मीडिया की नजर कभी छोटे लोगों पर नहीं जाती उन्हें सिर्फ शहर की परेशानी व पेट्रोल ही नजर आता है। पेट्रोल पर अगर 10 पैसे भी बढ़ जाये तो मीडिया कई दिन तक न्यूज चलाता है क्योंकि पेट्रोल की जरूरत अमीरों की दस-दस गाड़ियों को पड़ती है। गरीब क्या पेट्रोल से साइकिल चलाएगा, कई लोगों पर तो साइकिल भी नहीं होती। वो रोज कई किलोमीटर पैदल चलकर फेक्ट्री जाते हैं या ठेला चलाते हैं। अमीरों की किटी पार्टी तक के फोटो व समाचार छपेंगे लेकिन किसान आत्महत्या करते रहें तो उसकी कोई खबर नहीं छपती। पिछले 70 सालों से यही होता आया है।
हमारे देश का खास मीडिया समूह ऐसा है जिसके सामने खड़े होकर देश विरोधी नारे लगाते रहो उसे कुछ नहीं दिखेगा लेकिन आप जंगल में बैठकर हिन्दुत्व की बात कर दो तो न जाने कहाँ से झाड़ियों से निकलकर बताएगें कि इसकी वजह से संविधान को खतरा पैदा हो रहा है। पालघर में साधुओं की हत्या या सुशान्त सिंह के मर्डर पर जब सारे मीडिया वाले अपने आपको साँप सुंघा कर बैठ गए थे तब एक ही पत्रकार ने यह मुद्दा उठाया था जिसे बाद में आतंकवादीयों की तरह पुलिस उठाकर ले गयी थी लेकिन गहरी नींद में सोये यही लोग हाथरस जैसे काण्ड पर बरसाती मेढक की तरह टर्राना शुरू कर देते हैं। ऐसे ही किसी को हिंदुस्तान में रहने में डर लगता है तो किसी के लिए भारत रहने के लिए सुरक्षित जगह नहीं है परन्तु यही लोग सीरिया या तालिबान की बात पर चुप हो जाएंगे या भड़क जाएंगे।
इन सबके बाद भी चेलनों पर समय बच जाता है फिर वो इस तरह के समाचार दिखायेंगे इच्छाधारी नागिन, आग उगलता ड्रेगन, भूत-चुडैले, पिछले जन्म की कहानियाँ। इन समाचारों से ज्यादा सच्चाई तो सास बहू के नाटकों में लगती है। कई बार पत्रकार सैनिकों से पहले लड़ाई के मैदान में पहुंच जाते हैं। कोई समुद्र के तल से, कोई लावामुखी में, कोई बाढ़ में जहां बचावकर्मी भी नहीं पहुंच पाते, ये पहले ही उस जगह से रिपोर्टिंग शुरू कर देते हैं। हद तो तब हो गई जब एक पत्रकार चन्द्रमा से भी रिपोर्टिंग करने लगा।