मैं 1970 के दशक में विचित्र मन्दिरों तथा घाटों के स्वप्न देखता था। वैसे मंदिर को प्रत्यक्ष मैंने कभी नहीं देखा था। एक दिन बनारस विश्वविद्यालय के मूर्तिकला विभाग में मेरे पास टेलीग्राम आया कि मुझे बनारस विश्वविद्यालय के मूर्ति विभाग में मूर्तिकला का एग्जामिनर नियुक्त किया गया है। मैं दो दिन पश्चात वहां पहुंच जाउं, समय कम है। मेरे पास मित्र प्रो़ श्री दिनेश प्रताप सिंह मूर्तिकला विभाग के अध्यक्ष का कोई फोन नंबर, घर का पता या पत्र नहीं था। केवल यह पता था कि बनारस में भुदौलिया नाम का कोई स्थान है। मुझे लंका नामक बनारस विश्वविद्यालय के अतिथि ग्रह में ठहर कर अगले दिन परीक्षा लेनी है।
मैं टेलीग्राम के अनुसार रेल द्वारा एक दिन पहले शिमला से प्रातः बनारस पहुंचकर एक होटल में ठहर गया। मैं बनारस नगर से नितांत अपरिचित था। मैंने सोचा क्यों न श्री दिनेश प्रताप सिंह से उनके आवास पर मिलकर कुछ चर्चा की जाये। मैंने एक मानव चलित रिक्शा दिन भर के लिये किराये पर यह कह कर लिया कि मुझे एक मित्र के बिना पता जाने केवल मैं दिशा व रास्ता बताता रहूंगा वह चले। उसके पूरे दिन की जितनी कमाई होगी उससे कुछ रूपये अधिक दूंगा। रिक्शा वाला मुझे बैठाकर चल पड़ा।
मैंने होटल में सेवारत एक कामगार से केवल पूछा कि बनारस भुदौलिया कोई स्थान है। रिक्शे वाला कई घंटे अनुमान से भटकता मेरे बताये पूर्वाभास अनुसार बनारस की व्यस्त सड़कों से गुजरता पूछता रहा कि अब किधर चलू। मैं अंजान बनकर बताता रहा कि वह रिक्शा किधर मोड़े। बीच-बीच में रिक्शे वाला पूछता कि बाबू कितनी दूर और चलना है कि घर जाना हैं? गली मोहल्ला मकान नंबर क्या है? मैं क्या बताता, सब से अंजान था। अंत में मैंने अपने चिंतन द्वारा कहा कि बस आगे इतनी दूर बायें हाथ मोड़ लो, गली बंद होगी। वहीं तक चलना है।
रिक्शे वाला अपनी तय मजदूरी की शर्त पर चलते-चलते एक ऐसी गली में पहुंचा। जहां मेरे कला मित्र श्री दिनेश प्रताप सिंह जी बंद गली में दोनों हाथ उठाये घर के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। मैं सहर्ष चैंक कर बोला बस यहीं रिक्शा रोक दो। वह सामने मेरे परिचित मित्र जिस के पास जाना है, खड़े है। श्री दिनेश प्रताप सिंह जी भी अचंभित हो मिलकर बोले कि यहां कैसे पहुंच गये। ना तो मैंने टेलीग्राम का उतर दिया ना फोन ना आॅफिस को सूचना। मैंने घर में प्रवेश करने के बाद बताया कि आत्मिक मन की शक्ति द्वारा परा-मनोवैज्ञानिक आभास द्वारा संभव हो सका मैं अमुक होटल में ठहरा हूं।
हम दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा परिवार वाले सब चकित थे। मैंनेे शिमला में अपने स्वप्न के संबध में बताया। फिर दूसरे दिन बनारस के ऐसे रहस्यमयी स्थल मंदिर, घाट, अनेकों स्थल व रेशमी साड़ियों की वर्कशाॅप शोरूम देखे जो स्वयं संभव नहीं थे। श्री विश्वनाथ मंदिर के प्रसिद्ध पुजारी तथा अनेक रहस्यमय व्यक्ति व स्थलों के दर्शन किए। जीवन की अनोखी घटना आज भी स्मरण कर मुझेे रोमांच हो जाता है। आधुनिक विज्ञान यहां सक्षम नहीं है। बनारस के अस्सी घाट, हरीश चंद्र घाट- जहां तुलसीदास जी पुजारी रहे वह संकट मोचन मंदिर- मानस मंदिर इत्यादि अनेकों स्थल देखें- मुझे पुर्वाभास द्वारा मंदिरों के स्वप्न आते थे, वह सब सच निकला....।
कई महीनों से मुझे हिमाचल के एक प्रसिद्ध सिद्ध नयना देवी मंदिर का स्वप्न आता था। मैंने यह मन्दिर न देखा था ना ही इसके सम्बंध में सुना था। मैंने अपने एक मित्र से बताया तो उन्होंने स्वप्न के अनुरूप इस बिलासपुर स्थित ‘नयना देवी मंदिर’ से संबधित बताया। यह स्वप्न कुछ महीनों के अंतराल से प्रायः कई महीनों तक आता रहा। इस बीच शिमला में हिमाचल के सुप्रसिद्ध राज्यपाल के सलाहकार श्री पी. पी. श्रीवास्तव राज्यपाल की नियुक्ति न हो पाने तक यहां के राजभवन का कार्यभार देखते थे।
मेरी कला तथा मनोवैज्ञानिक सोच के कारण उनसे परिचय हो गया। उनके आॅफिस के पीए का फोन आया कि किसी आवश्यक मीटिंग में मुझे तीन बजे के लगभग हिमाचल के शिमला सचिवालय पहुंचना है। गाड़ी लेने आ जायेगी। मैंने मना कर कहा कि मैं स्वयं आ जाउंगा किन्तु किस विषय में मीटिंग है। पीए ने कहा- यह तो राज्यपाल महोद्य ही जाने....। मैं कुछ घंटों पश्चात शिमला के सरकारी सचिवालय पहुंचा तो देखा भीड़ लगी है। मिलने वाले लोग आ जा रहे हैं। पांच बजे शाम तक बैठने के पश्चात मैंने पीए से कहा कि मैं वापस जा रहा हूं। वह थोड़ी -थोड़ी देर में बैठने का आग्रह करते रहे। अंत में दो सचिव और एक मुख्यमंत्री श्री शांता कुमार जी के विशेष सचिव राज्यपाल के कमरे में जाते दिखाई दिये। मैं थका हुआ सा बोला कि अब और प्रतीक्षा करना मेरे लिये असंभव है। पीए महोदय बोले कि मीटिंग वाले सदस्य आप के लिये ही आये हैं अभी आपको अंदर जाना है।
कुछ समय बाद ही मुझे राज्यपाल द्वारा बुलाया गया। जैसे ही कक्ष में गया कि कार्यवाहक राज्यपाल महोदया श्री पीपी श्रीवास्तव जी बुलाये गए सचिव तथा निदेशक से बोले कि आप सब कलाकार प्रो. सक्सेना जी से मिले तथा इनके कला कक्ष में जाकर इनके द्वारा बनाई गई रहस्यमयी परा-मनोवैज्ञानिक कला कृतियां देखें।
इसके दो दिन बाद टीम शिमला से नयना देवी मंदिर के लिए गई। जिसमें कलाकारए फोटोग्राफर और निदेशक भाषा संस्कृति विभाग सीआरबी ललित भी शामिल थे। वहां उनसे कुछ सुझाव मंदिर के विकास के लिए मांगे गए। जिसमें स्वर्ण मंदिर की तरह दो अनुकृतियां बनाई जानी थी। साथ ही एक गेट भी बनाया जाना था। इसके लिए सभी अपने अपने सुझाव दे रहे थे लेकिन मेरा मन कहीं और था। मैंने कहा मैं तभी सुझाव दूंगा जब में मंदिर की परिक्रमा कर लूं और माता के दर्शन कर लूंण् इस पर मुझे मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने की इजाजत भी दी गई जबकि में न तो देवी का उपासक था और न ही साधकण् मैंने माता की मूर्ति को छूंकर देखा जो मेरे लिए असंभव था। काफी देर तक मंदिर को नजदीक से देखने जानने के बाद मन में ख्याल आया कि जिस मकसद के लिए टीम यहां आई है वह शायद पूरा न हो। लेकिन कुछ समय पूर्व मैंने सपने में जो जो देखा था आज साक्षात माता के दरबार में देख रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो राज्यपाल द्वारा बैठक और टीम बनाकर माता के दर्शनों को लिए आना केवल मेरे स्वपन को साकार करने के लिए ही था जो माता के आशीर्वाद से ही संभव हो सका।