साहित्यकार लोक हित का प्रवक्ता होता है।
लोकमंगल ही साहित्य की आत्मा है. जो साहित्य इसके विपरीत आचरण में संलिप्त है, वह साहित्य नहीं, एक तरह का सामाजिक अपराध है. .आज साहित्य खेमो में बँटा नज़र आता है। सवर्ण-साहित्य, दलित-साहित्य , हिन्दू -साहित्यकार, मुस्लिम-बुद्धिजीवी , जैन-सन्त , हिन्दू-सन्त। हद है। ऐसे अलगाव के बीच सच्चा साहित्य कैसे पनपेगा ? वह साहित्य जिसमे अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुनबे के लिए नहीं, समूची मानवता लिए करुणा हो। मैंने साहित्य को परिभाषित करते हुए कभी एक मुक्तक लिखा था-
जिसमे जन-गण-मन का वंदन वह सच्चा साहित्य
जिसमें करुणा का स्पंदन वह सच्चा साहित्य
आज़ादी का अर्थ नहीं हम हो जाएं निर्वस्त्र
जिसमे नैतिकता का बन्धन वह सच्चा साहित्य