झुकते वही हैं जिनमें जान है, अकड़े रहना मुर्दों की पहचान है। यह देश मुर्दों का है। न इन्हें गाँधी के विचार जगा सकते हैं, न ही विवेकानंद का ज्ञान नींद से उठा सकता है। कुछ कथित बुद्धिजीवियों से इनकी बहस हो गयी, जब महिसासुर मरा तब एक दलित और शोषित आदिवासी को मारा गया था पर जब रावण को मारा गया तो वह ब्राह्मण नहीं बल्कि अहंकारी और राक्षस था। महीने भर इस पर बहस चली व अंत में लोगों के ईनाम वापस करने की धमकी पर इस पर आपसी सहमति बनवा कर मुद्दा बंद करवा दिया गया। पर लेखन का कीड़ा ऐसा कीड़ा है जो लोगों को सोने नहीं देता और लिखने के लिए उकसाता रहता है। इस कीड़े का कोई ईलाज भी नहीं है। हो सकता है यह शक के कीड़े का दूर का कोई रिश्तेदार हो। जब भी इनका लेखन का कीड़ा जागा तब-तब इनकी आलोचना करने वालों का शक का कीड़ा भी जागा। वो कई-कई रातों तक सो नहीं पाये। उनको शक लगा रहा यह जरूर देश में साम्प्रदायिक ताकतों को मजबूत करके ही रहेंगे। शक का ईलाज भले ही हकीम लुकमान के पास नहीं था पर देश के कथित बुद्धिजीवियों पर है। उन्हें पता है एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह झूठ नहीं रहता। और कोई इस सफेद झूठ पर शक भी नहीं करता। उन्होंने आखिर यह सिद्ध कर दिया कि वह नौ सौ चूहे खाकर हज पर जाने वाले सम्प्रदायिक लेखक हैं।