यह मेरी डायरी का 50 वां व्यंग्य है पर समझ नहीं आ रहा था क्या लिखूं इसलिए लिखने बैठ गया, पछले उडनचास व्यंग्यों की यादों में खोये हुए। कैसे एक-एक व्यंग्य को दस-दस बार संपादको ने खेद सहित वापस लौटाया था। पड़ोसियों को अपने व्यंग्य पढाये तो उन्होंने भी कह दिया इसे पढ़कर हँसी तो आ नहीं रही। अब मैं कोई कमीडियन तो हूँ नहीं। अब लोगों को व्यंग्य समझ नहीं आते पर एक-दूसरे पर व्यंग्य करने खूब आते हैं। और यही व्यंग्य लोगों की जिंदगी का आनन्द छीन रहे हैं। सभी को हास्य-विनोद व व्यंग्य बहुत पसन्द होता है पर दूसरों पर करना ही। अपने पर बात आते ही भाषा आलोचनात्मक सी हो जाती है। आलोचना भी ऐसी की जो सामने वाले की भी भाषा कुछ और हो जाती है।
मेरा मानना था कि संस्मरण लिखना सबसे आसान विधा है। एक कोने में बैठकर अपनी पुरानी यादों में खो जाओ और जो कुछ भी याद आ जाये उसे डायरी में लिख दो। पर मेरा ये भ्रम तोड़ा लोगों ने सबसे आसान कार्य तो आलोचना करना है। यह मनुष्य में प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली भावना है। मेरा एक व्यंग्य (गलती से) प्रकाशित होते ही लोगों ने उस पर अपनी आलोचनाए (जो आजकल चल रही हैं) भेज दीं। यहाँ तक की हमारे सब्जी वाले ने व्यंग्य पढ़कर कह दिया ये सब तो हमारा बेटा पप्पू भी लिख दे। हमारे व्यंग्य पर ऐसा कटाक्ष और फिर लोगों का उस टिप्पणी पर विनोद करना, आज मेरे व्यंग्यकार होने पर प्रश्न चिन्ह सा लगा गया था।