एक युवा लेखक के रूप में मैं उस संस्थान के लिये भारत के प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय लेखन मास कम्युनिकेशन एंड सिंपल राइटिंग के लिये अमेरीकन छात्रवृति पर कार्यरत हो गया। तब तक मैं चिकित्सा मनोविज्ञान कलाओं और साहित्य की कई डिग्रियां ले चुका था। परा-मनोविज्ञान में मेरी रूचि थी। जब संस्थापक श्रीमती वेलदी फिशर को मेरे बारे में ज्ञात हुआ तो मुझसे मिलकर विभिन्न विषयों पर प्रायः बात करती थी। जब कोई अमेरीकन उनसे मिलने आता तो मेरा परिचय करवाती थी।
एक दिन एक डाॅक्टर लखनऊ मेडिकल काॅलेज के उनके परिचित मित्र उनसे मिलने आए। उन्होंने पास में होॅस्टल से मुझे बुलाया। तब 1962 में चीन और भारत युद्ध चल रहा था। मुझसे पूछा कि यह युद्ध विराम कब हो सकता है। शायद आने वाला रविवार था, मैंने बताया कि युद्ध विराम हो जायेगा। संयोग कहे या मेरे मन का परा-मनोवैज्ञानिक आभास युद्ध उसी दिन बंद हो गया। फिर तो मेरा विशेष सम्मान होने लगा। एक दिन विदाई पर उन्होंने विशेष अतिथि के रूप में चाय पर अपने निवास पर बुलाया। उनकी एक परिचित सम्बंधी स्त्री शायद बहन भी थी, मेरे सम्मान में उन्होंने एक गोल्डन गोल टेबल पर विशेष डिजाइनर टी सेट में चाय तथा खाद्य सामग्री सजाई।
जब मैं मिला तो बड़े कौतूहल से पूछा कि क्या मैं बता सकता हूं कि वह टेबल पहली बार किस के सम्मान में उपयोग की गई है, वह किस देश की है। मैंने तुरंत कई बातें भी बताई। काफी वर्षो बाद 2016 में मुझे गांधी जयंती पर पुरस्कृत करने तथा लेख द्वारा और डाॅक्यूमेंट्री फिल्म द्वारा पता चला कि श्रीमती वेलदी फिशर कई वर्षो तक चीन में विश्व प्रसिद्ध सम्मानित समाज सेवी रह चुकी हैं। वह भारत बाद में 1960 के करीब आई और गांधी जी से मिलकर अपने स्व. पति का स्मारक बनाने आई। वह कांग्रेसी थे।