लगभग तीस वर्ष पूर्व शिमला के प्रसिद्ध गेयटी थियेटर के सामने (एक ड्राई क्लिनिंग) अब कपड़ों के शोरूम में एक प्रसिद्ध वृंदावन आश्रम के महात्मा खड़े थे। मुझे मेरे मित्र श्री सोहन लाल गुप्ता जी माल रोड़ पर दूसरी ओर से आते हुये मिल गये। मुझसे बोले कि कुछ कदम दूर उस ड्राई क्लिनिंग शाॅप पर श्री ओपी सूद के अतिथि एक उच्च कोटि के महात्मा पधारे हैं। चलो आपको उनके दर्शन करायें । देखा महात्मा जी सड़क की ओर मुंह किये खड़े थे।
श्री सोहन लाल गुप्ता जी ने उनके पैर छूंकर प्रणाम किया और मैं मानसिक रूप से प्रणाम कर आदर भाव से आगे बढ़ गया।
दूसरे दिन श्री सोहन लाल गुप्ता जी का फोन आया कि वह महात्मा स्वामी कृष्णा नंद जी मुझसे मिलकर शिमला के प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर कामना देवी जिसे ‘प्रोसपेक्ट‘ हिल वाला मन्दिर भी कहते है, वहां मिलना चाहते हैं। इसलिये मैं अपने विद्यालय से अवकाश ले लूं। कहा- महात्मा जी और वह स्वयं मेरे निवास की ओर अपनी गाड़ी से मुझे ले कर चलेंगे और मेरे लिये आम तथा दूध श्री गुप्ता जी स्वयं लेकर आयेंगे, केवल मैं तैयार रहूं।
कुछ देर बाद मैं महात्मा जी के साथ चल पड़ा। वह पास के पैट्रोल पम्प पर गाड़ी में पैट्रोल भरवाकर मुझे लेकर चलने वाले थे। मैं महात्मा जी के पास पिछली सीट पर बैठा। उनके वस्त्र चप्पल गाड़ी सब ही पीले गेहुंआ रंग में रंगे थे। उन्होंने नोटों से भरे पर्स से पैसे निकाल कर पैट्रोल वाले को दिये।
कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात मेरे मन में महात्मा ‘कृष्णा नन्द जी‘ का बीता जीवन स्पष्ट दिखाई देने लगा। सदा की तरह मैंने पूछा महात्मा जी आप बुरा न माने मैं आपसे कुछ व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछना चाहता हूं। उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी। मैंने कहा कि आप सन्यास लेने से पूर्व बनारस काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में अध्यक्ष रहे हैं। उन्होंने अतीत में जाते हुये कहा हां, किन्तु मुझे यह जानकारी कैसे है। मैंने कहा कि मुझे ऐसा आभास हो रहा है। फिर मैंने विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक ‘जे. कृष्णा मूर्ति‘ उनके सम्बध में तथा अन्य विस्तार पूर्वक बात की। इस मिलन के पश्चात कई वर्षो बाद शिमला में सेठों की मीटिंग में मुझे निमन्त्रण दिया गया। सारे सेठ व्यापारी राम मन्दिर में उनके आसन के सामने नीचे फर्श पर बैठे थे। सभी मुझसे एक कलाकार नागरिक के रूप में परिचित थे।
मैं कुछ क्षण बाद पहुंच कर फर्श पर बैठने लगा तो श्री कृष्णा नंद जी ने मेरा हाथ पकड़कर अपने पास ऊंचे आसन पर बिठा लिया। भक्त उनके लिये सूखे मेवे एक प्लेट में लाये। श्री कृष्णा नन्द जी बोले... पहले वह मुझे दें। सेठों को संकोच में देखकर महात्मा जी ने मुठ्ठी भर मेवा मेरी जेब में जबरन डाल दिये।
एक या दो वर्षा बाद मैं उन्हें माल पर प्रसिद्ध स्केंडल प्वाइंट पर मिल गया। वह कहीं जल्दी में जा रहे थे। मुझे देखकर वह रूककर बोले... एक भव्य मन्दिर बनाने की योजना है। मैं उन्हें कोई राय दूं । मैंने दूसरे क्षण ही खड़े-खडे़ बताया कि सामने घाटी में या कहीं एक ऐसा (Revolving ) घूमने वाला मन्दिर बनायें। जिसमें 365 दिन एक देव प्रतिमा प्रतिदिन भक्तों के सामने आये। मैं भी व्यस्त था। वह वहां से विचार मुद्रा में चले गये।
कुछ समय बीतने पर मैं चंडीगढ़ एक मन्दिर में यूं ही चला गया। मैं सोच रहा था इस समय स्वामी कृष्णा नन्द जी कहां होंगे। जब मन्दिर से लौट रहा था तो वह भाक्तों के साथ कुछ दूरी पर ही मेरी ओर पैदल आते हुए वह मिले। वह बोले कि वह मुझे याद कर मेरे सम्बंध में भक्तों से बात कर रहे थे।
यह घटना असाधारण परा-मनोवैज्ञानिक है। उन महात्मा से मेरा संबंध पत्र व्यवहार या फोन इत्यादि कुछ भी नहीं था।
इस घटना के पश्चात् कई वर्ष बीत गये, कोई संपर्क नहीं था। एक कृष्ण जन्म अष्टमी के अनोखे विशाल समारोह मनाने के लिये पड़ोस में रहने वाले पंडित ‘बिहारी लाल वशिष्ट जी’ के आग्रह पर मैंने श्री कृष्ण जी की मिट्टी की एक ऐसी मूर्ति बनाई, जिसमें श्री कृष्ण जो कि सुन्दर, सौम्य, आकर्षक बाल रूप के साथ कुटनीतिज्ञ योगी महाभारत के कृष्ण का भाव का मिश्रण था। यह कार्य असम्भव था, किन्तु बिना धन के या किसी संस्था के मैंने वशिष्ट जी की निष्ठा देखकर कहा- मैं केवल ऐसी कृष्ण प्रतिमा बनाउंगा, जिसके कारण उसके आकर्षण के लिये सब कुछ जन्म अष्टमी समारोह के उपलब्ध हो जायेगा। शेष आप पड़ोस के सदस्य सब लोग संभालेंगे। एक दीवार के सहारे सुबह से शाम तक खड़ा धूप में गर्मी, भूख, प्यास की परवाह किये मेरे द्वारा श्री कृष्ण मूर्ति रूप लेती रही।
एक दिन इस मूर्ति निर्माण के बीच सामने पास की कोठी से साधु प्रवृति के सेठ ‘मेला राम सूद‘ मूर्ति स्थल पर हाथ जोड़कर पीछे आकर खड़े हो गये। बोले मुझे भी कुछ सेवा का अवसर दें। आपको मैं कई सप्ताह से दिन रात तन्मय खड़ा मूर्ति बनाते देख रहा हूं।
मैंने पड़ोसी वशिष्ट जी से कहा जो चाहिये उनसे बात करें। उन्होंने एक बड़ा नया शामियाना, काफी मात्रा में प्रसाद अपने कर्मचारियों द्वारा भेज दिया। एक शामियाना पुलिस के किसी पड़ोसी द्वारा आ गया। चालीस बिजली की रोशनी के लिये किसी शहर के भक्त ने लगा दी। कृष्ण लीला की झांकियां बनने लगी। कई किलो फूलों का प्रबंध होने लगा। स्वतः ही स्त्रियों व बच्चों ने झांकी के लिये मालाये बनानी आरम्भ कर दी।
इसके पश्चात् एक उत्सव या शादी जैसा भव्य सुखद दैविक माहौल बनने लगा। गाने वाली कीर्तन मंडलियों वाले बिना मूल्य कीर्तन के लिये अपने योग दान का आग्रह करने लगे। प्रांगण फर्श के लिये दरियां उपलब्ध हो गई। मैं सब कुछ देखकर मूर्ति बनाने में व्यस्त रहा। अंत में मुझे लगा कि सब पड़ोसी, स्त्री, पुरूष, बच्चों व राहगिरों की इतनी निष्काम श्रद्धा है तो एक अस्थायी केवल जन्म अष्टमी के लिये प्लाईवुड का मन्दिर, मूर्ति के लिये वास्तविक मन्दिर; वास्तु के अनुरूपद्ध भी होना चाहिये। मेरा सोचना व कहना ही था कि पड़ोसी आईटीआई के शिक्षक वहां के प्रधानाचार्य तथा काष्ठ कला के अध्यक्ष द्वार मन्दिर का निर्माण मेरी कल्पना द्वारा रात भर में तैयार करवा दिया गया।
कई फरलांग से मन्दिर दृष्टिगोचर होने लगा। राह चलते लोग कृष्ण जन्म अष्टमी का इन्तजार करने लगे। प्रांगण खचाखच भर गया। एक प्रसिद्ध पत्रकार ‘श्री प्रकाश लोहमी‘, शिक्षा मंत्री ‘श्री दौलत राम चैहान‘, वहां भाषण के लिये उतावले मेरे कला कक्ष पर सांय लगभग छह बजे पधारे। कुछ क्षण पश्चात वही वृन्दावन वाले स्वामी कृष्णा नंद जी तथा श्री सोहन लाल गुप्त जी सीधे आकर सोफे पर शिक्षा मंत्री के साथ शोभायमान हो गये। जिसकी मुझे पूर्व सूचना नहीं थी।
मुझे लग रहा था कि जैसे शिमला के किसी मन्दिर से अधिक साक्षात मथुरा या वृन्दावन, चमत्कारिक शोभा इस कोठी में हो रही हो। जैसे किसी दैविक वर्षगांठ पर देवता मेरे कला कक्ष पर श्री कृष्ण के इस युग में दर्शन करने के लिये आतुर हों।
श्री कृष्णा नन्द जी ने उस श्री कृष्णमूर्ति को उत्सव के बाद वृंदावन अपने आश्रम में स्थापित करने के लिये मुझसे प्रतिमा मांगी। मैंने बताया यह अस्थायी रूप से केवल जन्म अष्टमी के लिये है, स्थापना वाली प्रतिमा अन्य माध्यम में बनती हैं। वह अदभुत मूर्ति कई महीनों तक मेरे पास रही। उस पर चढ़े चढ़ावे से कई उत्सव कई वर्ष तक होते रहे।
इस आश्चर्य चकित करने वाली घटना को वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक कुछ भी कहें, मैं इस सबको परा-मनोवैज्ञानिक असाधारण अपूर्व केवल मन की शक्ति का जीता जागता उदाहरण ही मानूंगा जो ना कभी शिमला या हिमाचल में पहले घटी और न ही उस जन्म अष्टमी के बाद में।
श्री सोहन लाल गुप्ता