होली का मौसम आते ही होली मिलन के कार्यक्रम भी शुरू हो जाते हैं। ये समारोह होली से एक महीने पहले शुरू होते हैं और होली के एक महीने बाद तक चलते रहते हैं। ब्रज में होली एक महीने की होती हैं पर ये होली मिलन समारोह उससे भी दोगुने चलते हैं। गरीब से गरीब आदमी भी कम से कम छः सात होली मिलन में शामिल हो जाता है। जिन लोगों को होली के नाम से भी एलर्जी होती है वो भी ऐसे समारोह में शामिल होते दिख जायेगें।
पर होली वाले दिन न जाने लोगों को क्या हो जाता है। कोई घर से बाहर ही आना नहीं चाहता। सब टीवी पर देखकर ही होली का आनन्द लेना चाहते हैं। कालोनियों में तो कर्फ्यू जैसा माहौल होता है। कुत्तों के अलावा गलियों में कोई नहीं दिखता।
जो बहन जी और आंटियाँ कई-कई किटी पार्टियों में एक दूसरे को भर-भर कर रंग लगती हैं। उन्हें होली वाले दिन न जाने क्या हो जाता है, वो बस बिन्दी वाली होली खेलती हैं। वो कहती हैं बस एक बिन्दी लगाना, हमारा चेहरा खराब हो जायेगा। स्किन का ग्लो चला जायेगा। भाई, होली मिलन में जब पूरे-पूरे चेहरों पर कई-कई रंग लगाकर फोटो खिंचवाती हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर डालती हैं तब स्किन का ग्लो क्यों नहीं जाता कहीं पर।
अब त्यौहार, त्यौहार वाले दिन छोड़कर पूरे हफ्ते या महीने तक बनाने का रिवाज सा हो गया है। लोग त्यौहार भी अपनी खुशी के लिए नहीं बल्कि औरों को दिखाने के लिए बनाने लगे हैं। शायद यही अब पढ़े लिखे या सभ्य होने का प्रतीक बन गया है। गाँवों में अब भी त्यौहार वाले दिन दिल खोलकर त्योहारों का आनंद लिया जाता है। जिसकी हम शहर वाले असभ्य या गवार कहकर हँसी उड़ाते हैं।