुछ दिनों पश्चात मूर्ति बनाकर बम्बई मूर्ति स्थापित करने गया। बम्बई वीटी स्टेशन के पास एक पार्क में श्री बाबलिया पंडित जी की मूर्ति लगाने को स्थल तय हुआ। जिसे उस संस्था के बड़े सेठ ने अपने अधिकार में ले लिया और मुझे कहा गया वह उद्योगपति डालमिया से बड़े है। अतः मूर्ति उस पूर्व बताये स्थल पर स्थापित नहीं होगी। पहले निर्णय वाला स्थान बदल दिया गया है। मुझे लगा उस बनाई मूर्ति की अनुमति वार्ड अधिकारी द्वारा दे दी जायेगी। अवरोध सब हट गये मैं तुरन्त उनके कार्यालय में मिला। दोबारा फिर मूर्ति के उद्घाटन पर बुलाया गया।
भारत के सुप्रसिद्ध सेठ और बम्बई के अनेकों भक्तों में दस दिन एक घंटा रोज समय देकर उनके पूछे गये प्रश्नों का समाधान करता रहा। अंतिम दिन एक सेठ ग्वालियर से आये कुछ पूछना चाहते थे, मेरा समय समाप्त हो गया। बाहर उन सेठों के परिचित पूजा पाठ वाले पुजारी जी प्रति दिन देखकर कहते कि उसे भी मैं कुछ बताउं। उस दिन मैंने कहा बताउंगा, अभी मैं प्रत्यक्ष दिखाउंगा। देखो भीतर कमरे में बैठे एक सेठ अभी बाहर आकर कहेंगे कि वह अपना प्रश्न पूछने से रह गये। ठीक वैसे ही सेठ ग्वालियर वाले आये और विनम्र विनती की। मैंने कहा दिखने में आप लंबे चैड़े हैं किंतु डरपोक है, आप समाधान चाहते हैं । वह बोले हां। मैंने फिर कहा जब आप बम्बई के लिये ग्वालियर घर से चले थे तो आपका पैर एक कमरे में प़ड़ी चारपाई से टकराया और आपकी छोटी पांच साल की बेटी आप से कुछ फरमाइश करने लगी। यह सारा दृश्य उनके प्रश्न सहित सच निकला। मैं आज तक कभी ग्वालियर नहीं गया ना ही उन सेठ से परिचित था। वह सेठ ग्वालियर रेआन कपड़े फैक्ट्ररी के मालिक थे।
यह पूर्वाभास भविष्वाणी तथा जो बंधन भूत, भविष्य, वर्तमान में मानसिक रूप से पहुंचने के है। सशरीर दूर दिखाई देने की कई अदभुत घटनायें भी प्रभावित रूप से मेरे साथ घटी है।
ऋषिकेश के एक साधू नाहन हिमाचल प्रदेश में अपने गुरु भाई ठाकुर अजीब सिंह से नाहन मिलने आये। केवल तीन दिन वहां ठहरना था। किंतु ठाकुर अजीब सिंह आयु में काफी बड़े होकर भी सबको छोड़ कर मुझसे बातें किया करते थे। उन्होंने अपने गुरु भाई से मुझे मिलवाया। वह लगभग एक मास रूके। प्रतिदिन 12 बजे रात्रि तक शाम से लेकर घंटों अध्यात्मक और जीवन रहस्य की बातेेें होती थी। उनके गुरु के सम्बन्ध में हिमाचल में आने से पूर्व लखनऊ में 70 के दशक में मैंने सुना था कि वह सशरीर अपने भक्तों बिना गये ही दर्शन देते थे। मैंने ऋषिकेश की उनके गुरू संत की गुफा के साथ अन्य कई रोचक बातें बताई। वह मुझसे इस रहस्यमयी विद्या को सीखने का आग्रह करते रहे।