दामो जी साहित्यकारों की उस श्रेणी में आते हैं जिसे पोंगा साहित्यकार कहना ही उचित होगा। उन्होंने रचनाएं तो बहुत की पर कोई भी रचना किसी प्रतिष्ठित पत्रिका या अखबार में छपी नहीं। उनको उनकी लेखनी के लिए बहुत सारे पुरस्कार मिले। जो उनकी बैठक (ड्राइंग रूम) की शोभा बढ़ा रहे थे। ये पुरस्कार भी उनकी रचनाओं की तरह गुमनाम संस्थाओं ने दिये थे। दामो जी अपने आपको श्रेष्ट रचनाकार मानते थे। वो बात अलग है कि उनके पड़ोसी भी नहीं जानते थे कि वो क्या करते हैं। अगर मोहल्ले में कोई रचनाकार कहकर उनका पता पूछ ले तो लोग उसे दूसरे मोहल्ले में भेज देते थे। कोई गलती से दामो जी के घर पहुंच जाये तो दामो जी तुरन्त ही उसे अपनी पुस्तकें पकड़ा देते थे।
उन्होंने स्वयं ही 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करा ली थीं पर उनकी किसी भी पुस्तक को पाठक नसीब नहीं हुए थे। अगर प्यासा कुँए के पास न आए तो प्यासे के पास ही पूरा कुँआ खोद दो, यही सोच उन्होंने अपना रखी थी। वे स्वयं ही पाठकों तक पहुँच कर उनको सप्रेम पुस्तक भेंट कर आते थे। उन्हें आशा थी कि कोई न कोई उनकी भेंट करी पुस्तकों को जरूर पढ़ेगा।
दामो जी मौलिक रचनाकार थे। वह भानुमति टाइप लेखक नहीं थे कि 10 किताबों से टीपकर अपनी एक पुस्तक छपवा ली। फिर भी उन्हें भानुमति टाइप लेखकों जितनी सफलता का स्वाद चखने को भी नहीं मिला।
अंत में उनका एक किस्सा पढ़े। एक बार उनकी नजर कलुआ धोबी पर गयी जो अपनी मोटर साईकिल पर प्रेस लिखवाकर घूम रहा था। दामो जी ने उसे रोका और टोका, 'कुछ लिखना भी जानते हो या ऐसे ही प्रेस लिखकर घूम रहे हो ?' वो बोला कि लिखना पढ़ना दोनों आता है। अपने गाँव मे सबसे ज्यादा पढ़े लिखे हैं, पूरे पांचवीं तक पढ़े हैं। दामो जी बोले कि मेरा मतलब है अपने हाथ से कोई कविता कहानी लिखी है ? कलुआ बोला कि कक्षा में मास साब जो भी कविता कहानी लिखवाते थे वो सब अपने हाथ से ही लिखी थीं।