एक हफ्ते बाद गाँधी जी का बड़ डे था (गाँधी जी के जमाने में उसे जन्मदिन कहा जाता था)। उनका मन हुआ वो धरती पर घूम आये। वो धरती पर एक मूर्ति के पास उतरे। इस मूर्ति पर बहुत सारी धूल जमी थी। देखने से ही पता चलता था कई महीनों से इस मूर्ति की साफ सफाई नहीं हुई है। गाँधी जी ने ध्यान से देखा यह तो उन्ही की मूर्ति थी। वो घूमने के लिये आगे चल दिये। वहाँ उन्हें और मूर्तियाँ देखने को मिली। उनका तो और भी बुरा हाल था। किसी की नाक टूटी है, किसी की उँगली तो किसी के कान। सुभाष चंद्र बोस का तो कोई चश्मा उतारकर ले गया था। लगभग सभी मूर्तियों पर कई सालों से चिड़ियों की बीट पड़ी थी। गाँधी जी समझ गए थे कि मूर्ति लगाने के बाद कोई उन्हें देखने तक नहीं आया है।
कई मूर्तियां ऐसी भी थी जिन्हें सरकार बदलने के साथ ही तोड़कर फेंक दिया गया था। सावरकर जी उन्हीं में पड़े थे। कई मूर्तियों के केवल उनके आधार स्तम्भों पर नाम लिखे थे। मूर्तियां या तो लगवाई ही नहीं गई थी या फिर वो लोगों के ड्रॉइंग रूम आदि की शोभा बढ़ा रही थीं।
तभी उनकी नजर नीले रंग की चमचमाती मूर्ति पर पड़ी। ये अम्बेडकर जी की मूर्ति थी। ऐसी कई मूर्तियां विशेष पार्कों में लगी थी।
मूर्तियों की राजनीति समझकर गाँधी जी दुखी मन से अब वापस जा चुके थे।