जब सरकारी विभाग इतनी मेहनत कर रहे हों तो जनता भी कहाँ पीछे रहने वाली है। अब घर में शादी या कोई समारोह हो तो सड़क खोदकर तुरन्त तम्बू गाढ़ दिया जाता है। अब सड़क पर चलने वाले वाहनों को भले ही पूरे मोहल्ले का चक्कर लगाना पड़े, क्योंकि घर के सामने की सड़क तो हमारी ही होती है। उखाड़ ले जिसे जो उखाड़ना हो। तंबू हटने के बाद पीछे छूटे गढ्ढो को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। उन्हें भरवाने की तकलीफ कौन उठाये। अब इन गढ्ढों में किसी बच्चे या बुजुर्ग का पैर फँस जाये या किसी जानवर का पैर फँसकर टूट जाये, हमारा फंक्शन तो हो गया न। बारिश में टूटी सड़कें धरना प्रदर्शन करके किसी तरह दशहरे तक बन पाती हैं फिर सहालग आते ही टैंट लगाने के लिए लोग सड़कें खोद डालते हैं।
इन गढ्ढा युक्त सड़कों पर जब वाहन दौड़ते हैं कार की बात छोड़ो बस में बैठे लोग भी गड्ढा आने पर सीट से उछलकर बस की छत से चिपक जाते हैं। कुछ सड़कें तो इतनी सुहान अल्लाह होती हैं कि छोटे मोटे वाहन छोड़ो वो बस, ट्रक तक की कमानी तोड़ देती हैं।
क्योंकि सड़क हमारे बाप की है तो कोई रैली निकाल रहा है, तो कोई जुलूस और बारात तो सड़क पर निकलेगी ही। इन सब नोटकी या ड्रामेबाजी से सड़क पर जाम लगे तो लगे, बच्चों की परीक्षा आदि छूटे तो छूट जाये, एम्बुलेंस में कोई मरीज दर्द से परेशान हो तो होता रहे। पर सड़क पर नाचना इनसे ज्यादा जरूरी होता है वर्ना शादी ज्यादा लम्बी नहीं चलती। कभी स्कूलों की रैली, कभी चुनावी जुलूस, कभी विरोध प्रदर्शन, कभी धार्मिक उत्सव सबके लिए सड़क आरक्षित है। सड़क पर लोग होते हैं और वाहन चालक फुटपाथों पर चलने को मजबूर होते हैं।
सरकार सड़कों का निर्माण वाहनों के चलने के लिए करती है पर वाहन चालक भी सड़क पर अपने पहले चलने को प्राथमिकता देते हैं। सड़क पर सबसे पहले मेरा वाहन गुजरे, दूसरा जाए भाड़ में। इसी ओवर टेक के चक्कर में जहाँ हमें 10-15 मिनट लगने होते हैं वहाँ कई-कई घण्टों का जाम लग जाता है। फिर निकालते रहो एक दूसरे पर भड़ास। खुद को सभ्य समाज का पढ़ा लिखा कहने वाले लोगों को समझाने या नियमों का पालन कराने के लिए आधा पुलिस बल तो सड़कों पर तैनात करना पड़ता है। अब जो पुलिस अपराध पर नियंत्रण रख सकती थी उसे सड़क पर लोगों पर नियंत्रण रखने में अपना समय खराब करना पड़ता है। हम स्वयं ही नियमों का पालन करने लगे तो यह हमारे अहम पर सबसे बड़ी चोट होगी। जब तक किसी ट्रेफिक पुलिस वाले से उलझ न ले या तू-तू मैं-मैं न करले आत्म सन्तुष्टि की प्राप्ति नहीं होती और जब उस ट्रेफिक वाले को फोन पर जुगाड़ लगाई जाती है, उसके बाद मिलने वाला आनन्द, इसकी व्याख्या तो शब्दों में हो ही नहीं सकती।
बड़े शहरों में सड़कों पर ट्रेफिक लाईट लगी होती है। सरकार इन पर काफी पैसा खर्च करती है पर हमें तो यह डिस्को लाईट से ज्यादा कुछ और लगती ही नहीं है। लाल लाईट जले तो जलती रहे हम तो उसे क्रॉस करके जायेगे ही। लगता है जैसे सब कलर ब्लाईंड हो गए हों। हरे व लाल रंग में अंतर करना ही मुश्किल पड़ जाता हो। लाईट लगने के बाद भी पुलिस को लाईट का पालन कराने के लिए लाइटों के नीचे खड़ा होना पड़ता है।