पहले बहुत मुखर रहते थे, भर देते थे जोश पिता
अब तो बस खोए-खोए-से रहते हैं खामोश पिता
इनका भी इक दौर था सबसे कितना ये बतियाते थे
अब तो है केवल तन्हाई, किसको दे फिर दोष पिता
जिनको पाला-पोसा वे सब निकले नमकहराम बड़े
ऐसी औलादों पे अक्सर करते हैं अफसोस पिता
कभी नहीं फरमाइश करते, पढ़ पाओ तो पढ़ लो मन
जितना भी मिल जाये उसमें कर लेते संतोष पिता
अपने सुख को काटा-पीटा, माँ भी रही अभावों में
लेकिन बच्चों की खातिर तो हरदम अक्षय-कोष पिता
काश हमेशा बच्चे रहते, बने यहाँ हम डैडी क्यों
अपने में ही मस्त-मस्त हैं, दूर हुए कई कोस पिता
बचपन में जब गिर जाता था, कितना रोया करता था,
चुप होता था उसी घड़ी जब लेते थे आगोश पिता
दुनिया अपने ढर्रे पर है, कल कितना अच्छा था वो
रिश्तों में बढ़ती खुदगर्जी, रहे बैठ कर कोस पिता