कुछ वर्ष पूर्व की बात है कि एक ईसाई चित्रकार सेमुअल मसीह शिमला के चित्रकार मुझे मिले और कहा कि शिमला रिज स्थित उतरी भारत की अंग्रेजी शासन काल की बनी चर्च में पहली बार एक कला प्रदर्शनी ईसाई सोसायटी की ओर से लगाई जा रही है। उस प्रर्दर्शनी में सभी चित्रकार भाग ले रहे थे, किन्तु मूर्ति नहीं है। अतः मेरे द्वारा बनी एक पुस्तक पढ़ते बालक की बहुचर्चित मूर्ति उन्हें प्रदर्शनी के लिये दूं या अपनी अन्य चित्रकला दे दें और भाग लेकर प्रदर्शनी की गरिमा बढ़ायें।
इस प्रदर्शनी का उद्घाटन बंगलौर या यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति सुप्रसिद्ध कवि नेहरू उच्च संस्थान शिमला के निदेशक के पद पर आये है। वह ईसाई है। उन्हें कला प्रदर्शनी का उद्घाटन करना है।
मैंने कहा कि मैं क्राईस्ट, बुद्ध, राम, कृष्ण इत्यादि की मूर्ति या चित्र बनाता हूं, पर ईसाई नहीं हूं। यदि क्रिश्चियन सोसिएशन शब्द हटा दें, तब अपनी मूर्ति या चित्र दे सकता हूं। कलाकार या कला को किसी परिधि या सीमा में बांधना मेरे विचार से ठीक नहीं है।
चित्रकार श्री सेमुअल मसीह बोला कि वह अपने युवा पादरी से बात करेेंगे। अगले दिन उनसे बात करवाई गई। मैंने पराशक्ति, सृष्टि और मानव धर्म की बात की। मैं कला द्वारा एक कलाकार पशु, पक्षी, फल, वनस्पति, मानव, स्त्री, पुरुष, सब धर्मो और विश्वासों के देवी देवता तथा अन्य रूप गढ़ता और चित्रित करता हूं। चित्रित कलाकृकतियों द्वारा समाज या दर्शक को अपनी कला द्वारा मूल्य प्रेषित करता है। मेरे लिये केवल यह एक पदार्थ या माध्यम है। धर्म, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, अच्छा-बुरा, जानवर, आदमी, देवता यह सब अल्प बुद्धि वाले के लिये है। क्या आपके धर्म में सर्वव्यापी प्राण शक्तियां या मन को सीमित बयां किया गया है।
कई तर्को के पश्चात उन्होंने सारे काग़जनुमा छपे पोस्टर मंगवाये और फाड़कर फेंक दिये और मुझे उस मूर्ति व चित्रों के साथ प्रर्दशनी में भाग लेने का आग्रह किया। मैंने भाग लिया। जब डाॅ. गोकुक ने उद्घाटन किया तो उन्होंने मेरे द्वारा बनाये चित्रों और अकेली मांगी गई उस मूर्ति को देखा तो एक दर्शक की प्रतिक्रिया वाले रजिस्टर में लिखकर मेरी तुलना रूस के विश्व प्रसिद्ध लेखक Tolstoy से की। उसकी रचना वर्ड पीस तथा अन्य मानवता वादी मनुष्यों पर आधारित हैं।
मेरेे कई विशाल चित्रपट युद्ध और शान्ति पर आधारित थे। कुछ वर्षो बाद 1973 में पहली बार विश्व प्रसिद्ध महात्मा श्री सत्यसाईं बाबा पुटापर्ती वाले शिमला आये, जहां वह ठहरे थे वहां बड़ी भीड़ थी। मैंने वहां डाॅ. गोकुल को देखा। वह नंगे पांव सेवा भाव से भक्तों को कुछ समझा रहे थे।
मैंने उनसे मिलकर पूछा कि आप यहां कैसे। तो मालूम हुआ कि वह र्साइं साहित्य का अनुवाद सेवाभाव से अन्य भाषाओं में करते थे। मेरा विश्वास है कि मेरी कलाकृतियों ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला। वह दक्षिण भारत मैसूर के थे।
यह असाधारण घटना मात्र नहीं थी। वरन मैंने अपनी पराशक्ति तथा मन में चिन्तन द्वारा प्रदर्शनी के नियम हटाकर कृतियों द्वारा जो चाहा व संदेश दे दिया। वह पहली प्रदर्शनी अंग्रेजी शासन से लेकर आज़ादी पश्चात शिमला के ऐतिहासिक चर्च में हुई थी।
इस प्रदर्शनी में एक 60-65 वर्ष की सभ्रान्त धनाढय नारी (दिल्ली की शिमला में लक्कड़ बाजार स्थित सिनेमाघर की बिल्डिंग में रहने वाली) दर्शक के रूप में आई। मैं प्रदर्शनियों में लगी कृतियों के पास बहुत कम ही खड़ा होता हूं। उद्घाटन की भीड़ से भी दूर रहता हूं।
कला प्रदर्शनी के समापन वाले अन्तिम दिन मैं अपनी धर्मपत्नी साहित उसी चर्च के प्रदर्शनी हाॅल में खड़ा था। मेरी पत्नी ने बताया कि एक स़्त्री बार-बार आकर मूर्तिकार (मुझसे) मिलना चाहती है, पर न मैं वहां होता हूं न परिचित कलाकार मेरे बारे में मेरा परिचय बताते है।
थोड़ी देर में वह जिज्ञासु स्त्री मेरे द्वारा रचित मूर्ति ‘पत्र लेखन’ (शुद्ध भारतीय परम्परागत शैली की) के पास आकर रचनाकार को पूछने लगी। मेरी पत्नी ने बताया यही वह जिज्ञासु स्त्री है। मैंने मिलकर पूछा, क्या जानना चाहती हैं, वो बोली मैं दिल्ली की रहनेवाली हूं। दूसरा घर शिमला में होने के कारण कभी-कभी यहां आती हूं। मुझे कला में रूचि है।
मैं इस शैली की मूर्ति बनाना सीखना चाहती हूं। मैंने कहा आप दिल्ली में किसी कला विद्यालय में सीखें तो ठीक रहेगा। फिर इस उम्र में सीखना कठिन है। उसका उतर था कि विदेश, बम्बई, दिल्ली में सब जगह जाती रहती हूं। किन्तु इस शैली को कहीं नहीं सिखाया जाता। मैं मूर्ति के मूर्तिकार से मिलना चाहती हूं क्या आप उस कलाकार को जानते हैं। मैंने कहा हां... किन्तु वह बड़ी कठिनाई से समय की पाबन्दी पर ही मिल सकते हैं। वह बोली कहां है उनका कला कक्ष या निवास स्थान।
मैंने उस जिज्ञासू स्त्री को राजकीय कला महाविद्यालय, फागली, शिमला रेलवे स्टेशन के निकट मूर्ति कला विभाग में अपना नाम बताये बिना मिलने के लिये जाने का समय बता दिया। जहां मैं सेवारत था।
वह दूसरे दिन कई मील दूर पैदल कला महाविद्यालय में पहुंची। मैंने मिलकर कहा कि मैं बताने आ गया कि किस विभाग में वह जायें। वहां मेरे साथी एक मुसलिम मूर्तिकार थे । उनसे मिलवाकर पूरा मूर्ति कला विभाग दिखाकर पूछा कि यहां सीख सकती हैं । वह असंतुष्ट भाव से निराश होकर बोली मुझे ऐसा नहीं सीखना है।
फिर मैंने उसे बताया यहां वह शैली नहीं सिखाई जाती है। उसके मूर्तिकार फरवुड अप्पर कैथू में प्रो. सक्सेना के नाम से रहते हैं, ठीक 6 बजे मिलेंगे। अगले दिन घनघोर वर्षा ओले पड़ रहे थे। अंधेरा छा रहा था कि ठीक 6 बजे शाम को मैं (मेरा ही पता था) उस जिज्ञासू की बाट देख रहा था। सोच रहा था कि वह कहां इस वर्षा में आयेगी और मैं इस आयु में क्या सिखाउंगा। वैसे ही दरवाजे की घंटी बजी, मैंने उसका स्वागत किया। पत्नी ने उसको चाय वगैरा पिलाई और मैंने आश्चर्यचकित होकर कहा कि आपकी लग्न व विश्वास मूर्तिकला सीखने की दृढ़ इच्छा को नमन है। मैंने कहा कि आप हर परीक्षा में सफल हो गई। मैं ही वह कलाकार हूं। जिसकी मूर्ति शैली आपको पसन्द है। मैं अवश्य आपको सिखाउंगा। वह अत्यन्त प्रसन्न तथा संतुष्ट थी, बोली आपकी फ़ीस क्या है। तथा सिखाने का समय क्या है व स्थान कहां है। मैं कहां सीखने आउं... मैंने कहा मेरी ओर से कोई फ़ीस नहीं, समय की कोई पाबंदी नहीं। मैं स्वयं जहां वह शिमला में रहती हैं आउंगा। एक दिन पूर्व फ़ोन से समय बताता रहूंगा। किन्तु जैसा मैं बताउं वैसा करने का पूरी ईमानदारी से प्रयास करना। सफलता दिलाना मेरा काम है। कोई बंदिश मैं नहीं मानूंगा, सामग्री, समय, उपकरण इत्यादि मैं सब बता दूंगा।
मैं उसके निवास पर मूर्ति कला के मूल गहन तत्व एवं गुर बहुत ही सरल तरीके से बच्चों की इस प्रौढ़ जिज्ञासा स्त्री को सीखाने कभी नियमित रूप से नहीं गया। वह सीखने में प्रगति करने लगी। मेरा एक महान बुजुर्ग कला गुरु की तरह आदर व निष्ठा उसके मन में घर करने लगी। एक पारिवारिक सम्बंध हो गया। मैं जैसा बताता था वह वैसी ही मूर्ति बनाने लगी। कई दिनों बाद मैंने सोचा कि उस सभ्रांत पाश्चात्य, धार्मिक, समाज सेवी, शान्त, उपकारी, जिज्ञासु महिला को भारतीय शैली की मूर्ति बनाने को कहूंगा और रामायण में वर्णित ‘केवट संवाद’ के दृश्य को रामायण की पुस्तक में चित्रण के आधार पर बनवाउंगा। मैंने उसके यहां जाकर पूछा कि आज कौन सी मूर्ति बनानी है। वह बोली कि ‘केवल संवाद’ के दृश्य को मूर्ति में बनाने की सोची है। इसके लिये बोर्ड मिट्टी, पानी इत्यादि सब तैयार कर लिया है। आप कई दिनों से न आये न फोन किया। कल जब फोन द्वारा ज्ञात हुआ तो मैं प्रतीक्षा करने लगी कि कब आप आज्ञा देंगे।
यह विषय बड़ा कठिन है। मैं पहले ही सोच रहा था कि ‘केवट संवाद‘ बनवाउंगा विषय कठिन है। इस विषय को बनाना सांचा लेना ढालना, फिनिशिंग, फिर रंग करना इत्यादि जो कला विद्यालय के विद्यार्थी वर्षो में भी नहीं कर पाते।
कई दिनों सिखानेके लिये ना जाने पर भी मैंने परा-मनोवैज्ञानिक चिंतन द्वारा सिखाने से पूर्व एक दिन सोचा कि ‘केवल संवाद’ का दृश्य जो अति कठिन बनाना है, बनवाउंगा। Telepathy द्वारा उस विषय को बनाने की प्रेरणा उस स्त्री जिसका नाम श्रीमती सूरी था, दी। जब मूर्ति पूर्ण हो गई तो उसे श्रीमती सूरी ने एक धार्मिक आश्रम में देने की आज्ञा मुझसे मांगी और उसे शिमला के एक आश्रम को दे दिया।
कुछ दिनों बाद आश्रम स्थानांतरित हो गया। उनके धार्मिक गुरु ने वह ‘केवल संवाद’ की मूर्ति फिर श्रीमती सूरी को लौटा दी। मैं कई महीनों से उन्हें मूर्तिकला सिखाने नहीं जा पाया। पता चला किसी फ्रेक्चर के कारण वह बीमार हो गई। एक दिन उनकी बड़ी पुत्री का फोन आया कि उनकी माता जी (श्रीमती सूरी जी) का देहान्त हो गया और उनकी पुत्रियां दिल्ली, बम्बई व विदेश में नाती दामाद इत्यादि शिमला के निवास पर उनकी आत्मा के लिये अनुष्ठान में आये हैं।
एक कला गुरु के नाते मुझे बुलाया गया। मैंने इस बीच एक स्वप्न देखा, जिसमें श्रीमती सूरी जी का चेहरा उनके घर पर रखे टीवी के ऊपर दिखाई दिया और मुझसे कह रही हैं कि उनके पूजा घर वाले कमरे में ‘केवट संवाद’ वाली मूर्ति के पीछे कुछ मोम बत्तियां रखी हैं। उनको जला दें।
मैं जब शिमला में रिवोली नामक निवास पर गया तो उनकी बड़ी बेटी से कहा कि मैंने एक स्वप्न देखा है। जिसमें श्रीमती सूरी अर्थात् उनकी माता जी ने उसकी आत्मा की शान्ति पूजा में मोम बत्तियां जलाने को कहा है।
उनकी पुत्री ने बताया कि सारा घर और पूजा घर की सफाई में कहीं मोम बत्तियां नहीं मिली। मेरे कहने पर ‘केवट संवाद’ मूर्ति के पीछे स्वप्न में बताई मोम बत्तियां मिल गई, जिन्हें प्रकाशित किया गया।
यह सत्य घटित घटना आश्चर्यजनक है।
जहां कभी ‘केवल संवाद’ वाली मूर्ति रखी रहती थी वहां मोम बत्तियां रखी मिल गई। हम सब आश्चर्यचकित थे। आज 2017 जुलाई को लिखते हुये मन अजीब सा इस नश्वर जगत के रहस्यमयी खेलों से अशांत होने लगता है।
ऐसे शिष्य कैसे मिलता हैं जिन्होंने मेरे पारिवारिक सुख-दुख को एक सच्चे मानव की तरह बांटा है। जिसके लिये अनेक घटनाये आज लगभग 84 वर्ष की आयु में मानस पटल पर जीवित है।