कवि बचाल चोंचा- तिल को तिल कहें या मोर के पँख, जब आती है याद तेरी बजाते हैं शंख
कवि गम्भीर सुस्ती- तेरे घर के सामने एक घर बनाऊंगा, जब कपड़े सूखायेगी तू मैं उठा ले जाऊँगा
वीर रस के कवि मर्द जनाना वादी- तौहीन का जबाव तो समशीरे दिया करती हैं, पर क्या करें गालिब मियाने ही छोटी हैं
कवि बुद्धि भूसा- तेरे चुल्ल की नफरत अब न सह पायेंगे, लेगें हाथों में लठ्ठ और तुझे तेरे घर तक भगायेंगे
कवि मदहोश मस्त लगे- मेरे शक का कीड़ा कुलबुलाया तो था..
जब वो मुझे देख के मुस्कुराया जो था
कवि बेदर्द मरे- वो लगा रहा खाने में फिर...दो घण्टे पखाने में
कवि कोना पकड़- सौ ग्राम रबड़ी खाने के साथ, मजा आ गया खुजाने के बाद
कवि बिगड़ैल- थोड़ी तो तमीज होनी चाहिए, पेंट के संग कमीज होनी तो चाहिए