ऐसे लोगों से हमको बहुत ही डर लगता है जो 'इतिहास - पुरुष' किस्म के होते हैं। यानी इतिहास के जानकार। कुछ सच्चे जानकार होते है तो कुछ बड़े झुठल्ले। जिन्होंने इतिहास के साथ साथ 'फेंकोलाज़ी' में भी डिग्री हासिल कर ली हो। यानी बस फेंके जाओ, सच हो चाहे झूठ। मनगढ़ंत बातों को इतिहास बता कर निकल लो पतली गली से। बाद में लोग आपस में सिर-फुटौवल करते रहें। उनकी बला से। ऐसे लोग स्वयंभू पुरातत्ववेत्ता होते हैं। ये राह चलते किसी भी पुरानी वस्तु को घूर कर देखने लगते हैं और उसका काल निर्धारित करने में भिड़ जाते हैं। इस चक्कर में बेचारे पिटते भी रहते हैं।
एक दिन एक इतिहासज्ञ एक मोटी महिला को घूर कर देख रहे थे, तो उसके पति ने उनकी पिटाई कर दी और पूछा, "का देख रहा था बे?"
इतिहासज्ञ बोला, "देख रहा था कि ये बिल्डिंग कितनी पुरानी है।" यह सुनकर फिर दनदन पिटाई, "साले, हमार खबसूरत जोरू तुझे बिल्डिंग नज़र आवत है?"
पिटने की पीड़दायक प्रक्रिया से गुजरने के बाद इतिहासज्ञ ने सड़क के उस पार खड़ी एक बिल्डिंग की ओर इशारा करके बोला,
"अरे मेरे बाप, मैं तो उस बिल्डिंग की बात कर रहा हूँ।" तब लोगों ने सॉरी बोल कर उसे छोड़ दिया। उस दिन सड़क के किनारे पड़े एक पत्थर को वह दस हजार साल पुराना बताने लगा।
लोग हँसने लगे, तो वह नाराज़ हो कर बोला, "मुझ पर हँस रहे हो, मुझ पर, जिसे लोग इतिहास-पुरुष कहते हैं? भस्म कर दूंगा तुम सब को।"
लोग घबरा कर आगे बढ़ गए।
एक दिन वह एक घर को गौर से देख रहा था। मकान मालिक घबराया।
दौड़ कर पास आया, "क्यों भाई, क्यों घूर रहे हो इसे?"
इतिहासकार बोला, "इस घर में ही सन् 1860 में स्वामी विवेकानंद रहते थे।। इसे राष्ट्रीय स्मारक बना देना चाहिए।"
पास खड़े एक सज्जन भी कुछ ज्ञान रखते थे। वे भड़क कर बोले, "कुछ भी मत फेंको। विवेकानंद का जन्म 1863 में हुआ था तो वे 1860 में अपने जन्म से तीन साल पहले यहाँ क्या करने आए थे?"
इतिहासकार भी चीखा- "अरे, वे तब आए थे जब अपनी माँ के गर्भ में थे। समझे। उनकी माँ यहां आई थी". उसकी बात सुनकर लोग हँसने लगे तो इतिहासकार खिसिया कर आगे बढ़ गया।
एक दिन शहर के बाहर एक जगह खड़े हो कर इतिहासज्ञ जी लोगों को बता रहे थे, "आप लोग ये जो पत्थर पर पैरों के निशान देख रहे हैं न, वो हनुमान जी के पैरों के निशान हैं।" कुछ लोग फौरन से पेश्तर उस निशान को प्रणाम करने लगे। भीड़ लग गई।
एक ने कहा, ''बोलो बजरंग बली की...'' तो बाकी लोगों ने कहा, "जय"।
तभी एक आदमी वहां पहुँचा और बोला, "अरे मेरे दद्दा, ये बजरंग बलि के पैर नहीं, एक मूर्ति के पैर हैं। मैं मूर्तिकार हूँ। बहुत दिन से केवल पैर बना कर छोड़ दिया था। अब बाकी काम करूँगा।"
इतना सुनना था कि लोग भड़क गए। इतिहासज्ञ एक बार फिर पिटते-पिटते बचा।
...और उस दिन के बाद से वो इतिहास नहीं, साहित्य में रुचि ले रहा है। उसे किसी ने समझा दिया है कि साहित्य में "फेंकने" की भरपूर गुंजाइश रहती है। जो जितना फेंके, उतना बड़ा साहित्यकार। इतिहासज्ञ अब साहित्य में धूम मचाए हुए है।
कभी कहता है, कविता मर रही है ...
तो कभी कहता है कहानी का अंत हो रहा है।....
यहाँ उसे कोई पीटने वाला नहीं क्योंकि यहाँ एक नहीं, अनेक आत्माएं इसी गोत्र की हैं।
इतिहास के नाम पर
वे लोग बेचारे
उपहास के पात्र
बन जाते है
जो इतिहास के साथ-साथ
फेंकोलजी का भी
पाठ पढ़ाते हैं