शाहजहांपूर नगर के अशोक अग्रवाल
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपूर नगर के अशोक अग्रवाल का उनके परिवार से कोई झगड़ा एक मोटर बाईक के प्रसिद्ध शोरूम पर चल रहा था। आमने-सामने दोनों भाई पिस्टल लिये गोली चलाने के लिये तत्पर थे। वैसे ही मैंने शिमला से उन्हें मोबाइल द्वारा यह सोचकर फोन किया कि उस अशोक की कोई बड़ी समस्या और उलझन है।
इनके सिक्योरिटी पर बैठे गार्ड ने उन्हें बताया कि शिमला वाले भाई साहब का फोन है। वह तुरन्त अपनी पिस्टल सहित उस क्षण वह स्थान छोड़ आ गये दूसरी ओर विरोधी सदस्य हट गये। एक असाधरण दुर्घटना टल गई।
यह बात उन्होंने विस्तार से मिलने पर बताई। उस समय फोन पर केवल इतना कहा कि मैंने उन्हें बचा लिया। वह सोच रहे थे कि कोई शक्ति उन्हें अपने बड़े भाई से अप्रिय घटना घटने से पूर्व उस क्षण उन्हें वहां से हटा ले। मेरा फोन ठीक उसी समय गया जब वह संकट में थे। इससे पूर्व मेरी कोई बात उनसे कई महीनों से नहीं हुई थी। कई महीनें बाद जब शिमला से उत्तर प्रदेश गया तो मिलने पर विस्तार से बताया तथा विवाद वाला स्थल दिखाया।
यह परा-मनोवैज्ञनिक सम्बंध उनके साथ उनके युवा काल से अभी तक लगभग चालीस वर्ष तक की है। यह पूर्वाभास की क्रियात्मक घटना और सिद्ध महात्माओं की सच्ची घटनाओं के समान आश्चर्यचकित करने वाली घटना है। महीनों से फोन पर या पत्र द्वारा कोई संपर्क न होने पर जब मैं फोन उठाता हूं तो उसी समय फोन उठाते हैं या याद करते है।
उनका एक शोरूम बरेली शहर में हैं। वहां नये खरीदे गये घर का गृह प्रवेश करने उनका बेटा पूजा की थाली लिये खड़ा था, श्री अशोक अग्रवाल परिवार के साथ में थे। मैंने कई महीनों बाद फ़ोन किया कि मुझे बिना बताये नये भवन का गृह प्रवेश पूजा करने जा रहे हो, उनका पुत्र अल्पित पूजा की थाली लिये खड़ा है।
वह यह सुनकर चकित थे। उनके पुत्र ने कहा कि वह ठीक उस समय पूजा की थाली लिये खड़ा है। वह दृश्य मुझे आभासित हो गया। जब मैं कुछ महीनों बाद शिमला से जाकर सदा की तरह मिला तो उन्होंने बताया कि मेरे द्वारा किये गये अकस्मात फोन से एक बड़ी दुर्घटना गोली चलने की टल गई। उस झगड़े के समय वह सोच रहे थे कि उन्हें कोई उस स्थल से हटा ले। ठीक वैसे ही मेरा फ़ोन उनके अंग रक्षक ने उन्हें दिया। उनके मन में मेरे बारे में विचार आया और मैंने कई महीनों बाद उस क्षण अकस्मात ही इस आभास पर शिमला से फोन किया कि वह किसी उलझन में है।
अशोक अग्रवाल
अशोक जी लजाते हुये बोले कि भाई साहब मैं आप को बताने वाला ही था कि मेरा फोन उनके पास पहुंच गया। टेलीफोन की अनूठी घटना दो वर्ष पूर्व की है।
मेरे सहायक के रूप में रात दिन साथ में रहना, जैसा मैं बताउं कार्य करेंगे, समय बहुत कम था। विशेष साम्रग्री व सुविधा उस नगर में नहीं थी।
मैंने अश्वनी परिकल्पना द्वारा एक विशाल थर्मोकोल पर एक दृश्य महाभारत में श्री कृष्ण गीता का उपदेश अर्जुन को देते हुए बताया जिसमें रथ अर्जुन और श्री कृष्ण का दृश्य कुछ घंटों में निर्मित कर दिया। किन्तु श्री कृष्ण का पूरा शरीर बन जाने के पश्चात शीश बनाना रह गया था। मैंने उस सिर के स्थान पर एक कैलेंडर में छपे श्री कृष्ण के आकर्षक सिर को काटकर चिपका दिया कि चित्र सम्पूर्ण हो गया। यह कैलेंडर कई वर्षो से जब मैं शिमला से अपने पैतृक घर जाता था तो बंद निवास की वर्षो बाद सफाई में फेेंक दिये जाने के बाद जीर्ण होते कैलेंडर को कूड़े से उठाकर रख लेता था। परिवार वाले कहते... यों हर साल इस कैलेंडर को अब कूड़े से उठा कर आदर सहित रख लेते है।
मुझे हर बार लगता था कि मनोहारी छवि कहीं किसी काम आयेगी। जो काम आई मंच सजा पर गीता उपदेश का विशाल देख सारे गदगद हो गये। तीसरे दिन वह दोनों अशोक के लिये भाईयों से भक्त मुझसे रूकने का आग्रह करने लगे कि एक दिन के लिये उस उत्सव में रह जाओ। मैंने एक से कहा कि यदि आप की इतनी निष्ठा, आदर, प्रेम भाव है तो मैं आपको चल रहे कीर्तन के बीच जब सब मंत्र मुग्ध भक्ति में लीन होंगे, तब अमुक समय में जहां श्री कृष्ण जी का चित्र बना है, साक्षात सशरीर दर्शन दूंगा, मुझे देखना। इस घटना को अन्यथा मत समझना। मैं शिमला चला आया किन्तु मन वहीं था। मैंने शिमला उक्त बताये समय पर उतर प्रदेश के उत्सव का परा-मनोवैज्ञानिक ध्यान द्वारा मन की एकाग्रता से उस मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज की। जिसे अशोक जी ने फ़ोन पर बताया।
यह सशरीर दर्शन की दुर्लभ घटना केवल संत महात्माओं या पौराणिक कथाओं में सुनी थी। किन्तु आज के युग में भी संभव है।
सन 1979 के करीब की बात है कि उतर प्रदेश शाहजहांपूर के श्री अशोक अग्रवाल नाम के दो चचेरे भाई ने एक सरदार पटेल महाविद्यालय के लिये लखनऊ से प्रशिक्षित कला प्राध्यापक की राय से मुझसे मिलकर मानवाकार सरदार वल्लबभाई पटेल की मूर्ति बनवाने के लिए अनुबंध किया। उस समय मैं इस बात पर तैयार हुआ कि वह मूर्ति शिमला से स्वयं सम्पू़र्ण होने पर ले जायेंगे। मूर्ति पूर्ण होने पर श्री अशोक अग्रवाल तथा उनके साथ एक मित्र और बड़ी आयु का व्यापारी मित्र शिमला आये। मैंने उन्हें अपने आवास पर खाने पर बुलाया। फिर उन्हें विदाई के लिये कुछ दूर छोड़ने गया।
एक छात्र बोला कि कुछ रूपये कम पड़ गये जो मूर्ति सामग्री की रचना के लिये देना था। मैंने कहा... कोई बात नहीं, मेरी कोई व्यवसायिक सोच नहीं है। आप कभी दे पायें तो ठीक है, नहीं तो इसकी चिन्ता न करें। यह क्षेत्रवासियो द्वारा शुभ कार्य है। किन्तु मुझसे झूठ न बोलें क्योंकि अमुक छात्र की जेब में ठीक मुझे देने वाली राशि रखी है।
वह विद्यार्थी तथा बड़ा व्यापारी मित्र शर्मिंदा होकर बोले कि मैं ठीक कह रहा हूं। यह शेष राशि इसलिये नहीं दी कि यदि मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई तो आपको उसकी मुरम्मत करवाने के लिये दबाव रहेगा। मैं उनकी नादानी पर हंसा और कहा कि शिमला तथा अन्य स्थलों को घूमने के खर्च के लिये वह शेष राशि के अतिरिक्त मुझसे और धन ले। आप अभी परिचित नहीं है, मैं उसी महाविद्यालय का विद्यार्थी रहा हूं। मैंने वह राशि उस समय नहीं ली।
उन क्षेत्रों का व्यापारी सलाहकार मित्र ने क्षमा याचना की और बोला यह राय मैंने ही दी थी। आप कृप्या यह बतायें कि मेरे दादा जी बहुत बीमार है, उन्हें मृत्यु शैया पर छोड़कर मैं इन मित्रों के साथ शिमला तथा पंजाब घूमने आया हूं। मैंने कहा निश्चिंत रहें, उन्हें कुछ नहीं होगा। वह कई वर्षों तक स्वस्थ रहेंगे। वैसा ही सच निकला। तब से उस शहर के अनेकों व्यापारी, प्रतिष्ठित लोग मेरी राह देखते हैं। श्री अशोक अग्रवाल से पारिवारिक सम्बन्ध हो गये।
यह घटना परा-मनोवैज्ञानिक पूर्वाभास तथा भविष्य दर्शन की है।