ये सब मार्केटिंग का ही असर था कि हर कोई जहर खाना चाह रहा था। हर ब्राण्ड अपने जहर को दूसरे के जहर से अच्छा बता रहा था। कोई कह रहा था कि उसके जहर में क्लास है, कोई कह रहा था उसका जहर ब्रांडेड है तो कोई कह रहा था उसका जहर हर्बल है। कोई कह रहा था उसका जहर सेहत के लिए अच्छा है। कुछ का कहना था कि अगर आपने उनका जहर नहीं खाया तो आपका स्वास्थ्य कभी ठीक नहीं हो पायेगा। हर कोई अपना कैमिकल से बना सामान (जहर) बेच रहा था। कोई दवा के नाम पर, कोई खाने-पीने की चीजों के नाम पर।
पर लोगों की आँख पर ऐसी पट्टी बंधी थी कि उन्हें जहर ही अच्छा लग रहा था। न खेत में उगी चीजें, न घर में बना शुद्ध खाना। उन पर जहर और कैमिकल (ठण्डे) पीने के लिए तो बहुत पैसे थे पर शुद्ध दूध पीने के लिए एक पैसा भी नहीं था। बस एक होड़ सी लगी थी कौन कितना ज्यादा जहर खरीद कर खा सकता है। यहाँ तक की अपने बच्चों को भी वो जहर ही देना चाहते थे ताकि उनका ज्यादा से ज्यादा मानसिक व शारीरिक विकास हो। डॉक्टर से ज्यादा लोगों को विज्ञापनों पर भरोसा था। अगर विज्ञापन कह दें कि कोयला और नमक मिलाकर खाओ तो लोग वो भी करने को तैयार थे। लोग खीरे को खाने की बजाय अपनी आँखों पर लगा रहे थे। फलों के पेस्ट बनाकर उससे अपनी त्वचा दमका रहे थे जबकि फल खाने से त्वचा वैसे ही निखर जाती है। मार्केटिंग ने नये-नये भगवान भी मार्केट में ला दिये थे। अब समाज ने टीवी चैनलों को अपना गुरु बना लिया था जो दिमाग में जहर घोलने का ही काम करते थे। और जो जितना कम बुद्धि का प्रयोग कर रहा था वो उतना ही अधिक बुद्धिमान माना जा रहा था।