जब लखनऊ विश्वविद्यालय की एक चिकित्सा मनोवैज्ञानिक के रूप में नौकरी त्याग कर लखनऊ के राजकीय कला महाविद्यालय में मूर्तिकला का छात्र बना तो प्रायः अपने दो अन्य परिपक्व कलाकार मित्रों से यदा कदा वहां की राम समुभ नामक व्यक्ति द्वारा चलाई जा रही महाविद्यालय की कैंटीन में चला जाता था।
मैंने अपने एक विश्व विद्यालय सहपाठी श्री आरएन श्रीवास्तव को कला महाविद्यालय की बहुचर्चित कला प्रदर्शनी देखने को आमंत्रित किया। वह मित्र सहपाठी कला प्रदर्शनी देखने के लिये मुझसे मिले। उनके स्वागत हेतु मैंने उन्हें कैंटीन में चलने को कहा। प्रदर्शनी के लिये महाविद्यालय कलाकारों व नगर के दर्शकों से खचाखच भरा था।
मैंने भीड़ में अपने मित्र के साथ चलते हुये अपने पैंट की जेब में हाथ डाला तो देखा पैसों का पर्स निवास से लाना भूल गया।मैं उलझन में था कि अपने मित्र को कंेटीन में स्वागत जलपान कैसे कराउंगा। यद्यपि केंटीन मालिक परिचित था किन्तु यह अपमान जनक लग रहा था कि मैं वहां कुछ कहूं। मैं बड़ी तन्यमतयता से किसी अदृश्य शक्ति से विनयपूर्ण याचना कर रहा था कि बिना पर्स में धन राशि के कारण मेरा अपमान न हो। सहसा भीड़ में पैरों के पास एक नोट आवश्यकतानुसार पड़ा दिखाई दिया। एक क्षण मित्र के साथ बात करते मैंने बड़े संशय से उठाया, यह सोचते हुये कि उठाउं या नहीं जैसे ओर का यह नोट मेरे लिये ही है या नहीं। फिर भी मैंने उठा कर केंटीन वाले से कहा एक नोट मुझे पड़ा मिला है यदि किसी विद्यार्थी या दर्शक का पता चले तो मुझसे ले लें। किन्तु महीने सालों बीत गये महाविद्यालय में पूछने के पश्चात भी आज तक यह नहीं मालूम कि वह नोट किसका था।