जब हम दो कला प्राध्यापक शिमला में किराये का घर तलाश कर रहे थे तो कई महीनों तक कहीं घर नहीं मिला। दूसरी ओर कला महाविद्यालय के छात्रावास में दो तीन कमरे की कुछ दिन के लिये अनुमति मिल गई। शिमला मालरोड़ पर एक टेलर पास में कई फ्लैट बनवा रहा था उसने हमारे साथी सह अध्यापक को आश्वासन दिया कि जैसे ही बनकर तैयार होंगे, तो दे दूंगा। किंतु जो फ्लैट तैयार होता था वह किसी अन्य व्यक्ति को दे देता था। हमारे साथी परेशान हो गये। एक दिन मैंने पूछ लिया कि फ्लैट कब किराये पर मिलेगा क्योंकि मैं भी उनके साथ लेने की सोच रहा था। उन्होंने नकारात्मक रवैया मकान मालिक का दुखी होकर बताया। मैंने पूछा कि मकान किस स्थान पर है। महाविद्यालय में अंग्रेजी शासन की एक चर्च भी थी। वह बोले चलो... उसने चर्च की सीढ़ियों से चढ़कर उसकी छत से वह बनने वाले फ्लैट दिखाये।
मैंने कहा- क्या चाहते हो। वह प्राध्यापक बोले कि इसमें आग लग जाये। मैंने कहा देखो उनमें आग लग गई है। तब से करीब पचास वर्ष बीत गये। एक दिन मालिक टेलर ने बताया कि दोबारा बनाने पर भी कोई किरायेदार नहीं आया। राजकीय कला महाविद्य़ालय जिसमें कई प्राध्यापक चित्र मूर्ति संगीत कई क्राफट और टीचर्स ट्रेनिंग की सुविधा थी, शिमला अंग्रेजी शासनकाल के कई मंजिला लेबर हाॅस्टल में स्थानातंरित कर दिया गया। उसमें संस्कृत विद्यालय भी था। यह स्थान शिमला रेलवे स्टेशन के समीप फागली नामक क्षेत्र में था।
मेरे आफिस के पीछे एक खिड़की खुलती थी। जहां कला प्राध्यापक और संस्कृत के शिक्षक धूप में बैठ कर खाली समय में गपशप करते थे। मैं अधिकांश अपना काम कमरे में बैठ कर ही करता था। मेरे सिर के कुछ बाल गिर चुके थे। एक वरिष्ठ चित्रकार प्राध्यापक हंसी मजाक कर रहे थे। मुझे देखकर बोले क्या सिर गंजा हो गया। मैंने सुनकर कहा कि ऐसा अभद्र मजाक और मखौल उड़ाना ठीक नहीं। फिर दोबारा उन्होंने कई बार बाहर बैठे प्राध्यापकों के बीच अभद्र तरीके से टिप्पणी की। मैंने उन्हें सचेत किया कि अब तीसरी बार यह शब्द मत बोलना। किंतु यह सब किसी दुरभावना से ऐसा बोल कर मेरा उपहास उड़ा रहे थे। मैंने तीसरी बार कहने से कहा कि मेरे तो कुछ ही बाल सिर के गिरे हैं, किन्तु तुम्हारे सिर और सारे शरीर, आंख, भौंह, मूछ इत्यादि के बाल जल्द गिर जायेंगे। कुछ ही दिनों में उन कला प्राध्यापक श्री सनत चटर्जी के सारे शरीर के बाल झड़ गये, जो कई वर्ष बाद मेरी बात का प्रभाव कम होने तथा उपचार के बाद ठीक हुये।
सन 1969 के करीब की बात है कि मैं शिमला के लोअर बाजार में एक शेव करने वाली रेजर मशीन ख़रीदने पूछता हुआ एक दुकान पर गया। रेज़र मशीन प्लास्टिक की थी, ख़रीदी। उसका एक कोना टूटा हुआ था। जब मैंने दुकानदार से कहा कि कोई दूसरा पीस दे दें। उसने उत्तर में कहा कि उसे ले जाकर घर में देख लो यदि ठीक ना लगे तो अगले दिन बदल लें या पैसे वापस ले लें। दूसरे दिन मैंने उसे बदलकर दूसरा पीस देने को कहा कि वह पहले वाला टूटा था। अधेड़ उम्र का दुकानदार बोला यह मेरे दुकान का नहीं है। इसके अतिरिक्त तेज़ आवाज़ मे बोलकर लड़ने लगा। बाज़ार की भीड़ जमा होने लगी। मैं शांत शालीन खड़ा पश्चाताप महसूस कर रहा था कि कहां सबको सफ़ाई दूं। मैंने न उसके पैसे मांगे न ही दूसरा रेज़र उसने दिया। मुझे गलानि व दुख था कि क्यों इस दुकान पर आया। टूटी रेज़र मशीन और भीड़ के कहने पर भी पैसे वापस न लेकर मैं यह कहकर चला गया कि यह दुकान नहीं रहेगी, क्योंकि वह झूठ बोल रहा है।
दूसरे दिन समाचार पत्र में पढ़ा कि लोआर बाजार में एक दुकान जलकर राख हो गई है। मुझे लगा कि वही दुकान जली होगी। कई वर्षो बाद मैं एक कमर की बेल्ट लेने उसी दुकान पर गया। एक युवक खड़ा बेल्ट बेच रहा था। दुकान दो भागों में बंटकर छोटी हो चुकी थी। मैंने उस युवक से पूछा कि कई वर्ष पूर्व यहां पर किसकी बड़ी दुकान थी। वह बोला मेरे दादा जी बैठते थे। दुकान जल गई फिर परिवार में बंटवारा हो गया। यह छोटा हिस्सा मुझे मिला। मैंने यह पेटी, बेल्ट की दुकान खोल रखी है।
मैंने बेल्ट खरीदी। पिछली घटना याद आने लगी। जली दुकानदार का पोता बड़ी विनम्र बात कर रहा था। यह मेरी नकारात्मक तीव्र क्रोध की भावना का परिणाम था क्योंकि लड़ना मेरे स्वभाव में शर्म की बात थी।