मैं लखनऊ राजकीय कला शिल्प महाविद्यालय में मनोचिकित्सक की नौकरी लखनऊ विश्वविद्यालय से छोड़कर उन परम आदरणीय गुरु श्री श्रीधर महापात्र, उड़ीसा के सूर्य मंदिर के रचनाकार परिवार से संबधित थे, परस्पर कला सीखने लगा। उस महाविद्यालय में शिक्षक बड़ा आदर करते थे। एक मेरे गुरु ने पूछा कि प्राचीन काल के उड़ीसा के राजा के राज्य में एक ऐसा निपुण मूर्तिकार था जिसे ही केवल सोने के बने बिछूये पैर की उंगलियों में पहनने की छूट थी। वह सिल्क, रेशम के कपड़े पहनता था। उस मूर्तिकार का व्यक्तित्व राजाओं जैसा था। उसने अपनी रचनात्मक कल्पना द्वारा एक ऐसी लोहे के अस्थि पिंजर वाली मूर्ति बनाई, जिसकी उंगली पकड़ कर वह अस्थिपिंजर मदिंर में निर्मित 84 सीढ़ियां उस मूर्ति के साथ ऐसे चढ़ता था, जैसे वह जीवित मानव है। मेरे गुरु जी उड़ीसा में पधुरिया मोहल्ले में रहते थे। उनके बाल्यकाल में फिर बाद में भी सुना कि वह राजसी मूर्ति कहीं जमींन में गाड़ दी गई। सब का अनुमान था कि वह मूर्ति पिंजर 1960 तक ज़मीन में कहां होगा, इसका किसी को पता नहीं था।
मुझे आभासित हुआ कि वह लोहे की चलित मूर्ति मेरे गुरु जी के घर के पास पृथ्वी में गड़ी है। जैसा उनका भी अनुमान था उससे मिलीजुली मेरी परिकल्पना थी।