हिन्दी साहित्य में गधे का जिक्र तो बहुत होता है पर उसे आज तक किसी पाठ्यक्रम में निबन्ध का विषय नहीं बनाया गया। यू तो भारत में गाय को माँ माना जाता है पर जरूरत पड़ने पर बाप गधे को ही बनाया जाता है। इसके सींग न होते हुए भी सिर से गायब हो जाते हैं। जिनके सींग थे उन्होंने फैशन में आकर अपने सींग कटवा दिये और वो फैशन की अंधी दौड़ में गधे बन गये। संगीत प्रेमी गधे को (जिन्हें संगीत का कुछ ज्यादा ही उच्च कोटि का ज्ञान होता है) संगीत से जोड़ते हैं। अगर किसी की बुद्धि घास चरने चली जाए तो उसे गधे की उपमा दे दी जाती हैं। दूसरी ओर कहा जाता है कि गधा या घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या। कुछ लोग दूसरे का दिमाग खाते हैं तो किसी के दिमाग में भूसा भरा होता है। सावन के अंधे (गधे) को सब हरा दिखता है। गधा अब घास नहीं खाता क्योंकि अब कंक्रीट के जंगलों में घास के मैदान बचे ही नहीं हैं।
गधों का सम्बंध राजनीति से भी रहा है। जो जितना बड़ा गधा होगा राजनीति में उसका उतना बड़ा कद होगा। पर ये गधे जनता को उल्लू बनाकर राजनीति में आ जाते हैं। साधरणतया उल्लू और गधे का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है पर राजनीति में उल्लू नहीं गधे ही चलते हैं। अब गधे और उल्लू में फर्क बताना मेरे बस के तो बाहर है। अड़ियलपन गधे के साथ नेताओं का नैसर्गिक गुण है। यह गुण विपक्ष में रहते ज्यादा दिखता है। जो कभी न घर के थे न घाट के वो अब मंत्री हो जाते हैं और उनके चक्कर में जनता न घर की रहती है न घाट की। अंत में पापा हास्यकवि का छ्न्द