चीन के सामान की खासियत है कि चले तो चाँद तक नहीं तो शाम तक। जबकि हमारा सामान, दादा खरीदता था और पोता इस्तेमाल करता था। याद करिए उस कैसेट प्लेयर या डेक को जो कई दशकों तक आपको संगीत सुनाता था। हम लोग खुशियाँ बेचते थे।
आजकल बाजार टेंशन बेच रहा है। लोग 60-80 हजार के फोन खरीदते हैं फिर टेंशन रहता है कहीं फोन गिर न जाये। 10-20 हजार का सूट पहन लेते हैं और कोई गलती से आपके कन्धे पर हाथ रख दे या सूट को छू ले तो लड़ाई शुरू हो जाती है। 100-300 रुपये का पेन खरीद कर आदमी अपनी जेब में लगा लेता है और वो कहीं गिर जाये तो पागलों की तरह उसे ढूंढता फिरता है। याद करें पहले 2-3 रुपये में पेन आ जाता था। कहीं खो भी जाए तो कोई गम नहीं होता था। खो गया तो खो गया। कोई पेन माँगे तो बड़े प्यार से लोग उसे अपना पेन देते थे। पेन लेना भूल भी जाओ तो कोई अफसोस नहीं होता था। आजकल तो कोई पेन वापस न करे तो नौबत fir लिखवाने तक पहुँच जाती है।
पहले बच्चे खिलौने लाते थे। खूब जी भरकर खेलते थे, तोड़ देते थे, फिर नये खिलौने खरीद कर लाते। अब महँगे-महँगे खिलौने बच्चों को दिला तो दिये जाते हैं पर एक पूरा संविधान उन्हें समझा दिया जाता है। ऐसे खेलना, ऐसे मत खेलना। इतने दिनों तक संभाल कर रखना। बच्चे को खिलौना तो दिला दिया पर उसकी खुशी छीन ली। पहले मिट्टी या बॉस या सस्ते-सस्ते खिलौने होते थे जो बच्चों के खेलने के लिए होते थे। दिखावे या सजाने के लिए नहीं।